2016 को कई कारणों से याद किया जा सकता है, लेकिन भारतीय राजनीति के लिए उस साल का अपना ही महत्व है. कौन भूल सकता है नवम्बर का वो महीना, जब अचानक प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का ऐलान कर दिया था. इस फैसले का असर समूचे भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा, राजनीतिक गलियारों में तो मानो भूचाल आ गया. हालांकि देश के आम वर्ग का पूरा समर्थन मोदी को मिला, लेकिन असली परीक्षा तो चंद महीनों बाद यूपी में होने वाला चुनाव था. तमाम असहमतियों, परेशानियों एवं आरोपों के बावजूद फिर कुछ ऐसा हुआ, जो देखने में दुर्लभ ही मिलता है. यूपी की जनता ने नोटबंदी के बाद हुए चुनावों में भी बीजेपी को सर आंखों पर बिठाया. अब आप सोच रहे होंगे कि 2020 के अंत में हम 2016 को क्यों याद कर रहे हैं? याद करने का कारण है, इस साल बिहार विधानसभा चुनाव से पहले किसानों का मुद्दा गरमाया हुआ है. विपक्ष की सभी पार्टियों ने किसान बिल का विरोध करते हुए इसे एक तानाशाही फैसाल बताया है. ऐसे में सवाल तो बनता ही है कि क्या उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के तर्ज पर बिहार में बीजेपी कामयाब हो पाएगी. वैसे आपको याद रखना चाहिए कि बिहार ही वो पहला राज्य था, जिसने एपीएमसी एक्ट को 2006 में समाप्त कर दिया था. हालांकि राजद ने उस समय भी इस फैसले का जमकर विरोध ही किया था.
किसान बिल पर बिहार में सन्नाटा क्यों?
आपने गौर किया होगा कि इस बिल पर प्रदर्शन पंजाब, हरियाण और यूपी में तो खूब हुआ, लेकिन बिहार प्रदेश चुनावी माहौल होने के बावजूद शांत ही रहा. हां, विपक्षी पार्टियों ने अपनी तरफ से विरोध जरूर किए, लेकिन आम किसानों पर नए कृषि बिल का कोई खास असर नहीं दिखा. इसका एक कारण ये भी है कि बिहार के लिए यह बिल नया होकर भी नया नहीं था, नीतीश कुमार ने तो साल 2005 में ही बाजार समितियों को भंग करने का आदेश दे दिया था. उस समय भी यही तर्क दिया गया था कि बाजार समितियों में किसानों का शोषण होता है.
पिछले 15 सालों से प्रदेश के किसान अपना अनाज मनचाहे स्थान पर बेच ही रहे हैं. ऐसे में प्रदेश के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का ये कहना गलत नहीं था कि इस मामले को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जा सकता और जो ऐसा कर रहे हैं, उन्हें करारा झटका ही लगेगा.
प्रदेश के चुनाव में इस बार पलायन एवं नौकरी एक बड़ा मुद्दा है. विपक्ष ही नहीं हर पार्टी अपने घोषणाओं में नौकरियों का ख्याल रख रही है. अब भाजपा के विजन डॉक्यूमेंट को ही देख लीजिए, जिसमें सबसे बड़ा वादा शिक्षकों की नौकरी का है. 3 लाख टीचरों की नियुक्ति के साथ-साथ 19 लाख लोगों को रोजगार देने की घोषणा है. ध्यान रहे कि 10 लाख नौकरियों की घोषणा तो खुद राजद कर चुकी है. हालांकि भाजपा के घोषणा-पत्र में नौकरियां ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अधिक केंद्रित दिखाई देती है. पार्टी ने एक हजार नए किसान उत्पाद संघों को आपस में जोड़कर 10 लाख रोजगार पैदा करने की बात कही है. इस फैसले से मक्का, फल, सब्जी, चूड़ा, मखाना, पान, मशाला, शहद, मेंथा की खेती करने वाले किसान सीधे तौर पर प्रभावित होंगें.
इसी तरह राजद ने भी ग्रामीण मुद्दों को भूनाते हुए हुए अपने चुनावी घोषणापत्र में सरकारी नौकरियों में बिहार के युवाओं को तरजीह देने, डोमिसाइल पॉलिसी, कृषि, उद्योग, उच्च शिक्षा, महिला सशक्तिकरण जैसे मुद्दों को शामिल किया है. इसके अलावा स्मार्ट गांव, किसान आयोग, व्यावसायिक आयोग, युवा आयोग आदि के गठन की बात कही है.
अब जबकि प्रदेश का चुनाव समाप्ति की तरफ बढ़ रहा है, ऐसे में देखना ये होगा कि क्या प्रदेश के किसान अपने मुद्दों पर वोट देंगें या यहां भी पाकिस्तान, राम मंदिर, ऐनआरसी जैसे आदि मुद्दों पर बीजेपी जीतने में कामयाब रहेगी.