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Updated on: 23 July, 2025 12:00 AM IST
नकली खाद से हर साल लाखों एकड़ फसल नष्ट, इंसान और धरती दोनों बर्बाद (सांकेतिक तस्वीर)

बीज तो बोया था अमृतमय अन्न का, बोरी वाली खाद डाली थी बढ़िया सरकारी सील-ठप्पे वाली, पर फसल से निकला ऐसा कुछ कि न पेट भरा, ना जेब.फटी जेब की सिलाई भी नहीं हो पाई और खेत की जमीन भी बंजर हो गई. जिस धरती को 'भारत माता' कहा जाता है, उसी की कोख में आज बेहिसाब ज़हर डाला जा रहा है, कभी यूरिया के नाम पर, कभी डीएपी की थैली में, और कभी सूक्ष्म पोषक तत्वों की आड़ में. ज़हर अब खेतों में नहीं, नीति में मिलाया जा रहा है. जब मिट्टी कराहती है, तो सत्ता मौन साध लेती है. यह केवल खेती की त्रासदी नहीं, बल्कि एक जीवित सभ्यता के मूल स्तंभ,  किसान की सुनियोजित उपेक्षा है.

देश के विभिन्न हिस्सों में नकली खाद, कीटनाशक और उर्वरक अब सामान्य से मुद्दे नहीं रहे, यह एक संगठित आपदा का रूप ले चुके हैं. छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में खाद की हर बोरी अब किसान के लिए एक अनिश्चित दांव बन गई है. फसल बचेगी या जलेगी, यह अब उर्वरक और बीज निर्माता तय करते हैं. और जो खाद खेतों को जीवन देना चाहती थी, वही अब जड़ों को मुरझा रही है.

सरकारी आंकड़ों और छापों की रिपोर्टें बताती हैं कि कैसे यूरिया और डीएपी की बोरियों में Chalk Powder, POP और सस्ते Fillers मिलाकर उन्हें असली बोरी में भर दिया जाता है. एक असली डीएपी बोरी की लागत जहां ₹1350 होती है, वहीं नकली खाद 130 रुपए मे तैयार कर लिया जाता है. यानी 10 गुना मुनाफा यह तो जुआ और सट्टा से भी ज्यादा फायदा देता है. इस 10 गुना अंतर के मुनाफे की मलाई को एक पूरा नेटवर्क मिलकर खाता है: फैक्ट्री मालिक, ट्रांसपोर्टर, कुछ स्थानीय अधिकारी, और कई बार दुर्भाग्यवश स्वयं सरकारी तंत्र से जुड़े लोग.

इस वर्ष अप्रैल 2025 में ही ओडिशा के गंजाम जिले में नकली कीटनाशक के कारण 120 एकड़ में धान की फसल जल गई. वहीं जून 2025 में ही उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में किसानों ने नकली खाद के विरोध में तहसील गेट पर धरना दिया, जब एक ही गांव में 200 से अधिक किसानों की फसल पीली होकर सूख गई. छत्तीसगढ़ के बस्तर और रायगढ़ में बार-बार नकली यूरिया की बोरी सरकारी डिपो में पाए जाने की घटनाएं अब केवल 'घटना' नहीं, परंपरा बन गई हैं. हरदोई (उत्तर प्रदेश) की 2022 की वह घटना भुलाना कठिन है जब किसानों ने नकली डीएपी से बुआई नष्ट होने पर सामूहिक आत्महत्या की चेतावनी दी थी.

प्रश्न यह नहीं है कि यह कैसे हो रहा है, प्रश्न यह है कि यह इतने वर्षों से क्यों जारी है और रोकने वाला कौन है. जब एक किसान बोरी उठाकर ले जाता है, तो वह उस पर लिखे हर शब्द पर दिल से भरोसा करता है , वह जानता है कि उसमें विज्ञान है, सरकार की मुहर है और उस खाद से ही उसके बच्चों के भोजन की गारंटी है. लेकिन जब वही खाद खेत को बंजर कर दे, धरती की कोख को बांझ बना दे और सरकार जांच की प्रक्रिया में महीनों सालों बीता दे, तो इसे त्रासदी नहीं अन्याय कहा जाना चाहिए.

इस दिशा में राजस्थान के मंत्री किरोड़ी लाल मीणा की सक्रिय छापेमारी निश्चित रूप से सराहनीय है. अब निगाहें केंद्र सरकार पर हैं, क्योंकि देश के कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं राजनीति के साथ-साथ खेती-किसानी की ज़मीन से गहराई से जुड़े हैं. यह संकट उनके लिए केवल प्रशासनिक नहीं, कृषि निष्ठा की अग्निपरीक्षा भी बनने जा रहा है.

क्या यह संभव नहीं कि ईडी, सीबीआई, एनआईए, विजिलेंस, डीआरआई, इनकम टैक्स और चुनावी मौसम में अद्भुत सक्रियता दिखाने वाली तमाम ‘जांच-पुण्यात्माएं’ कुछ समय के लिए नकली खाद माफिया के पीछे भी लगा दी जाएं? जो संस्थाएं नेताओं के दशकों पुराने लेन-देन तक ‘अंतर्यामी’ दृष्टि से पहुँच जाती हैं, क्या वे यह नहीं जान सकतीं कि नकली यूरिया की थैली कहां छप रही है और किसके आशीर्वाद से बिक रही है? किसान तो बस इतना ही चाहते हैं कि जो ईडी विपक्ष की नस-नस टटोलती है, वह ज़रा खाद-बीज के माफियाओं की भी थोड़ी जाँच कर दे—कम से कम भारत की मिट्टी तो बचे!

दुखद यह है कि किसान को ही दोषी बना दिया जाता है “गलत जगह से खरीदा,” !!

“सही जांच नहीं की,”

“समय पर शिकायत नहीं की”

लेकिन कोई यह नहीं पूछता कि बिना BIS मार्किंग के खाद कैसे खुलेआम बाजार में बिक रही है, और मंडियों में निरीक्षण की ज़िम्मेदारी जिनकी है, वे किस नींद में हैं. कई जिलों में खाद परीक्षण प्रयोगशालाएं वर्षों से निष्क्रिय हैं. प्रमाणित खाद की आड़ में uncertified कंपनियाँ नए नामों से हर साल बाज़ार में वापस लौट आती हैं, और सरकार उन्हें ब्लैकलिस्ट करके अपनी जिम्मेदारी पूरी मान लेती है.

यह केवल आर्थिक अपराध नहीं, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक अपराध है. भारतीय कृषि केवल उपज नहीं, बल्कि एक परंपरा है. हमारे उपनिषदों में अन्न को 'ब्रह्म' कहा गया  “अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात्” (तैत्तिरीयोपनिषद्). जब हम किसान को नकली खाद देते हैं, तो हम केवल उसकी फसल को नहीं, उसकी आस्था और श्रम को अपमानित करते हैं.

हर बार जब एक किसान नकली खाद डालता है, तो केवल फसल नहीं जलती,, उसकी बेटी की पढ़ाई, उसके पिता की दवा और उसकी उम्मीदों की लौ भी बुझ जाती है. और यह सब होता है तब, जब प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना में 6000 रुपए की वार्षिक सहायता को  "महान अंतिम समाधान" की तरह प्रचारित किया जाता है. सवाल यह नहीं कि सहायता दी जा रही है, सवाल यह है कि क्या 6000 रुपए से इस बर्बादी की भरपाई हो सकती है?

अब समय आ गया है कि सरकार खाद पर केवल चमकदार पैकिंग और विज्ञापनों से नहीं, ज़मीन पर सख़्त निगरानी व्यवस्था से जवाब दे. हर खाद की बोरी पर QR कोड अनिवार्य हो, जिससे उसकी ट्रेसबिलिटी बनी रहे. ब्लैकलिस्टेड कंपनियों को नाम बदलकर फिर से व्यापार करने से रोकने के लिए कानूनी रोक लगे. हर जिले में खाद परीक्षण के लिए स्वतंत्र उड़नदस्ते हों.

नकली खाद से जुड़े मामलों के लिए फास्ट ट्रैक न्यायाधिकरण गठित हों , जिनमें किसानों की भी सहभागिता सुनिश्चित हो, जिसमें कम से कम 10 साल की सज़ा और न्यूनतम 50 लाख रुपए तक का जुर्माना अनिवार्य किया जाए. यह भी आवश्यक है कि किसानों को प्रमाणित खाद की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जाए, ताकि वह पैकिंग से नहीं, गुणवत्ता से पहचाने. हमें "पैकेट चमके, चाहे खेत झुलसे" वाली व्यवस्था को बदलना होगा. भारत की आत्मनिर्भरता का पहला आधार किसान का आत्मविश्वास है. जब तक किसान को सच्चा बीज, असली खाद और ईमानदार व्यवस्था नहीं मिलेगी, तब तक आत्मनिर्भरता केवल नारे में सिमटी रहेगी. यह विषय अब केवल कृषि का नहीं, राष्ट्र की चेतना का है. सरकार, समाज और वैज्ञानिक तंत्र को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत की धरती माता केवल नक्शे में उपजाऊ न कहलाए वह हकीकत में शाश्वत अन्नपूर्णा बनी रहे.

English Summary: Fake fertilizer scam farmers crisis and silence in power
Published on: 23 July 2025, 05:40 IST

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