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Updated on: 11 June, 2023 12:00 AM IST
A farmer expressing grief over crop loss

बलिया उत्तरप्रदेश, सरकारी आंकड़े कहते हैं कि हर साल औसतन 15000 से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर लेते हैं. आत्महत्या के मामले में विदर्भ और महाराष्ट्र पूरे देश में प्रथम पायदान पर है. आत्महत्या करने वाले इन किसानों में 70% से ज्यादा ऐसे छोटे किसान होते हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन होती है. आंकड़ों को छोड़ दीजिए लेकिन समस्याओं की जड़ को समझने के लिए कुछ आंकड़े आपके सामने रखना जरूरी है.

ग्रामीण क्षेत्र की आधी से ज्यादा आबादी कृषि पर निर्भर है दुर्भाग्य में खेतों के आकार लगातार छोटे होते जा रहे हैं. करीब 60 साल पहले तक खेतों का औसतन आकार 2.7 हेक्टेयर हुआ करता था जो अब घटकर 1.2 हेक्टेयर से भी कम रह गया है. पहले देश में करीब 5 करोड़ खेत थे लेकिन जमीन के टुकड़े होने के कारण खेतों की संख्या बढ़कर 14 करोड़ से ज्यादा हो गई है. केवल 3% खेत ही 5 हेक्टेयर से बड़े हैं. खेतों का छोटा होता आकार बड़ी समस्या है.

चाहे अमेरिका हो, इजराइल हो या फिर यूरोप सभी जगह सहकारिता के आधार पर खेती की व्यवस्था है. सीधा सा गणित होता है. किसानों ने मिलकर अपनी जमीन को बड़ा आकार दे दिया है. वहां सैकड़ों हेक्टेयर खेत होते हैं. प्रतिशत के आधार पर उपज के मुनाफे का वितरण हो जाता है. हमारे यहां बारिश का पानी रोकने की व्यवस्था नहीं है. किसानों को मार्गदर्शन नहीं मिलता है कि उनकी जमीन कैसी है, कौन सी फसल लगानी चाहिए. फसल की मार्केटिंग कैसी होनी चाहिए. गोडाउन और प्रोसेसिंग कैसी होनी चाहिए, उचित कीमत कैसे मिले. हमारे यहां से संतरा लीची और आम जैसे फल दुनिया भर में पहुंच सकते हैं लेकिन इस दिशा में ठोस पहल का अभाव है.

Farmer unhappy for not getting the right price for the crop

अभी कहा जा रहा है कि मोटे आनाज यानी मिलेट की पैदावार बढ़ाओ. अंग्रेजी अखबारों में खूब विज्ञापन छप रहे हैं लेकिन किसानों को कोई बताने वाला नहीं है कि मोटे अनाज के अच्छे बीज कहां से आएंगे? मार्केटिंग कैसे होगी? हमारे यहां किसानों की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह यह सब अपने बलबूते पर कर ले. जब छोटे उद्योगपति कुछ नहीं कर पाते तो किसान कैसे कर लेंगे? और हां, किसानों के बीच से निकलकर जो लोकप्रतिनिधी संसद से लेकर विधानसभा या स्थानीय संस्थाओं में पहुंचे हैं वे किसानों की आवाज नहीं बन पाए हैं. उन्नत देश भी अपने किसानों को अनुदान देते हैं. किसानों को हर तरह की मदद करते हैं लेकिन हमारे देश के किसानों को जो मदद मिलती है वह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है. खाद और बीज की क्या स्थिति है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है.

कभी बाजार से खाद गायब हो जाता है तो कभी ऐसे बीज किसानों तक पहुंचते हैं जिनका अंकुरण ही ठीक से नहीं होता है. मौसम की मार बची खुची कसर पूरी कर देती है. नतीजा हमारे सामने होता है. महाराष्ट्र के किसान कभी हजारों टन प्याज सड़क पर फेंकने को मजबूर हो जाते हैं तो छत्तीसगढ़ के किसान टमाटर फेंक देते हैं. कभी आलू का भाव ही नहीं होता. मध्य प्रदेश के किसान सड़कों पर सब्जियां फेंक देते हैं क्योंकि उन्हें बाजार ले जाएं तो भाड़े की लागत भी ना निकले. कमाल की बात यह है कि एक तरफ किसान को उसकी फसल का कुछ भी खास नहीं मिल पाता तो दूसरी ओर शहरी ग्राहक महंगी सब्जियां खरीद रहा होता है.

बिचौलियों का समूह मालामाल हो जाता है और किसान कर्जदार. किसान को हर फसल के लिए कर्ज लेने की अलावा उसके पास कोई विकल्प नहीं होता है. फसल का भाव ना होने के कारण किसान हमेशा कर्जदार ही रहता है.

रबीन्द्रनाथ चौबे कृषि मीडिया बलिया उत्तरप्रदेश

English Summary: Farmers are happy on paper but reality is something else
Published on: 11 June 2023, 10:12 IST

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