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Updated on: 4 March, 2025 12:00 AM IST
Dr Rajaram Tripathi

Chhattisgarh Budget 2025-26: छत्तीसगढ़ सरकार के 2025-26 के बजट को हम एक मायने में निश्चित रूप से अनूठा कह सकते हैं, कि एआई और डिजिटलाइजेशन के युग में यह बजट हाथ से लिखा गया. कुछ नया कर दिखाने के चक्कर में पूर्व तेजतर्रार आईएएस वित्त मंत्री शायद मोदी जी के डिजिटलाइजेशन के नारे को भूल गए.

पहली नजर में बजट में कई लोग लुभावने बातें नजर में आती है पर जब हम गहराई से बजट की पड़ताल करते हैं तो हमें प्रदेश के किसानों के उत्थान और बस्तर के समग्र विकास के लिए कोई ठोस दृष्टिकोण नजर नहीं आता.

प्रायः बजट आंकड़ों की बाजीगरी और खोखली घोषणाओं के पुलिंदे ही होते हैं, यह बजट भी इससे कुछ ज्यादा अलग हटकर नहीं है. इस बजट की सबसे बड़ी विडंबना यह रही कि बस्तर, जो प्रदेश व देश के लिए सबसे अधिक प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराता है, उसे एक बार फिर उपेक्षित कर दिया गया है.

1. हंसे या रोएं – जैविक खेती के लिए 20 करोड़, प्रमाणीकरण के लिए 24 करोड़!

सरकार साल भर जैविक खेती के सेमिनार वर्कशॉप करती है दिन-रात जैविक खेती की बातें होती है पर जब बजट में राशि आबंटन की बारी आती है तो की बातें बारी आती है, तो जैविक खेती के साथ कैसा मजाक किया जाता है उसकी बानगी देखिए, इस बजट में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए मात्र 20 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है और जैविक प्रमाणन के लिए 24 करोड़ रुपये देंगे.

प्रदेश के 40 लाख किसानों को जैविक खेती के लिए प्रति किसान सालाना केवल ₹50 पचास रुपए मात्र. ऐसे में जैविक भारत मिशन-2047: मियोनप' (MIONP) तथा सतत विकास के 'संयुक्त राष्ट्र संघ' के सस्टेनेबल डेवलपमेंट के 'SDGs'  के संयुक्त वैश्विक लक्ष्यों को भारत कैसे पूरा कर पाएगा. इस बिंदु को हल्के में कदापि नहीं लिया जाना चाहिए.

इसी से जुड़ी दूसरी गंभीर बात यह कि सरकार को जैविक खेती करवाने से ज्यादा चिंता जैविक-प्रमाणीकरण की है. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी को खेती के लिए 20 रुपये दिए जाएं और उसकी फसल की गुणवत्ता जांचने के लिए 24 रुपये!

       सच्चाई यह है कि जैविक प्रमाणीकरण की मौजूदा व्यवस्था किसान हितैषी नहीं, बल्कि पूरी तरह से बिचौलियों और सर्टिफिकेशन एजेंसियों के फायदे के लिए बनी हुई है. किसान जैविक खेती करने में हजारों रुपये लगाता है, लेकिन प्रमाणपत्र हासिल करने में उसे और ज्यादा खर्च करना पड़ता है. फिर भी उसे बाजार में उचित दाम नहीं मिलता.

सरकार को यह समझना चाहिए कि जब जैविक खेती को सही तरीके से बढ़ावा ही नहीं दिया गया, तो प्रमाणीकरण करवाकर क्या फायदा?

    अगर सरकार वास्तव में जैविक खेती के प्रति गंभीर होती, तो उसे प्रमाणीकरण की तुलना में जैविक खेती के विस्तार और किसानों की सहायता पर ज्यादा फोकस करना चाहिए था. लेकिन यहाँ फिर वही पुरानी नीति अपनाई गई – किसानों को कम पैसा दो और अफसरों व एजेंसियों को ज्यादा.

2. ऋणं कृत्वा घृतं पिवामि यानि किसानों को कर्ज में डालने की नीति – असली समस्या पर ध्यान नहीं,

बजट में किसानों के लिए 8,500 करोड़ रुपये के ब्याज मुक्त ऋण की घोषणा की गई है. देखने में यह अच्छा लग सकता है, लेकिन असल में यह किसानों की समस्याओं का हल नहीं है, बल्कि उन्हें एक और कर्ज के जाल में फंसाने की रणनीति है. कर्ज का मकड़जाल किसानों की सबसे बड़ी समस्या है.

किसानों की असली समस्या का हल 'कर्ज' नहीं, बल्कि उनकी उपज का उचित मूल्य न मिलना है. अगर किसान को उसकी फसल का सही दाम मिले, तो उसे बार-बार कर्ज लेने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. कर्ज पर ध्यान देने की बजाय सरकार को यह देखना चाहिए कि:

  • किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले.

  • सभी फसलों पर एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सुनिश्चित किया जाए.

  • खेत में उत्पादन के उपरांत भी फसल का एक बड़ा हिस्सा 25 से 30% तक समुचित भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, विपणन के अभाव तथा अन्यान्य विभिन्न कारणों से नष्ट हो जाता है, यह राष्ट्रीय क्षति है. इन पोस्ट हार्वेस्ट लॉसेस को नियंत्रित किया जाए.

  • कृषि उत्पादों के लिए कृषकोन्मुखी प्रभावी बाजार व्यवस्था विकसित की जाए.

हम आखिर कब समझेंगे कि ब्याज मुक्त ऋण देना सिर्फ तात्कालिक राहत है, लेकिन यह किसानों की समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं है. इससे किसान लगातार कर्ज के चक्र में फंसते जाते हैं और उनकी वित्तीय स्वतंत्रता कभी नहीं आती. समस्या कर्ज की नहीं, बल्कि आय बढ़ाने की है, और इस पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

3. बस्तर से हर घंटे खनिज की अनवरत लूट, लेकिन बस्तर को कुछ नहीं?

बस्तर सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए खनिजों का सबसे बड़ा भंडार है. यहां से रोजाना 24 ट्रेन भरकर सिर्फ लौह अयस्क निकाला जाता है, जो भारत के कई प्रमुख इस्पात संयंत्रों और उद्योगों के लिए जीवनरेखा है. इसके अलावा, बॉक्साइट, टिन, सोना, मैग्नीज़, कोयला, और कई अन्य कीमती खनिज भी यहाँ से निकाले जाते हैं.

    लेकिन क्या बस्तर को इन खनिजों से होने वाली कमाई का उचित हिस्सा मिलता है? अगर सिर्फ लौह अयस्क की रॉयल्टी का पूरा हिस्सा बस्तर के लोगों को मिल जाए, तो वे अरब के शेखों की तरह समृद्ध हो सकते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि खनिजों की लूट हो रही है, और इसका लाभ बस्तर को नहीं मिलता.

      बस्तर के विकास के लिए जो थोड़ी-बहुत राशि चिड़िया के चुग्गे की तरह 'डीएमएफ' के नाम पर मिलती भी है, वह भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती है. यह पैसा कलेक्टरों और नेताओं की पॉकेट मनी की तरह खर्च होता है, और आम जनता तक कुछ नहीं पहुंचता. यह घोर अन्याय है, और वर्तमान वित्त मंत्री इस कड़वी सच्चाई से भली-भांति परिचित हैं, क्योंकि वे खुद बस्तर के कलेक्टर रह चुके हैं.

4. बस्तर की अकूत वन संपदा, वनोपज का दोहन पर बदले में सिर्फ ठेंगा!

बस्तर संभाग में लगभग 70% क्षेत्र वनों से आच्छादित माना जाता है. यहां की बहुमूल्य लकड़ी बस तथा तरह-तरह के  वनोपजों का सरकारें लगातार दोहन करती रही हैं. कहा जाता है कि वन विभाग के ठीक-ठाक  रेंज के रेंजर साहब की आमदनी जिले के कलेक्टर से भी ज्यादा होती है या थी (डीएमएफ फंड के प्रावधान के पूर्व). और यह विभागीय बंदरबांट तो मात्र खुरचन की है, असल मलाई तो सरकार के खाते में जाती है. किंतु इसके बदले में बस्तर को क्या मिलता है यह भी विचारणीय विषय है.

5. बस्तर में पर्यटन और रोजगार के अपार अवसरों की अनदेखी!

बस्तर पर्यटन की दृष्टि से अपार संभावनाओं वाला क्षेत्र है, लेकिन बजट में इको-टूरिज्म और फार्म-टूरिज्म के लिए सिर्फ 10 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. इतने कम बजट में कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर का पर्यटन ढांचा विकसित नहीं किया जा सकता.

6. हवाई कनेक्टिविटी का संकट

बस्तर से रायपुर के लिए 1991 में हवाई सेवा शुरू हुई थी, सरकारों की बस्तर की अपेक्षा के कारण यह कभी नियमित नहीं चल पाई. ‌इस सरकारी की उदासीनता और पक्षपात के कारण पिछले चार-पांच महीनों से यह सेवा एक बार फिर से बंद पड़ी है.

यह हास्यास्पद है कि जहां देश-विदेश में नए एयरपोर्ट बन रहे हैं, वहीं बस्तर संभाग जो कि विश्व के कई देशों से क्षेत्रफल में ज्यादा बड़ा है, इसे प्रदेश की राजधानी रायपुर से जोड़ने वाली एकमात्र हवाई सेवा भी बंद कर दी गई है. अगर यह घोर पक्षपात तथा अपेक्षा नहीं है तो और क्या है?

अन्य राज्य अपने दुर्गम क्षेत्रों को हवाई सेवा से जोड़ने के लिए शुरुआती फ्लाइट्स में घाटा होने पर कैपिंग के आधार पर हवाई कंपनियों को जरूरी अनुदान देकर भी नियमित हवाई सेवाएं चलवा रहे हैं, तो बस्तर के लिए यह व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती थी?

दरअसल राजनीतिक इच्छा शक्ति और विजन का घोर संकट है, और बस्तर में यह संकट सबसे ज्यादा है.

    सड़क मार्ग से बस्तर के कोंटा से रायपुर तक की यात्रा आज भी कम से कम 12 घंटे की होती है, जो बाहर इलाज के लिए जाने वाले मरीजों, उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने वाले छात्रों और बस्तर में नए उद्यम स्थापित करने में रुचि लेने वाले उद्यमियों के लिए बेहद कष्टदायक है. इनके लिए हवाई सेवा एक लग्जरी या विलासिता नहीं बल्कि अनिवार्य आवश्यकता है.

7. आदिवासियों के लिए घोषणाएं, हकीकत में कितनी कारगर?

     सरकार ने तेन्दूपत्ता संग्राहकों को 5,500 रुपये प्रति बोरा भुगतान की घोषणा की है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि क्या यह राशि वास्तविक संग्राहकों तक पहुंचेगी?

पहले भी ऐसे दावे किए गए थे, लेकिन पैसा बिचौलियों के हाथों में चला जाता है.

चरण पादुका योजना के लिए 50 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, लेकिन यह सिर्फ एक सांकेतिक योजना बनकर रह जाती है.

हालांकि, भूमिहीन कृषि मजदूर कल्याण योजना के तहत 5.65 लाख मजदूरों को सालाना 10,000 रुपये की आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया है, जो एक अच्छा कदम कहा जा सकता है. यदि यह राशि सीधे मजदूरों के खातों में पारदर्शी तरीके से पहुँचती है, तो इससे काफी राहत मिलेगी.

8. कृषि तथा वनोपज आधारित उद्योगों के लिए कोई ठोस नीति तथा क्रियान्वयन का रोड मैप नहीं

छत्तीसगढ़ में खाद्य प्रसंस्करण और कृषि तथा वनोपजों पर आधारित उद्योगों की अपार संभावनाएँ हैं. लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस व्यावहारिक नीति नहीं है .

डेयरी समग्र विकास परियोजना के लिए मात्र 50 करोड़ रुपये रखे गए हैं, जो ऊँट के मुँह में जीरा है.

       मत्स्य पालन, पोल्ट्री, बकरी पालन के लिए मात्र 200 करोड़ रुपये का प्रावधान है, जबकि ये क्षेत्र ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी मजबूत कर सकते हैं.

       यह भी उल्लेखनीय है कि बस्तर में काजू, कॉफी और मसालों की खेती की अलावा जड़ी बूटियों की खेती तथा प्रसंस्करण की जबरदस्त संभावनाएं हैं, लेकिन इस बजट में इनके लिए कोई विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया. यदि सरकार इस क्षेत्र में ठोस नीतियाँ बनाती, तो बस्तर का आर्थिक परिदृश्य बदल सकता था.

अंत में यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान वित्त मंत्री ओपी चौधरी पूर्व में बस्तर के संवेदनशील लोकप्रिय कलेक्टर रह चुके हैं. उन्हें इस क्षेत्र की चुनौतियों की गहरी समझ थी और उम्मीद थी कि उनके वित्त मंत्री के कार्यकाल में बस्तर को अधिक प्राथमिकता मिलेगी. लेकिन चाहे कारण जो भी हों, पर हुआ एकदम उल्टा—मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री ने अपने-अपने क्षेत्रों को ज्यादा उपकृत किया, जबकि बस्तर के लिए बहुत कम ध्यान दिया गया. गजब है कि हमारी लगभग सभी समस्याओं की जड़ में राजनीति है और सभी समस्याओं का समाधान भी राजनीति में ही निहित हैं.

और गजब है इस राजनीति की माया भी, कि राजनीति के हमाम में उतरते ही सब नंगे हो जाते हैं.

(लेखक: डॉ. राजाराम त्रिपाठी, ग्रामीण अर्थशास्त्र एवं कृषि मामलों के विशेषज्ञ तथा राष्ट्रीय-संयोजक, "अखिल भारतीय किसान महासंघ" 'आईफा')

English Summary: Chhattisgarh Budget 2025-26: Bastar and farmer interests ignored once again
Published on: 04 March 2025, 02:06 IST

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