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किसान पुकारें, हमारे अच्छे दिन कब आएंगे ?

कृषि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 59वें दौर में यह बात सामने आई कि खेती मुनाफे का सौदा नहीं रह गई है। ऐसे में अगर किसानों के पास खेती छोड़ने का विकल्प हो तो लगभग 40 फीसदी से अधिक किसान खेती छोड़ देंगे।

कृषि राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के 59वें दौर में यह बात सामने आई कि खेती मुनाफे का सौदा नहीं रह गई है। ऐसे में अगर किसानों के पास खेती छोड़ने का विकल्प हो तो लगभग 40 फीसदी से अधिक किसान खेती छोड़ देंगे। यह मसला सुर्खियों में छाया जिसे नीति निर्माता नजरअंदाज नहीं कर सके, फिर भी कोई कारगर हल नहीं तलाशा गया। कालांतर में प्रख्यात कृषि विद एम.एस. स्वामीनाथन की अगुवाई में बने राष्ट्रीय कृषक आयोग ने 2000 के दशक के मध्य में शृंखलाबद्ध रपट जारी की जिनमें यह उल्लेख किया गया कि एक किसान की औसत आय सरकारी दफ्तर में काम करने वाले चपरासी से भी कम है। बावजूद इससे निपटने के लिए कोई चाक-चैबंद योजना नहीं बनाई गई।  

देश में किसानों के जीवन और कृषि की दयनीय दशा का परिदृश्य चिंताजनक और चुनौतीपूर्ण है। विभिन्न वर्गों की तुलना में वास्तविक कृषि सब्सिडी का बहुत कम होना किसानों की दुर्दशा का सबसे प्रमुख कारण है।

डीजल पर दी जा रही कुल सब्सिडी 92.061 करोड़ रूपया है। इसमें भारी कमर्शियल वाहनों के लिए 26,000 करोड़ प्राइवेट कारों एवं यूटिलिटी व्हिकल्स के लिए 12,100 करोड़ रूपए तथा कमर्शियल कारों के लिए 8,200 करोड़ रूपए दिए जा रहे हैं। 15,000 करोड़ की सब्सिडी अन्य क्षेत्रों को जाती है जिनमें जनरेटर भी शामिल हैं। यद्यपि डीजल सब्सिडी कृषि क्षेत्र के नाम पर जरूरी बताई जाती है परन्तु ज्यादातर मामलों में सरकार सब्सिडी को किसानों तक पहुंचाने में पीछे रह जाती है। संसद की स्थाई समिति का यह निष्कर्ष भी चिंताजनक है कि देश के 90 प्रतिशत किसानों को कृषि सब्सिडी का लाभ नहीं पहुंचता है। समिति कहती है कि किसानों के हित में सब्सिडी को तर्क संगत बनाया जाना जरूरी है।

ठोस प्रयास की जरूरत:

कृषि क्षेत्र का बजट बढ़ाया गया है लेकिन किसानों की आय बढ़ाने के लिए कुछ ठोस प्रयास नहीं हुए हैं। वित मंत्री वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रहे हैं लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं। महज सिंचाई व्यवस्था को सुदृढ़ करने से किसान की आय नहीं बढ़ सकेगी बल्कि उसकी ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है।

आज देश के 17 राज्यों में किसानों की सालाना आय महज 20,000 रूपए है। अगर पूरे देश की बात करें तो किसानों की आय प्रतिमाह 3000 रूपए है जो बेहद चितांजनक है। बावजूद इसके किसानों की आय बढ़ाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। कृषि क्षेत्र पर सरकार का ध्यान जरूर गया है मगर किसानों पर दबाव अभी भी बना हुआ है।

देश के गरीब-किसान दो वर्षों से लगातार मौसम की मार झेल रहे हैं। उनकी स्थिति संवारने के लिए सरकार को किसानों को विशेष बेलआउट पैकेज देना चाहिए था। जब 2008 व 2009 में आर्थिक मंदी आई थी तब सरकार ने उद्योग जगत को 3 लाख करोड़ रूपए का बेलआउट पैकेज दिया था। किसानों की स्थिति सुधारने के लिए सरकार को उस तरह का ही कुछ कदम उठाना चाहिए था। सरकार ने 5 साल में उनकी आय दोगुनी करने की बात की है। महंगाई दर बढ़ने की वजह से आय बढ़ जाएगी। सरकार को दोबारा से अपनी नीति पर विचार करना चाहिए।

कृषि क्षेत्र भयानक संकट से गुजर रहा है। वर्ष 2015 व 2016 में किसानों द्वारा आत्महत्या के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि देखी गई। मुझे उम्मीद थी कि सरकार परेशान किसान समुदाय को बचाने के लिए आर्थिक पैकेज की घोषणा करेगी। आखिरकार उद्योग जगत को भी अचानक संकट की स्थिति में राहत पैकेज मिलता है और पिछले दस वर्षों में 42 लाख करोड़ रूपए की कर छूट मिली ही है। मैं सोच रहा था कि किसानों को उनके आर्थिक संकट कम करने के लिए राहत देने का यह वक्त है लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ एक बार फिर 60 करोड़ किसानों को बेसहारा छोड़ दिया गया।

उत्तम खेती मध्यम बाण, अधम चाकरी भीख दान:

कभी खेती प्रधान देश कहलाने वाले भारत में आज खेती सबसे कठिन काम हो गया है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि देश में विकास के नाम पर खड़ी की गई आधारभूत संरचना खेती और किसान विरोधी है। 1991 में अपनाई गई उदारीकरण की नीति भी अपने उद्देश्य और उसूल में किसान विरोधी हैं इसलिए आज खेती असमान और मजबूरी का नाम बनकर रह गई है। किसान स्वावलंबी नहीं रहे। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व व्यापार संगठन और विश्व बाजार का गुलाम बना दी गई हैं।

यही कारण है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। राष्ट्रीय क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो कहता है कि साल 1997 व 2016 के मध्य यह आंकड़ा 3 लाख तक हो गया है। देश में हर साल औसतन 16,000 किसान मुख्य रूप से इसलिए आत्महत्या करते हैं कि फसल खराब हो जाने के कारण वे अपना कर्ज नहीं चुका पाते।

इस तरह देश को भोजन देने वाले किसानों की आज हालत यह है कि वे या तो आत्महत्या करने को मजबूर हैं नहीं तो खेती-किसानी छोड़ने को तैयार हैं लेकिन सरकार को हर तरह की परेशानी तभी होती है जब किसानों को उनकी उपज की वैध कीमत देने की बात होती है। कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर हल्फनामे में अतिरिक्त साॅलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने बताया कि स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक किसानों को उनकी उपज पर पचास फीसदी मुनाफा देने में सरकार असमर्थ है।

चुनावी वादा:

यह एक चुनावी वादा था जो नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में किया था कि स्वामीनाथन कमेटी रिपोर्ट के मुताबिक किसानों को पचास फीसदी मुनाफा देंगे लेकिन सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने धान और गेहूँ के बढ़े हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य के रूप में लाभकारी कीमत देने से मना कर दिया।

ऐसे वक्त में जब कर्मचारियों का महंगाई भत्ता एक साल में 13 फीसदी बढ़ाया गया तो गेहूँ और धान के समर्थन मूल्य में पचास रूपए प्रति क्विंटल की दर से आंशिक वृद्धि की गई यानि 3.6 फीसदी वृद्धि हुई जो महंगाई के अतिरिक्त बोझ की भरपाई के लिए भी अपर्याप्त है। जरा इस जबरदस्त भेदभाव को भी देखिए - सातवें वेतन आयोग के तहत एक-चपरासी के न्यूनतम वेतन में सात से अट्ठारह हजार यानि 260 फीसदी की वृद्धि हुई। हमारे देश में एक औसत किसान की आमदनी से इसकी तुलना कीजिए आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि वर्ष 1970 से 2016 के दौरान पिछले 46 वर्षों में एक सरकारी कर्मचारी के मूल वेतन और महंगाई भत्ते में औसतन 120 से 150 गुना की वृद्धि हुई है जबकि इस अवधि के दौरान गेहूँ के न्यूनतम समर्थन मूल्य में मात्र 19 गुना की वृद्धि हुई है।

यह भारी असमनता जान-बूझकर है। इसको देखते हुए नई पीढ़ी से यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वह खेती के पेशे को अपनाएगी। आय असमानता स्पष्ट है। अब जबकि एक कर्मचारी का न्यूनतम वेतन बढ़ाकर 18 हजार रूपया किया जा रहा है एक औसत किसान परिवार को आमदनी एनएसएसओ की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार मात्र 6 हजार रूपए है जिसमें मात्र 3,078 रूपए खेती से आते हैं। यदि किसानों को समाज अन्य वर्गों की तरह उचित न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता तो जो गेहूँ 1970 में 76 रूपए प्रति क्विंटल था उसकी कीमत अब 7600 रूपए प्रति क्विंटल होना चाहिए थी खरीद मूल्य ही वह व्यवस्था है जिसके माध्यम से किसान आय अर्जित करने में सक्षम हैं। इसके अलावा आय और अन्य कोई स्रोत पास नहीं है जिस पर वह भरोसा कर सकता है। इसकी तुलना सरकारी कर्मचारियों से कीजिए जिन्हें हर छह महीने पर महंगाई भत्ता मिलता है जो तेजी से मूल वेतन में मिला दिया जाता है। वेतन आयोग के अनुसार कर्मचारियों को विभिन्न तरह के भत्तों में बढ़ोतरी होती है। यदि किसानों को कम से कम चार मासिक भत्ते आवासीय भत्ता, यात्रा भत्ता, बच्चों के लिए शिक्षा भत्ता और चिकित्सा भत्ता दिया जाए तो निश्चितरूप से लाखों किसान आत्महत्या नहीं करेंगे।

कई किसानों ने बताया है कि सिर्फ इलाज का खर्च ही किसान परिवारों के मासिक बजट का 40 फीसदी होता है और साथ ही साथ अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं इसमें खर्चे बहुत हैं।

कृषक समुदाय:

देश भर के कृषक समुदाय की दुर्दशा को बयां करता एक और सर्वेक्षण सामने आया है जिसे सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज ने किया है। यह सर्वेक्षण भारत कृषक समाज नामक किसानों की एक गैर-राजनीतिक संस्था ने करवाया है। दिसम्बर 2013 से जनवरी 2014 के बीच देश के 18 राज्यों में लगभग 5,350 किसानों के बीच हुए सर्वेक्षण में यह बात सामने आई जिसमें 61 फीसदी किसानों ने कहा कि अगर उन्हें शहरों में अच्छी नौकरी मिले तो वे खेती-बाड़ी छोड़ देंगे। खेती से होने वाली आमदनी उनकी जरूरत पूरी नहीं कर पाती और सर्वेक्षण में शामिल एक तिहाई किसानों ने कहा कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए उन्हें खेती से इतर भी कमाई करनी पड़ती है।

इसके अलावा लगभग 67 फीसदी महिलाओं ने कहा कि खेती से होने वाली आमदनी घर का खर्च चलाने के लिए ना काफी होती है। इसमें हैरत की बात नहीं कि तकरीबन 47 फीसदी उत्तरदाताओं ने कहा कि उनके हिसाब से किसानों की स्थिति कुल मिलाकर खराब है। इस सर्वेक्षण में किसानों की खेती छोड़ने की मंशा का उल्लेख तो है लेकिन वह कृषि से पूरी तरह पीछा नहीं छुड़ाना चाहते। जनगणना के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार किसानों की संख्या में कमी आई है।

वर्ष 1991 में देश में जहां 11 करोड़ किसान थे वहीं 2001 में उनकी संख्या घटकर 10.3 करोड़ रह गई जबकि 2011 में यह आंकड़ा और सिकुड़कर 9.58 करोड़ हो गया। इसका अर्थ यही है कि रोजाना 2,000 से ज्यादा किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है।

कृषि के लिए यह आंकड़ा भयानक है। इस सर्वेक्षण में और भी ऐसी बातें सामने आई हैं जो किसानों की खस्ता हालत बयां करती हैं। यह बेहद दुखद बात है कि 10 किसान परिवारों में से प्रति एक परिवार को अक्सर भूखे पेट ही रहना पड़ता है। केवल 44 फीसदी परिवारों को ही तीनों वक्त का खाना मिल पाता है। जबकि 39 फीसदी परिवार सामान्य तौर पर दोपहर और रात का भोजन कर पाते हैं लेकिन उन्हें सुबह का नाश्ता नहीं मिल पाता। लगभग 36 फीसदी किसान या तो झोपड़ियों में रहते हैं या कच्चे मकानों में और 44 फीसदी किसान कच्चे-पक्के मकानों में रहते हैं। केवल 18 फीसदी किसानों के पास ही पक्के मकान हैं।

कृषि क्षेत्र और हरित क्रांति के बाद:

1980 के दशक में चरम पर रही हरित क्रांति बाद के वर्षों में असफल क्यों हो गई और विभिन्न कृषि जिंसों के उत्पादन में महत्वपूर्ण इजाफा होने के बावजूद उनकी कीमत में अत्याधिक बढ़ोत्तरी क्यों हुई? ऐसा क्यों हुआ कि 1990 के बाद पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र में होने वाला निवेश देश के सकल घरेलू उत्पाद का महज 2.7 फीसदी रहा जबकि गैर कृषि क्षेत्रों में इसकी दर 36.6 फीसदी रही। ऐसा क्यों हुआ कि कृषि क्षेत्र में होने वाले सरकारी निवेश का लगभग 80 फीसदी हिस्सा बड़ी और मझली सिंचाई परियोजनाओं में चले जाने के बाद भी ये परियोजनाएं क्षमता से कम इस्तेमाल की गई और गैर किफायती इस्तेमाल के कारण उनसे अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाए।

ऐसा कैसे हुआ कि कृषि और उससे जुड़े अन्य क्षेत्रों में सालाना विकास दर जो आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 4.8 फीसदी थी 9वीं-10वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान औसतन 2.5 फीसदी रह गई। स्थिति यह है कि हमारा किसान बन्धु अपनी सम्पूर्ण पूंजी और श्रम का निवेश कर खेतों को लहलहा तो देता है पर जब उसे अपने कृषि उत्पादों की उचित कीमत नहीं मिलती है तो वह निराश हो जाता है और आत्महत्या तक पहुंच जाती है।

राष्ट्रीय न्यादर्श सर्वेक्षण संगठन का कहना है कि 40 प्रतिशत किसान खेती को बेहद जोखिम भरा और दुखदायी पेशा मानते हुए इसे छोड़ना चाहते हैं। सही कीमत न मिलने पर किसान की रूचि कृषि कार्य में कैसे बढ़ेगी? किसान बन्धु कृषि गुणवत्ता बढ़ाने के लिए उधार लेकर पूंजी कब तक और क्यों लगाता रहेगा? जब कृषि उत्पादों से किसानों को उपयुक्त कीमत नहीं मिलेगी तो उसके पास खुशहाली कैसे आएगी? केन्द्र सरकार, राज्य सरकार एवं सारी राजनैतिक पार्टियों को किसान बन्धु के हित में ऐसे निर्णय लेने होंगे ताकि उन्हें वास्तविक फायदा मिले चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो क्योंकि राजनैतिक पार्टियां ही सरकार चलाती हैं। प्राथमिकता देना और खुद का अनुशासन है।

 

रवीन्द्र नाथ चौबे

प्रगतिशील एवं सम्मानित किसान

किसान सेवा केन्द्र

डाक बंगला के सामने, बाँसडीह

जिला-बलिया (उ0प्र0)

मो0- 09453577732

English Summary: Call the farmers, when will our good days come? Published on: 20 March 2018, 01:06 IST

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