ज्वार मुख्य रूप से खरीफ की एक प्रमुख मिलैट फसलों में से एक है। जिसे किसान भाई खाने के साथ-साथ चारे एवं दाने के रूप में उगाते हैं तथा ज्वार को मोटे अनाजों का राजा भी कहा जाता है। उत्तर प्रदेश में ज्वार की फसल मुख्य रूप से चारे के लिये उगाई जाती है। ज्वार का इस्तेमाल चारे के रूप में किया जाता है। जानवरों को हरे चारे एंव सूखे चारे तथा साइलेज बनाकर खिलाया जाता है। इस प्रकार ज्वार जानवरों का महत्वपूर्ण एंव पौष्टिक चारा है। गेहूं की तरह ज्वार को भी आटे के रूप में प्रयोग करते हैं। ज्वार में शर्करा की काफी मात्रा पाई जाती है तथा ज्वार की अच्छी फसल के लिये मृदा का पी.एच. मान 5.5-8.5 होना चाहिये।
जलवायुः-ज्वार उष्ण जलवायु की फसल है परन्तु शीघ्र पकने वाली जातिया ठंडे प्रदेशों में भी गर्मीं के दिनों में उगाई जा सकती हैं। 25-30 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर उचित नमी की उपस्थिति में ज्वार की वृद्धि सबसे अच्छी होती है। फसल में बाली निकलते समय 30 डिग्री सेल्सियस सें अधिक तापक्रम, फसल के लिये हानिकारक होता है।
खेत का चुनाव तथा तैयारीः- बलुई दोमट अथवा ऐसी भूमि जहां जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो, ज्वार की खेती के लिये उपयुक्त होती है। मिटृी पलटने वाले हल से पहली जुताई तथा अन्य दो-तीन जुताई देशी हल से करके खेत को भाली भांति तैयार कर लेना चाहियें।
बुवाई का समयः-
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खरीफ ज्वारः- ज्वार की बुवाई हेतु जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय अधिक उपयुक्त है।
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रबी ज्वारः- रबी के मौसम में ज्वार की खेती महाराष्ट्र, कर्नाटक व आन्ध्रप्रदेश में की जाती है। यहां पर बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर से नवम्बर तक है।
उन्नतशील प्रजातियां:- ज्वार की संकर किस्मों में सी.एस.एच.-1 से सी.एस.एच.-8 तक तथा उच्च उपज वाली किस्में सी.एस.वी.-1 से सी.एस.एच.-7 तथा उ.प्र. में मऊ टा-1, 2, वर्षा, सी.एस.वी.-13, 15 एंव संकर सी.एस.एच.-9, 14 तथा रबी चारे के लिये एम.35-1 तथा चारे वाली किस्में एम-35-1, पूसा चरी, राजस्थान चरी, एस.एस.जी.-888 मीठी सुडान उपयुक्त किस्म है।
बीज की मात्राः-दाने के खेत की बुआई के लिए किसान भाईयों को 9-12 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है तथा चारे के खेत की बुवाई के लिये किसान भाईयों को 35-40 किलोग्राम/प्रति हेक्टेयर है।
बीजोपचारः-किसान भाईयों का बोने से पूर्व एक किग्रा0 बीज को एक प्रतिशत पारायुक्त रसायन या थीरम के 2.5 ग्राम से शोधित कर लेना चाहियें। जिससे अच्छा जमाव होता है एवं कंडुवा रोग नहीं लगता है। दीमक के प्रकोप से बचने हेतु 25 मि0लीटर प्रति किग्रा0 बीज की दर से क्लोरोपायरीफास दवा से शोधित करना चाहियें।
पंक्तियों एंव पौधों की दूरीः-ज्वार की फसल की बुआई किसान भाईयों को 45 सेमी0 लाइन से लाइन की दूरी पर हल के पीछे करनी चाहियें। पौधे से पौध की दूरी 15-20 सेमी0 होनी चाहिये।
उर्वरक एंव खाद प्रबन्धः-किसान भाईयों को उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना श्रेयस्कर होगा। उत्तम उपज के लिये संकर प्रजातियों के लिये नत्रजन 80 फॅास्फारेस 40 एवं पोटाश 20 किग्रा0 एवं अन्य प्रजातियों हेतु नत्रजन 40 फास्फारेस 20 एवं पोटाश 20 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करना चाहिये। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फोस्फोरस एंव पोटाश की पूरी मात्रा खेत में बुवाई के समय कूंडों में बीज के नीचे डाल देनी चाहियें तथा नत्रजन का शेष भाग बुवाई के लगभग 30-35 दिन बाद खड़ी फसल में प्रयोग करना चाहियें।
सिंचाई प्रबन्धः-फसल में बाली निकलते समस और दाना भरते समय यदि खेत में नमी कम हो तो सिंचाई अवश्य कर दी जाए अन्यथा इसका उपज पर प्रतिकूल प्रभाव दिखाई पड़ता है।
खरपतवार नियन्त्रणः-ज्वार की फसल में किसान भाईयों को तीन सप्ताह बाद निराई एवं गुडाई कर देनी चाहियें। यदि खेत में पौधों की संख्या अधिक हो तो थिनिंग कर दूरी निश्चित कर ली जाय।
रसायन नियन्त्रण के लिये एट्राजिन 2 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरन्त बाद 800 लीटर पानी में घोल बनाकर छिडकाव कर देना चाहियें।
कीट नियन्त्रणः- ज्वार की प्ररोह मक्खी (शूट फलाई):- यह घरेलू मक्खी से छोटे आकार की होती है। जिसका शिशु (मैगेट) जमाव के प्ररम्भ होते ही फसल को हानि पहुंचाता है। इसके उपचार हेतु मिथाइल ओडिमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर अथवा मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर का छिडकाव करें।
तनाछेदक कीटः- इस कीट की सुंडियां तनें में छेद करके अन्दर ही अन्दर खाती रहती है। जिससे बीज का गोभ सूख जाता है। इसके उपचार हेतु क्विनालफास 25 प्रतिशत ई.सी. 1.50 लीटर को 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें।
ईयर हेड मिजः- प्रौढ मिज लाल रंग की होती है और यह पुष्प पत्र पर अण्डे देती है। लाल मैगेट्स दानों के अन्दर रहकर उसका रस चूस लेती है, जिससे दाने सूख जाते हैं। इसके उपचार के लिये किसान भाई इन्डोसल्फान 35 ई.सी. का 1.5 लीटर अथवा कार्बराइल (50 प्रतिशत घूलनशील चूर्ण) 1.25 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर प्रयोग करें।
ईयर हेड कैटर पिलरः-इसकी गिडारें मुलायम दाने को खाकर नष्ट कर देती हैं तथा भुटृों में जाला बना देती है। इस रोग के उपचार के लिये इन्डोसल्फान 35 ई.सी का 1.5 लीटर प्रति हेक्टेयर का घोल बनाकर छिडकाव करें।
ज्वार का माइटः-यह बहुत ही छोटा होता है, जो पत्तियों की निचली सतह पर जाले बुनकर उन्ही के अन्दर रहकर रस चूसता रहता है। ग्रसित पत्ति लाल रंग की दिखाई पडनें लगती है तथा सूख जाती है। इस रोग के रोकथाम के लिये किसान भाईयों को डाइमेथोएट 30 ई.सी. का 1 लीटर प्रति हेक्टेयर अथवा डायजिनान 20 ई.सी का 1.5 लीटर से 2 लीटर प्रति हेक्टेयर छिडकाव करें।
फसल की कटाईः-ज्वार के पौधे 110 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते है। जब पौधों पर लगी पत्तिया सूखी दिखाई देने लगे उस दौरान पौधों की कटाई कर लें। इसके फसल की कटाई दो से तीन बार तक की जा सकती है। ज्वार के पौधों को भूमि की सतह के पास से काटा जाता है तथा फसल कटाई के पश्चात् दानों को अलग कर लिया जाता है, और उन्हें ठीक से सूखा लिया जाता है। इसके बाद मशीन के माध्यम से दानों को अलग कर लें।
फसल की पैदावार और लाभः-एक हेक्टेयर के खेत से हरे चारे के रूप में 600 से 700 क्विंटल तक फसल प्राप्त हो जाती है, तथा सूखे चारे के रूप में 100 से 150 क्विंटल का उत्पादन मिल जाता है जिसमे से 25 क्विंटल तक ज्वार के दाने मिल जाते है। ज्वार के दानों का बाजारी भाव ढाई हजार रूपए प्रति क्विंटल होता है। इस हिसाब से किसान भाई ज्वार की एक बार की फसल से 60 हजार रूपए तक की कमाई प्रति हेक्टेयर के खेत से कर सकते हैं।
लेखक:
मो0 मुईद, (कृषि विभाग), इंटीग्रल इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साईंस एण्ड टेक्नोलाजी (आई.आई.एस.टी.), इंटीग्रल यूनिवर्सिटी लखनऊ (उ.प्र.)
नदीम खान (कृषि विभाग) इंटीग्रल इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साईंस एण्ड टेक्नोलाजी (आई.आई.एस.टी), इंटीग्रल यूनिवर्सिटी लखनऊ (उ.प्र.)
डा0 अहमद शाहनवाज (कृषि विभाग) इंटीग्रल इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साईंस एण्ड टेक्नोलाजी (आई.आई.एस.टी.), इंटीग्रल यूनिवर्सिटी लखनऊ (उ.प्र.)