थनैला रोग एक जीवाणु जनित रोग है, जो ज्यादातर दुधारू पशु जैसे गाय, भैंस, बकरी आदि में होता है. इस रोग में पशु के अयन (थन) का सुजना, अयन का गरम होना एवं अयन का रंग हल्का लाल होना इस रोग की प्रमुख पहचान हैं. अधिक संक्रमण होने की अवस्था में दूध निकालने का रास्ता एक दम बारीक हो जाता है और साथ में दूध फट के आना, मवाद आना जैसे लक्षण दिखाई देते है. संक्रमित पशु के दूध को यदि मनुष्य द्वारा ग्रहण किया जाये तो मनुष्यों में कई प्रकार की बीमारियों हो सकती है, इस कारण यह रोग ओर अधिक विनाशकारी हो जाता है.
क्यों होता है दुधारु पशुओं में थनैला रोग
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इस बीमारी का मुख्य कारण थनों में चोट लगने, थन पर गोबर, यूरिन अथवा कीचड़ का संक्रमण पाया गया है. दूध दोहने के समय साफ-सफाई का न होना और पशु बाड़े की नियमित रूप से साफ-सफाई न करने से यह बीमारी हो जाती है. जब मौसम में नमी अधिक होती है या वर्षाकाल का मौसम हो तब इस बीमारी का प्रकोप और भी बढ़ जाता है.
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थनैला रोग संक्रमण तीन चरणों में करता है- सबसे पहले रोगाणु थन में प्रवेश करते हैं. इसके बाद संक्रमण उत्पन्न करते हैं तथा बाद में पशु के थन में सूजन पैदा करते है.
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सबसे पहले जीवाणु बाहरी थन नलिका से अन्दर वाली थन नलिकाओं में प्रवेश करते हैं वहां अपनी संख्या बढ़ाते हैं तथा स्तन ऊतक कोशिकाओं को क्षति पहुंचाते हैं. थन ग्रंथियों में सूजन आ जाती है.
पशुओं में थनैला रोग की रोकथाम के उपाय:
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एक पशु का दूध निकालने के बाद पशु-पालक को अपने हाथ अच्छी तरह से धोने चाहिए ताकि रोग को फैलाने में सहायक न हो सके.
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पशुओं का आवास हवादार होना चाहिए तथा अधिक नमी नहीं होनी चाहिये. अधिक नमी में इस जीवाणु के पनपने की संभावनाएं बढ़ जाती है.
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पशु के बाड़े और उसके आसपास साफ-सफाई रखनी चाहिए.
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दूध निकालने से पहले एवं बाद में किसी एन्टीसेप्टिक लोशन से थन की धुलाई करके साफ कपडे से पोछना चाहिए.
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अधिक दूध देने वाले पशुओं को थनैला रोग का टीका भी लगवाना चाहिए .
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संक्रमित पशु को अलग रखना चाहिये, जिससे दूसरे पशु भी संक्रमीत न होने पाये.
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बीमारी की जाँच शुरू के समय में ही करवाना चाहिए . इसके लिए दूध में थक्के जैसी या जैल जैसी संरचना दिखाई दे तो दूध परीक्षण करवाएं.
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पशु में बीमारी के लक्षण दिखाई देने पर तत्काल निकट के पशु चिकित्सालय या पशु चिकित्सक से उचित सलाह लेनी चाहिए.