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धनिया की वैज्ञानिक खेतीके मुख्य बिंदुवारतरीके

धनिया एक महत्वपूर्ण बीजीय मसाला है जो अमलीफेरी कुल में आती है. इसकी हरी पत्तियां एवं सूखे हुए बीज दोनों ही मसाले के रूप में उपयोग किए जाते हैं. इसकी हरी पत्तियों में शर्करा, प्रोटीन व विटामिन ए तथा बीजों में प्रोटीन, वसा, रेशा, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, फास्फोरस एवं विटामिन सी की प्रचुर मात्रा पाई जाती है.

हेमन्त वर्मा
Coriander farming
Coriander Farming

धनिया एक महत्वपूर्ण बीजीय मसाला है जो अमलीफेरी कुल में आती है. इसकी हरी पत्तियां एवं सूखे हुए बीज दोनों ही मसाले के रूप में उपयोग किए जाते हैं. इसकी हरी पत्तियों में शर्करा, प्रोटीन व विटामिन ए तथा बीजों में प्रोटीन, वसा, रेशा, कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम, फास्फोरस एवं विटामिन सी की प्रचुर मात्रा पाई जाती है.

धनिए की हरी पत्तियां सब्जी, चटनी अथवा कई तरह की खाद्य पदार्थों में स्वाद एवं सुगंध बढ़ाने में काम आता है.धनिया में कई औषधीय गुण भी पाए जाते हैं जिसके कारण इसका उपयोग अपच,पेचिश, जुखाम इत्यादि रोगों के निदान में होता है इसके तेल को शराब, चॉकलेट एवं मिठाइयों को सुगंधित करने में भी किया जाता है.भारत में राजस्थान राज्य धनिया उत्पादन में अग्रणी है जो देश का कुल धनिया उत्पादन में 40% योगदान देता है. यदि वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाए तो किसान अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं अतः किसानों के लिए इसकी खेती के वैज्ञानिक तरीके बिंदुवार निम्न है

  • धनिए को मुख्यतः सभी प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों में जहां तापमान अधिक ना हो तथा वर्षा का वितरण ठीक हो सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है लेकिन शुष्क एवं ठंडा मौसम अधिक उपज एवं गुणवत्ता के लिए अनुकूल रहता है तथा पौधों की वृद्धि के लिए 20 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उत्तम रहता है.

  • उचित जल निकासी वाली रेतीली दोमट धनिए के उत्पादन के लिए उत्तम मानी जाती है और हल्की बलुई मिट्टी इसके उत्पादन के लिए अच्छी नहीं होती है.

  • खरीफ फसल की कटाई के तुरंत बाद खेत की जुताई कर देनी चाहिए. इसके लिए मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करके एक या दो जुताई देशी हल या मिट्टी पलटने वाले हल से मिट्टी को भुरभुरी बनादेना चाहिए.

  • यदि पिछले खरीफ की फसल में 10 से 15 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से डाली गई हो तो धनिया की फसल के लिए अतिरिक्त खाद की आवश्यकता नहीं होती है. इसके अलावा धनिया की फसल को 60 किलोग्राम नत्रजन एवं 60 किलोग्राम फास्फोरस प्रति हेक्टेयर की दर से उर्वरक भी देवें.

  • नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई से पहले अंतिम जुताई के समय भूमि में मिला देना चाहिए तथा शेष नाइट्रोजन की मात्रा में से 20 किलोग्राम प्रथम सिंचाई के समय तथा 20 किलोग्राम नाइट्रोजन फूल आते समय डालें.

  • उन्नत किस्में- आरसीआर 41: यह किस्म राजस्थान के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है तथा इस किस्म के दाने सुडोल गोल्ड एवं छोटे होते हैं. यह मलानी रोग के लिए प्रतिरोधक होती है.140 से 145 दिनों में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म को असिंचित क्षेत्र में औसत उपज 5 से 7 क्विंटल तथा क्षेत्र में 10 से 12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है. 

  • आरसीआर 435: इस किस्म के दाने छोटे एवं सुगंधित होते हैं तथा इसे राजस्थान के सभी सिंचित क्षेत्रों में उगाया जा सकता है.142-147 दिनों में तैयार होने वाली इस किस्म की औसत उपज 10 से 11 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

  • राजेंद्र क्रांति: 110 दिन में तैयार होने वाली इस किस्म की उपज अधिक 12 से 14 क्विंटल होती है इस के दाने पतले एवं तेल की मात्रा अधिक होती है. इसका इस्तेमाल करने पर तना पिटिका रोग (Stem Gall)के प्रति प्रतिरोधक होती है.

  • सीएस-6 (स्वाति): अधिक पैदावार देने वाली यह किसी 90 दिन में तैयार हो जाती है तथा यह मध्यम आकार के बीज वाली एवं देर से बुआई के लिए उपयुक्त रहती है.

  • सीएस- 4 (साधना): 95 से 105 दिन में पक कर तैयार होने वाली इस किस्म के दाने मध्यम आकार के होते हैं तथा यह बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त रहती है. यह किस्म चेपा (Aphid) तथा बरुथी (Mite) के प्रति प्रतिरोधी किस्म है.

  • पंत हरीतिमा: हरी पत्तियां एवं दाना उत्पादन के लिए दोहरी किस्म है. दानों का आकार छोटा एवं गहरा हरे रंग लिए खुशबूदार है. इसमें तेल की मात्रा 0.4% तक होती है तथा उपज 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक मिल जाती है.

  • हरी पत्तियों का उत्पादन लेने के लिए बीज की मात्रा 12 से 15 किलो बीज तथा बीज उत्पादन के लिए 10 से 12 किलो पर्याप्त है.

  • बुवाई से पहले बीज को समतल पक्के फर्श पर डाल कर हल्का रगड़ कर के दानों के दो भाग में कर देना चाहिए. इसके बाद बीज को नीम का तेल या गोमूत्र से उपचारित कर देना चाहिए या बीज को कार्बेंडाजिम 2 ग्राम और ट्राइकोडर्मा कल्चर 6 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए.

  • बुवाई का समय बीज की फसल लेने के लिए धनिया की बुवाई का उपयुक्त समय 15 अक्टूबर तक से 15 नवंबर तक है.जल्दी बुवाई करने से अधिक तापमान के कारण अंकुरण में बाधा आती है.

  • धनिया की बुवाई कतार विधि से की जा सकती है. कतार से कतार की दूरी 30 सेंटीमीटर में पौधे से पौधे की दूरी 30 सेंटीमीटर रखकर तीन से चार सेंटीमीटर गहरा बीज बोना चाहिए.

  • सिंचाई क्षेत्र में पलेवा के अतिरिक्त 4 से 6 सीटों की आवश्यकता होती है. प्रथम सिंचाई बुवाई के 30 से 35 दिन बाद दूसरी सिंचाई 50 से 60 दिन बाद तीसरी 70 से 80 दिन बाद चौथी सिंचाई 90 से 100 दिन बाद पांचवी 105 से 110 दिन तथा 6वीं सिंचाई 115 से 125 दिन बाद करनी चाहिए.

  • धनिया फसल की शुरुआती बढ़वार बहुत धीमी होती है अतः समय पर निराई गुड़ाई कर खरपतवार निकालना आवश्यक है.बुवाई के 30 से 60 दिन बाद निराई गुड़ाई करनी चाहिए. जहां पौधे अधिक उगे हुए हो वहां पहली निराई गुड़ाई के समय अनावश्यक पौधों को हटाकर पौधों की आपसी दूरी 10 से 12 सेंटीमीटर कर देनी चाहिए.

  • खरपतवार का रासायनिक नियंत्रण के लिए पेंडीमेथालीन 1 किलो सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर पानी में घोलकर अंकुरण से पहले छिड़काव करें. ध्यान रहे छिड़काव के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए.

  • माहु/ मोयला (Aphid):यह कीट धनिये में फूल आते वक्त या उसके बाद बीज बनते समय फसल को चपेट में ले लेता है.इसके शिशु और वयस्क दोनो ही पौधे के तनों, फूलों व बीजों जैसे कोमल अंगो का रस चूसते हैं, जिससे पौधा कमजोर हो जाता है.

  • एफिड कीट से बचाव हेतु थायोमेथोक्सोम 25 डब्लू जी 100 ग्राम या इमिडाक्लोप्रिड 17.8% SL 80 मिली प्रति एकड़ 200 लीटर पानी के साथ छिड़काव करे.इसके अलावा जैविक माध्यम से बवेरिया बेसियाना 250 ग्राम प्रति एकड़ उपयोग करने से एफीड का नियंत्रण किया जा सकता है.

  • कटुआ सूँडी (Cutworm): इस कीट की लट्ट (सूण्डी) भूरे रंग की होती है, जो शाम के समय पौधों को जमीन की सतह के पास से काटकर गिरा देती है. इस कीट का प्रौढ़ काले भूरे रंग का चित्तीदार पतंगा होता है.इसका प्रकोप फसल की शुरुआती अवस्था में होता है जिससे फसल को ज्यादा नुकसान होता है.

  • कट वर्म कीट की रोकथाम के लिए जैव-नियंत्रण के माध्यम से एक किलो मेटारीजियम एनीसोपली (कालीचक्र) को 50-60 किलो गोबर खाद या कम्पोस्ट खाद में मिलाकर बुवाई से पहले या खाली खेत में पहली बारिश के पहले खेत में मिला दे.इसके नियंत्रण के लिए रोपाई के समय कार्बोफ्युरोन 3% GR की 7.5 किलो मात्रा प्रति एकड़ की दर से खेत में मिला दे.या कारटॉप हाइड्रोक्लोराइड 4% G की 7.5 किलो मात्रा प्रति एकड़ की दर से खेत में बिखेर दे.या क्लोरपायरीफोस 20% EC की 1 लीटर मात्रा सिंचाई के पानी के साथ मिलकर प्रति एकड़ की दर से दे.

  • मकड़ी (Mites): यह पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसते है तथा उपज में काफी कमी करते हैं. इस कीट का प्रकोप दाना बनते समय अधिक होता है, जिससे पूरा पौधा हल्के पीले रंग का दिखाई देने लगता है. अधिक प्रकोप वाले स्थानों पर अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुवाई करने से इस कीट से फसल को कम हानि होती है. इसके नियंत्रण के लिए प्रॉपरजाइट 57% EC की 2 मिली मात्रा या एबामेक्टिन 1.9% EC की 0.4 मिली मात्रा एक लीटर पानी में छिडकाव करना चाहिए.

  • छाछ्या या भभूतिया रोग (Powdery mildew): इस रोग में पौधों की पत्तियों और टहनियों पर सफेद चूर्ण दिखाई देता है. इसकी रोकथाम के लिए केराथेन SL 1 मिलीलीटर या घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए. 15 दिन के अंतराल पर पूर्ण सुरक्षा के लिए दो-तीन छिड़काव करने चाहिए.

  • तना पिटिका रोग (Stem Gall): इस रोग के कारण तने पर विभिन्न आकार के फफोले पड़ जाते हैं. पौधों की बढ़वार रूक जाती है और पूरी फसल पीली पड़ जाती हैं. वातावरण में नमी अधिक होने पर बीमारी का प्रकोप बढ़ जाता है.इस रोग से बचाव के लिए रोगरोधी किस्म आर.सी.आर. 41 बोयें.

  • नियंत्रण के लिए बीजों को बुवाई पूर्व थाइरम 1.5 ग्राम एवं कार्बेण्डजीम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करे. खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर कार्बेण्डजीम 50% WP की 200 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव कर दे.

  • उखटा रोग (Wilt): इस रोग में पौधे हरे ही मुरझा जाते हैं. यह पौधे की शुरुआती अवस्था में ज्यादा होता है परन्तु रोग का हमला किसी भी अवस्था में हो सकता है.

  • उखटा के बचाव के लिए गर्मियों में गहरी जुताई करें.बीज को कार्बेण्डजीम 50% WP 2 ग्राम या ट्राइकोडर्मा विरिडी 10 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचरित करना चाहिए.इसके रासायनिक उपचार हेतु कासुगामायसिन 5% + कॉपर आक्सीक्लोराइड 45% WP दवा की 300 ग्राम मात्रा प्रति एकड़ या कासुगामायसिन 3% SL की 400 मिली मात्रा प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करें.

  • मिट्टी उपचार के रूप जैविक फफूंदनाशी ट्राइकोडर्मा विरिड की एक किलो मात्रा या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस की 250 ग्राम मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बीखेर दे.खेत में पर्याप्त नमी अवशय रखे.

  • झुलसा रोग (Blight): धनिये की फसल में इस रोग का प्रकोप होने पर पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जिससे पत्तियाँ झुलसी हुई नजर आती है. निवारण के लिए क्लोरोथालोनिल 70% WP @ 300 ग्राम/एकड़ या कार्बेन्डाजिम 12% + मैनकोज़ब 63% WP @ 500ग्राम/एकड़ या मेटिराम 55% + पायरोक्लोरेस्ट्रोबिन 5% WG @ 600 ग्राम/एकड़ या टेबूकोनाज़ोल 50% + ट्रायफ्लोक्सीस्ट्रोबिन 25% WG @ 100ग्राम/एकड़ या ऐजोस्ट्रोबिन 11% + टेबूकोनाज़ोल 18.3% SC@ 250 मिली/एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें.

  • जैविक उपचार के रूप में ट्राइकोडर्मा विरिडी @ 500 ग्राम/एकड़ या स्यूडोमोनास फ्लोरोसेंस @ 250 ग्राम/एकड़ की दर से छिड़काव करें.

  • धनिए की फसल 115 से 130 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. फसल पकने पर दानों का रंग पीला पड़ने लगता है अतः यह कटाई का उत्तम समय होता है.

  • पौधों की कटाई हाथ से उखाड़ कर या दराँती से करते हैं. कटी फसल को छाया में सुखा ना चाहिए जिससे दानों का रंग बरकरार रहता है.

  • सूखी फसल को पीटकर दाने अलग कर लेवे जब दानों की नमी 9 से 10% तक रह जाती है. जूट की बोरियों में भर लेना चाहिए. धनिए की उपज (Yield) सामान्यता 15 से 18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

English Summary: how to increase the yield of coriander with advanced varieties Published on: 25 January 2021, 02:12 PM IST

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