मौजूदा वक्त में कुछ किसान कृषि में ज्यादा लाभ न मिल पाने की वजह से पशुपालन की ओर अपना रुझान व्यक्त कर रहे है. अगर आप भी पशुपालन करने के बारे में सोच रहे है, तो बकरी पालन (Goat rearing) की शुरुआत कर सकते हैं.
बकरी पालन (Goat rearing ) में सबसे बड़ा फायदा यह है की इसके लिए बाजार स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो जाता है. जिससे बाजार की कोई समस्या नहीं रहती है. बकरी छोटा जानवर होने के कारण रख-रखाव में लागत भी कम लगता है. सूखा पड़ने के दौरान भी इसके खाने का इंतज़ाम सरलता से हो सकता है. इसकी देखभाल का कार्य भी महिलाएं एवं बच्चे भी आसानी से कर सकते हैं.
गौरतलब है कि एक बकरी लगभग डेढ़ वर्ष की उम्र में बच्चा प्रजनन करने की स्थिति में आ जाती है और 6-7 माह में प्रजनन करती है. प्रायः एक बकरी एक बार में 3 से 4 बच्चों का प्रजनन करती है और एक साल में 2 बार प्रजनन करने से इनकी संख्या में वृद्धि होती है. बच्चे को एक वर्ष तक पालने के बाद ही बेचते है.
तो वहीं, बकरियों में रोग होने की समस्या भी कम होती है. बकरियों में मुख्यतः मुंहपका - खुरपका रोग के साथ पेट में कीड़ी और खुजली की समस्या होती हैं. ये समस्याएं प्रायः बरसात के मौसम में होती हैं. इन समस्याओं से छुटकारा पाने हेतु तुरंत पशु डाक्टर से दिखाना चाहिए. कभी-कभी देशी उपचार से भी रोग ठीक हो जाते हैं.
बकरियों की नस्लें (Breeds of Goats)
गद्दी: बकरी की यह नस्ल हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा कुल्लू घाटी में पाई जाती है. यह पश्मीना आदि के लिए पाली जाती है. इसके कान 8.10 सेमी. लंबे होते हैं. सींग काफी नुकीले होते हैं. इसे ट्रांसपोर्ट के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति ब्याँत में एक या दो बच्चे देती है.
बीटलः बीटल नस्ल की बकरियां मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पायी जाती है. पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियां उपलब्ध है. इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता है.
बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है. इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया. अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है.
सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियां मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है. यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है. इस नस्ल की बकरियां दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है. इनका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है. इसका नाक छोटा परंतु उभरा रहता है. कान लंबा होता है. पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है. इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है. यह एक वियान में औसतन 5 बच्चे उत्पन्न करती है. इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है.
ब्लैक बंगालः इस नस्ल की बकरियां पश्चिम बंगाल, झारखंड, असम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है. इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है. अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है. यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है.
जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है. यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है. एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है.
बकरी पालन (Goat rearing) में समस्याएं
बकरी गरीब की गाय होती है, फिर भी इसके पालन में कई दिक्कतें भी आती हैं. बरसात के मौसम में बकरी की देख-भाल करना सबसे कठिन होता है. क्योंकि बकरी गीले स्थान पर बैठती नहीं है और उसी समय इनमें रोग भी बहुत अधिक होता है. बकरी का दूध पौष्टिक होने के बावजूद उसमें महक आने के कारण कोई उसे खरीदना नहीं चाहता. इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं मिल पाता है. बकरी को रोज़ाना चराने के लिए ले जाना पड़ता है. इसलिए एक व्यक्ति को उसी की देख-रेख के लिए हमेशा रहना पड़ता है.
बकरी पालन से फायदे (Benefits from goat rearing)
- जरूरत के समय बकरियों को बेचकर आसानी से नकद पैसा प्राप्त किया जा सकता है.
- बकरी पालन करने के लिए किसी भी प्रकार की तकनीकी ज्ञान की जरुरत नहीं पड़ती.
- यह व्यवसाय बहुत तेजी से फैलता है. इसलिए यह व्यवसाय कम लागत में अधिक मुनाफा देना वाला है.
- इनके लिए बाजार स्थानीय स्तर पर ही उपलब्ध है. अधिकतर व्यवसायी गांव से ही आकर बकरी-बकरे को खरीदकर ले जाते हैं.