पिछले कुछ वर्षों में मक्का की एकल संकर किस्मों के द्वारा उत्पादन क्षेत्र, उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि हुई हैं. उच्च प्रोटीन युक्त मक्का में ट्रिप्टोफेन एवं लाईसीन उच्च मात्रा में पाया जाता है, जो गरीब लोगों को उचित आहार एवं पोषण प्रदान करता है. इसके साथ ही कुक्कुट एवं पशुओं के लिए पोषक आहार हैं. मक्का के बीज उत्पादन एवं निर्यात की भी अधिक संभावना हैं. अतः वर्तमान समय में भारतीय अर्थव्यवस्था में मक्का का बहुत महत्वपूर्ण स्थान हैं.
मक्का को विश्व में खाद्यान्न फसलों की रानी कहा जाता है, क्योंकि इसकी उत्पादन क्षमता खाद्यान्न फसलों में सबसे अधिक हैं. पहले मक्का को विशेष रूप से गरीबों का मुख्य भोजन माना जाता था, जबकि अब ऐसा नहीं है. अब इसका उपयोग मानव आहार (13%) के साथ-साथ कुक्कुट आहार (47%), पशु आहार (1%), स्टार्च (14%), तथा संसाधित खाद्य (7%) के रुप में किया जाने लगा है. इसके अलावा मक्का तेल, साबुन इत्यादि बनाने के लिए भी प्रयोग की जाती है.
मक्का से भारतवर्ष में 1000 से ज्यादा उत्पाद तैयार किए जाते हैं. मक्का का चूरा धनवान लोगों का मुख्य नाश्ता है. छोटे बच्चों के लिए मक्का का चूरा पौष्टिक भोजन है तथा इसके दाने को भूनकर भी खाया जाता है. शहरों के आस-पास मक्का की खेती हरे भुट्टां के लिए मुख्य रूप से की जाती है. आजकल मक्का की विभिन्न प्रजातियों को अलग-अलग तरह से उपयोग में लाया जाता है. मक्का को पॉपकॉर्न, स्वीटकॉर्न, एवं बेबी कॉर्न के रूप में भी पहचान मिल चुकी है.
पिछले कुछ वर्षां में भारत ने मक्का उत्पादन में नए आयाम खड़े किए हैं, जिनकी बदौलत वर्ष 2018-20 में मक्का का उत्पादन 281.8 लाख टन के उच्च स्तर पर पहुंच गया है. इसके साथ ही उत्पादकता 3010 कि.ग्रा. प्रति के स्तर पर है.
2008-10 वर्ष की तुलना में मक्का का उत्पादन 53% अधिक है. इसकी बदौलत मक्का की विकास दर खाद्यान्न फसलों में सर्वाधिक है, जो इसकी बढ़ती उपयोगिता एवं लाभदायिकता को दर्शाती है.
भारत में लगभग 80% मक्का की खेती खरीफ के मौसम में होती है. भारत में मक्का वर्षपर्यंत सभी मौसम में जैसे- रबी, खरीफ एवं जायद तीनों ऋतुओं में की जाती है. इनमें सर्वाधिक खरीफ (75-76%), उसके बाद रबी (21-22%) तथा सबसे कम जायद मक्का (2-3%) का है. हांलाकि, पिछले कुछ वर्षां से जायद मक्का के क्षेत्रफल में लगातार वृद्धि हो रही हैं.
जायद मक्का की महत्ता मुख्यतः उन फसल प्रणालियों में ज्यादा है, जिनमें खेत फरवरी के अन्त या मार्च के शुरूआत में खाली हो जाते हैं. इनमें सबसे ज्यादा क्षेत्रफल आलू की फसल की कटाई के बाद खाली होने वाले खेतों का है. जायद मक्का मुख्यतः पंजाब, हरियाणा, उतर प्रदेश, बिहार व बंगाल में प्रचलित है. जायद मक्का की महत्ता मुख्यतः उन फसल प्रणालियों में ज्यादा है, जिनमें खेत जनवरी या फरवरी के अन्त या मार्च के शुरूआत में खाली हो जाते हैं.
रबी मक्का विगत कुछ वर्षों में बहुत तेजी से बढ़ी है. वर्तमान में इसकी उत्पादकता खरीफ फसल की तुलना में दोगुनी है. रबी मक्का की फसल भारत के विभिन्न राज्यों जैसे- बिहार, पश्चिम बंगाल आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू और तेलंगाना में बहुतायत से होती है. रबी मक्का की अधिक उत्पादन क्षमता लेने के लिए कृषि कार्य भी उतने ही सावधानीपूर्वक करने चाहिए.
हमारे इस लेख में एकल संकर मक्का से अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए रबी एवं जायद मक्का हेतु कृषि कार्यों को संकलित किया गया हैं. उम्मीद है कि यह मक्का अनुसंधानकर्ताओं, विद्यार्थियों, प्रसार कार्यकर्ताओं एवं किसानों आदि के लिए जायद मक्का की सही किस्मों का चयन करने, उत्पादन एवं लाभ को बढ़ाने में उपयोगी होगा.
घटती जल उपलब्धता के परिप्रेक्ष्य में इसकी खेती बसंत एवं रबी ऋतु में चावल की बजाय काफी लाभदायक होती है. इसकी खेती शून्य जुताई प्रणाली में भी की जा सकती है. विशेषकर आलू के बाद सीधा पाटा लगाकर इसकी सीधी बुवाई कर सकते हैं. बसंतकालीन मक्का की बुवाई जनवरी से फरवरी के बीच करने से अधिकतम लाभ होता है एवं पानी की भी बचत होती है.
हालांकि, इसकी बुवाई मार्च तक भी की जा सकती है. इसकी फसल मई के अंतिम पखवाड़े से लेकर जून के प्रथम पखवाड़े तक पक जाती है. रबी मक्का अक्टूबर-दिसम्बर में लगाई जाती है और अप्रैल-मई में कट जाती है. इसकी औसत उपज 20-25 क्विंटल एकड़ बसंत में तथा 30-40 क्विंटल एकड़ रबी में प्राप्त होती है.
इस समय अच्छी गुणवता एवं बाजार में अधिक मांग के कारण अधिक मुनाफा होता है. अप्रैल-मई में रबी मक्का में जल व पोषण प्रबंधन एवं कटाई तथा बसंतकालीन में इन कार्यों के साथ-साथ खरपतवार नियत्रण एवं कीट प्रबंधन प्रमुख कार्य है, जो इस फसल में करने आवश्यक है.
पोषण प्रबन्धन (Nutritional management)
मक्का की अधिक उपज के लिए बुवाई से पहले मिट्टी की जांच करवाना अतिआवश्यक है. भारतीय मृदाओं में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश के अतिरिक्त कुछ सूक्ष्म तत्वों जैसे - लोहा व जस्ता आदि की कई क्षेत्रों में कमी देखी गई है. उर्वरकों का प्रयोग खेत की दशा तथा उसमें पूर्व में ली गई फसल पर निर्भर करता है. यदि जायद मक्का आलू की फसल के बाद में ली गई है, तो फॉस्फोरस एंव पोटाश डालने की आवश्यकता नहीं है.
बसंतकालीन मक्का में एक बैग यूरिया/एकड़ फसल घुटने तक की ऊंचाई के समय, एक बैग यूरिया/एकड़ मंजरी के ठीक पहले तथा आधा बैग यूरिया/एकड़ दाना बनते समय देने से अधिक उपज प्राप्त होती है. जिन क्षेत्रों में दिसम्बर में रबी मक्का की बुवाई की गई है, उनमें एक बैग यूरिया एकड़ डालें. यूरिया डालने से पहले सिंचाई कर दें, ताकि इसका अधिकतम लाभ प्राप्त हो सके.
जल प्रबंधन (Water management)
अप्रैल-मई के महीनो में तापमान बहुत ही तेजी से बढ़ता है, जिस कारण फसल की जल मांग बहुत बढ़ जाती है. मक्का एक ऐसी फसल है, जो न सूखा सहन कर सकती और न ही अधिक पानी सहन कर सकती है. सामान्यतः 8-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए, लेकिन फूल आते समय तथा परागण की क्रिया के समय खेत में उचित नमी रहनी चाहिए, नहीं तो गर्म हवाओं के कारण परागकणों के नष्ट होने का खतरा रहता है, जिससे उत्पादन में कमी आ सकती है. सिंचाई की दृष्टि से नई पौध, घुटनों तक की ऊंचाई, फूल आने तथा दाने भराव की अवस्थाऐं सबसे संवेदनशील होती हैं तथा इन अवस्थाओं में अगर सिंचाई की सुविधा हो तो सिंचाई अवश्य करना चाहिए.
बसंतकालीन मक्का में बुवाई के 25-30 दिन बाद पहली सिंचाई करते हैं, फिर 15 दिनों के बाद 10 अप्रैल तक और उसके बाद 7-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते हैं. उच्च तापमान तनाव से बचने के लिए अनाज भरने के चरण के दौरान सिंचाई सुनिश्चित की जानी चाहिए. रबी मक्का में अभी दाने भरने की अवस्था है, जो पानी की कमी हेतु सहिष्णु है. इस तरह सिंचाई करने से दाने अच्छे बनते हैं.
ड्रिप सिंचाई (Drip irrigation)
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ड्रिप सिंचाई से मक्का उत्पादन सफलतापूर्वक किया जा सकता है. ड्रिप फर्टिगेशन के साथ स्वीट कॉर्न की खेती सबसे फायदेमंद है. अनाज उद्देश्य मक्का में, ड्रिप लाइन 1-2 मीटर की दुरी पर 40 सेमी से इमिटर की दूरी पर बिछानी चाहिए.
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2 लीटर/घंटा इमिटर के डिस्चार्ज के साथ ऐसी एक ड्रिप लाइन से मक्का के दो युग्मित पंक्तियों को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है, जो रेतीली दोमट मिट्टी में समान पानी का अनुप्रयोग देती है.
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ड्रिप सिंचाई से 60% तक पानी की बचत होती है, साथ ही फर्टिगेशन से उत्पादन भी 40% अधिक मिलता है.
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उपसतह ड्रिप विधि का जीवन 15 वर्ष से अधिक है और बढ़ते मक्का के लिए उपयुक्त है.
लेखक: शंकर लाल जाट, सुबी एस. बी, सी.एम. परिहार, भूपेंद्र कुमार, कृष्ण कुमार, अनुप कुमार, राधेश्याम और नवीन कुमार
आईसीएआर-भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान, दिल्ली इकाई, नई दिल्ली
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