Maize Farming: रबी सीजन में इन विधियों के साथ करें मक्का की खेती, मिलेगी 46 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पैदावार! पौधों की बीमारियों को प्राकृतिक रूप से प्रबंधित करने के लिए अपनाएं ये विधि, पढ़ें पूरी डिटेल अगले 48 घंटों के दौरान दिल्ली-एनसीआर में घने कोहरे का अलर्ट, इन राज्यों में जमकर बरसेंगे बादल! केले में उर्वरकों का प्रयोग करते समय बस इन 6 बातों का रखें ध्यान, मिलेगी ज्यादा उपज! भारत का सबसे कम ईंधन खपत करने वाला ट्रैक्टर, 5 साल की वारंटी के साथ Small Business Ideas: कम निवेश में शुरू करें ये 4 टॉप कृषि बिजनेस, हर महीने होगी अच्छी कमाई! ये हैं भारत के 5 सबसे सस्ते और मजबूत प्लाऊ (हल), जो एफिशिएंसी तरीके से मिट्टी बनाते हैं उपजाऊ Mahindra Bolero: कृषि, पोल्ट्री और डेयरी के लिए बेहतरीन पिकअप, जानें फीचर्स और कीमत! Multilayer Farming: मल्टीलेयर फार्मिंग तकनीक से आकाश चौरसिया कमा रहे कई गुना मुनाफा, सालाना टर्नओवर 50 लाख रुपये तक घर पर प्याज उगाने के लिए अपनाएं ये आसान तरीके, कुछ ही दिन में मिलेगी उपज!
Updated on: 9 June, 2022 12:00 AM IST
Goat Farming main diseases of goats and their prevention

बकरियों की यह एक प्रमुख बीमारी है जो अधिकतर वर्षा ऋतू में फैलती है. एक साथ रेवड में अधिक बकरियां रखने, आहार में अचानक परिवर्तन तथा अधिक प्रोटीनयुक्त हरा चारा खा लेने से यह रोग तीव्रता से बढ़ता है.

यह रोग क्लोस्ट्रीडियम परफ्रिजेंस नामक जीवाणु के विश के कारण पैदा होता है. साधारणतः इस बीमारी में आफरा हो जाता है. अधिक ध्यान से देखने पर बकरी के अंगों में फडकन (कम्पन) सी दिखाई देती है. इसी कारण इस रोग को फडकिया कहते है. इस रोग में पषु लक्षण प्रकट करने के 3-4 घंटे में मर जाता है. पेट में दर्द के कारण बकरी पिछले पैरों को पेट पर मारती है तथा सुस्त होकर मर जाती है. यही रोग का प्रमुख लक्षण है.

बकरी-चेचक (माता)

यह एक विशाणुजनित रोग है जो रोगी बकरी के सम्पर्क में आने से फैलता है. इस रोग में बकरी षरीर के ऊपर दाने निकल आते है. बीमार बकरियों को बुखार हो जाता है साथ ही कान, नाक, थनों व शरीर के अन्य भागों पर गोल-गोल लाल रंग के चकते हो जाते है जो फफोले का रूप लेकर अन्त में फूट कर घाव बन जाते है. बकरी चारा खाना कम कर देती है तथा उसका उत्पादन कम हो जाता है. कहीं पर यदि पानी रखा हो तो पषु अपना मुंह पानी में डालकर रखता है.

रोग के प्रकोप से बचने के लिए प्रतिवर्श वर्शा से पहले रोग-प्रतिरोधक टीके लगवाने चाहिए. बीमारी होने पर प्रतिजैविक दवाईयों का प्रयोग करना चाहिए. जिससें दुसरे प्रकार के कीटाणुओं के प्रकोप को रोका जा सके. बीमार पषुओं को स्वस्थ पनषुओं से अलग रखना चाहिए तथा रोगी पषु के बिछौने तथा खाने से बची सामग्री और मृत पषु को जलाकर या जमीन में गाड देना चाहिए.

खुरपका-मुंहपका रोग

यह बकरियों का एक संक्रामक रोग हैं. यह रोग वर्शा ऋतु के आने के बाद आरंभ होता है. इस रोग में बकरियों के मुंह व खुर में छाले पड जाते है तथा मुंह से लार टपकती रहती है और बकरी इससे चारा नही खा पाती है. पैरों में जख्म हो जाने से बकरियां लंगडाकर चलने लगती है. चारा न खा पाने से बकरियां कमजोर हो जाती है. जिससे इनमें मृत्युदर बढ जाती है तथा इनका षारीरिक भार व उत्पादन भी कम हो जाता है.

इस रोग के विशाणु रोगी पषुओं के संपर्क से संक्रमित आहार व जल के ग्रहण करने से स्वस्थ बकरियों में प्रवेष करते है. इस रोग से प्रभावित बकरियों के अंगो को लाल दवा के घोल से धोना चाहिए. छालों पर मुख्य रूप से ग्लिसरीन लगाने से लाभ रहता है. वर्शा ऋतु से पहले बसंत के आरंभ में बकरियों को पोलीवेलेन्ट टीका लगा देना चाहिए. अतः रोगी पषुओं को स्वस्थ पषुओं से अलग कर देना चाहिए तथा स्वस्थ होने के बाद ही समूह में वापस रखना चाहिए.

न्यूमोनिया रोग

इसे फेफडे का रोग भी कहते है. बकरियों में ष्वास संबंधी बीमारी या न्यूमोनिया रोग प्रायः अधिक मात्रा में होता है. इस रोग में पषु के फेफडो व ष्वसन तंत्र में सूजन आ जाती है जिससे उनके ष्वास लेने में कठिनाई आती है. इस रोग के कारण बकरियों तथा उनके बच्चों में मृत्युदर अधिक होती है.

यह रोग जीवाणु व विशाणु दोनो के प्रभाव से पनप सकता है. लेकिन पाष्च्युरेल्ला हीमोलिटीका नामक जीवाणु इस रोग को फैलाने में काफी सक्रिय माना जाता है. ठण्डे तथा प्रतिकुल मौसम के कारण यह रोग अति तीव्रता से फैलता है. बकरी को तेज बुखार आता है तथा मुंह-नाक से तरल स्त्राव निकलता है. बकरी खाना पीना छोड देती है तथा समूह से अलग खडी रहती है.

छोटे बच्चों को यह रोग विषेश रूप से प्रभावित करता है. न्यूमोनिया एक ष्वास रोग होने के कारण इसके रोगी पषु के संुघने व छींकने मात्र से इसके कीटाणु स्वस्थ पषु में चले जाते है. यदि बकरियों में जीवाणुओं द्वारा न्यूमोनिया का जल्दी ही पता चल जाएं तो प्रतिजैविक दवाईयों से इस रोग का निदान हो सकता है. विशाणुजनित रोग में प्रतिजैविक दवाईयां देने दुसरे सामान्स जीवाणुओं को बढने से रोका जा सकता है. पाष्च्युरेल्ला से जनित न्यूमोनिया में स्ट्रेप्टो सीलीन व एम्पीसिलीन 3-4 दिन देने से अधिक लाभ होता है. माइकोप्लाज्मा जनित न्यूमोनिया में ऑक्सीटेट्रासाइक्लिन काफी उपयोगी है. बकरियों के आवास व वातावरण का उचित प्रबंध करने से व पूर्ण आहार देने से रोग की संभावनाएं कम हो जाती है. बकरियों व बच्चों को अधिक ठण्ड व वर्शा से बचाने का उपाय करना चाहिए. बीमार बकरी को अलग रखकर एपचार करना चाहिए.

जोन्स रोग

इस रोग का प्रमुख लक्षण बकरी का दिन-ब-दिन कमजोर होना व उसकी हड्डिया दिखाई देना है. यह रोग रोगी बकरी के संपर्क में आने से फैलता है. इस बीमारी के लिए कोई विषेश टीका उपलब्ध नही है तथा अंत में बकरी मर जाती है. यह एक जानलेवा बीमारी है. जिस रेवड में यह फैल जाती है, धीरे-धीरे उस रेवड को समाप्त कर देती है. इसलिए जैसे ही इस बीमारी से ग्रस्त पषु दिखाई दे, उसे तुरन्त खत्म कर देना चाहिए. रेवड में अधिक भीड नही होने देनी चाहिए.

जीवाणु-गर्भपात

जो बकरी एक बार अपना बच्चा गिरा देती है वह बकरी पषुपालक के लिए अगले बच्चे तक भार बन जाती है, जिससे बकरी-पालक को आर्थिक हानि का सामना करना पडता है. गर्भपात एक संक्रामक रोग है. ब्रुसेलोसिस, साल्मोनेल्लोसिस, वाइब्रियोसिस एवं क्लेमाइडियोसिस आदि इस रोग के मुख्य कारण है. रोगी बकरी से जीवाणु मुत्र, गोबर, प्लेसेन्टा आदि द्वारा बाहर निकलते है तथा स्त्राव से सने हुए चारे को खाने, योनि को चाटने आदि ही कई कारणों से पषु बार-बार बच्चा गिराता है. रोगी बकरी के संपर्क द्वारा यह रोग बकरो के जननेन्द्रियो को प्रभावित करके रोगग्रस्त कर देता है. जो कि इस रोग के संवाहक बन जाते है. रोगग्रस्त बकरी में मुख्य लक्षण गर्भपात होना है. गर्भपात होने से पूर्व योनि में सूजन आ जाती है, बादामी रंग का स्त्राव निकलता है व थन सूज कर लाल हो जाता है.

इस बीमारी के ईलाज व रोकथाम के लिए रोगी पषु को एकदम अलग कर देना चाहिए. इनके बाडे को साफ रखना चाहिए. रोगी बकरी के पिछले भाग को कीटनाष्षक दवाई से साफ करते रहना चाहिए तथा योनि में भी फुरियाबोलस व हेबेटीन पैसरी आदि रखनी चाहिए. उचित निदान के बाद रोगग्रस्त मादा को समूह में नही रखना चाहिए एवं न ही प्रजनन में काम में लेना चाहिए.

खुरगलन रोग

बकरियों में वर्शा से सर्दियो तक होने वाला यह प्रमुख रोग है. यह रोग स्प्रे फोरस, नेफ्रो फोरस नामक जीवाणु से पैदा होता है. मुख्य रूप से यह रोग गीली मिट्टी व वर्शा ऋतु में अधिकता से फैलता है. इस रोग में बकरी एक या अधिक पैरो से लंगडाकर चलती है. जिससे बकरी ठीक से चल नही पाती व धीरे-धीरे कमजोर हो जाती है. इसमें खुरों के बीच का मांस व खाल सडकर मुलायम पड़ जाता है तथा अजीब सी दुर्गन्ध आती है.

इस रोग से बचाव के लिए बाडे के दरवाजे पर पैर स्नान (फुट बाथ) बनाकर नीला थोथा आदि दवा के घोल में करीबन 5 मिनट तक पषु को खडा कर उसके बाद चरने भेजना चाहिए. खुर के बीच के घाव को ठीक से साफ कर दस प्रतिषत नीला थोथा या पांच प्रतिषत फार्मलिन से धोने पर आराम मिलता है तथा रोग का प्रकोप भी कम हो जाता है. इस रोग से बचाव के लिए पषुओं को गीले चरागाह में चरने के लिए नही भेजना चाहिए. खुरों के बढे हुए भाग को काटकर निकालते रहना चाहिए.

आफरा

यह बकरियों में मुख्य रूप से पाया जाने वाला रोग है. इसमें गैसो के बनने व एकत्रित होने से पेट फुल जाता है. यह रोग अधिकतर वर्शा व उसके बाद में जरूरत से अधिक हरा चारा, सडा हुआ व फफंदयुक्त चारा खा लेने से होता है. इससे अधिक गैस बनती है व हो जाती है. कई बार बहुत सी बीमारियों की वजह से पशु बहुत समय तक एक ही करवट लेटा रहता है तब उसकी पाचन क्रिया सही ढंग से नही हो पाती है. जिससे पेट में गैस एकत्रित होकर इस रोग का कारण बनती है.

पेट में बनी गैसे शरीर से बाहर न निकलने पर अंदर के अन्य भागों में दबाव डालती है जिससे मुख्य रूप से फेफड़े प्रभावित होते है तथा पशु को ष्वास लेने में परेशानी होती है. पशु काफी बेचैन हो जाता है व बांयी ओर का भाग फुल जाता है. यदि पेट पर हल्के हाथ से मारे तो ढप-ढप की आवाज आती है. पशु के मुंह से झाग आने लगते है तथा दर्द के कारण पेट पर लात मारता है. समय पर उपचार न होने पर बकरी की मृत्यु भी हो जाती है.

आफरा की पहचान होने पर पषु चिकित्स्क को बुलाकर ट्रोकार कैन्युला की सहायता से पेट की गैसे निकाल दें. बकरी की आगे की टांगे ऊंचाई पर रखकर धीरे-धीरे पेट की मालिश करें जिससे गैस पेट से बाहर निकल जाती है तथा फैफडों पर दबाव कम पडता है. पषु को तारपीन का तेल 10-15 ग्राम, हींग 2 ग्राम व अलसी का तेल 70 ग्राम मिलाकर पिलाने से लाभ मिलता है. पिलाते वक्त ध्यान रखे कि तेल फैफडों में न जाएं.

बकरियों को हरा व भीगा चारा अकेले नहीं खिलाना चाहिए. आफरा से बचने के लिए पषुओं को सडा-गला चारा व अधिक मात्रा में दाना नही खिलाना चाहिए.

दस्त

यह रोग मुख्य रूप से बच्चो में 2-3 सप्ताह में होता है. इस रोग का मुख्य रोगकारक ई.कोलाई नामक जीवाणु होता है. बच्चों में इस रोग के कारण बुखार आ जाता है व तेज दस्त हो जाते है तथा खाना-पीना छोड देते है. इस रोग से बचाव के लिए बच्चों को षुरू में दिन में 3-4 बार आवष्यकतानुसार खींस पिलाना चाहिए. जिससे उनमें रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ जाती है. इस रोग में प्रतिजैविक दवाईयां जैसे डाइजीन के नियोमाइसिन व सेप्ट्रोन इत्यादि लाभदायक सिद्ध हुई हैं.

लेखक

डॉ. सूदीप सोलकी, डॉ.दुर्गा गुर्जर सहायक आचार्य (वेटनरी माईक्रोबायोलॉजी) टीचिगं एसोसियेट पशुचिकित्सा महाविधालय,नवानियां, उदयपुर,पशुचिकित्सा महाविधालय,नवानियां, उदयपुर    

English Summary: Goat Farming main diseases of goats and their prevention
Published on: 09 June 2022, 09:35 IST

कृषि पत्रकारिता के लिए अपना समर्थन दिखाएं..!!

प्रिय पाठक, हमसे जुड़ने के लिए आपका धन्यवाद। कृषि पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के लिए आप जैसे पाठक हमारे लिए एक प्रेरणा हैं। हमें कृषि पत्रकारिता को और सशक्त बनाने और ग्रामीण भारत के हर कोने में किसानों और लोगों तक पहुंचने के लिए आपके समर्थन या सहयोग की आवश्यकता है। हमारे भविष्य के लिए आपका हर सहयोग मूल्यवान है।

Donate now