कृषि भारत का सबसे पुराना व्यवसायों में से एक है. आदिकाल से ही मानव जाति कृषि से अपना भरण पोषण कर अपने रहने के स्तर को बढाती आ रही है .समय के साथ महिला व पुरुष ने मिलकर कृषि का जिम्मा उठाया .चूँकि महिला व पुरुष की जिम्मेदारी को बाँट कर “घर का काम” व “बाहर के काम” के रूप में विभाजित कर दिया गया . “बाहर के काम” से क्रय कर आय होने लगी तो पुरुष की स्थिति भी मजबूत होने लगी.“घर का काम” के बीच में महिला ने अपनी पहचान खो दी .पहचान ने कब अस्तित्व का रूप ले लिया पता ही नहीं चला.
आज समय सशक्तिकरण का है – महिला सशक्तिकरण का, परन्तु ग्रामीण परिवेश में स्थिति वही की वही है- जस की तस. हर घर में महिला इन्ही शिकायतों के साथ जी रही है कि “हम अनपढ़ है, कोई काम धंधा नहीं कर सकते इसलिए हमारी पूछ नहीं होती”. यह हारी हुई एक महिला की मनोस्तिथि है. केंद्र सरकार व राज्य सरकार निरंतर अपनी योजनाओ के माध्यम से महिलाओ का जीवन स्तर या यूँ कहे की उनके अस्तित्व को मूल्यांकित कर जीवन स्तर बढ़ाने की कोशिश कर रही है जिसका फायदा कुछ महिलाये तो उठा रही रही परन्तु कुछ अभी भी अन्धकार में गुम है.
कृषि विज्ञान केंद्र, केंद्र सरकार की ऐसी ही एक कोशिश है जिस से भारत के हर गाव में वैज्ञानिक विधि से कृषकों का कल्याण किया जा सके.विभिन्न विषयो के वैज्ञानिको के साथ साथ हर के. वी. के. में एक वैज्ञानिक- गृह विज्ञान नियुक्त किया जाता है जो कि महिला कृषकों के बीच से उनकी जरूरत को समझ, जागरूकता पैदा कर उन्हें समृद्ध करने की गतिविधि करती रहती ही .इसी तरह अन्य वैज्ञानिको के साथ वैज्ञानिक - कृषि प्रसार की नियुक्ति भी की जाती है, जिसका कार्य हर वैज्ञानिक के साथ साथ हर विधि का प्रसार ऐसे करे की कृषकों को वैज्ञानिको की बात वैज्ञानिक तरीके से आसानी से समझ आ सके.
महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केंद्र, चौकमाफी, पीपीगंज केंद्र सरकार की विभिन्न योजनाओ के साथ वर्ष २०१७ से गोरखपुर में सक्रिय रुक से कृषक पुरुष एवं महिलाओ के लिए कार्य कर रहा है .यह गोरखपुर का दूसरा के. वी. के. है. म. गो. के. वी. के. पर आजकल महिला सशक्तिकरण पर विशेष रूप से जोर दिया जा रहा है .यहाँ यह उल्लेख करना अति आवश्यक है कि के. वी. के. ने ये कार्य सिर्फ “सरकारी योजनाओ को महिलाओ तक पहुचना के. वी. के. की जिम्मेदारी है”- के लिए नहीं बल्कि महिलाओ के आत्मविश्वास, उनका जुझारूपन , पहचान बनाने की ललक व आय अर्जित कर सशक्त बनने की उनकी जिद परउनके लिए कुछ करने के लिए यह कार्य शुरू किया है .नतीजतन के. वी. के. वैज्ञानिक -गृह विज्ञान डॉ. प्रतीक्षा सिंह व वैज्ञानिक प्रसार डॉ. राहुल कुमार सिंह ने गाव में स्वयं सहायता समूह बनवाया.चौकमाफी गाव में स्वयं सहायता समूह 8 महीने पहले ही बनाया गया था .महिलाओ की विश्वसनीयता समझने के लिए कि कही कोई महिला समूह छोड़ कर चली न जाये, समूह में अब तक मीटींग होती रही परन्तु कोई काम शुरू नहीं किया गया .8 महीने में महिलाओ की क्षमता को समझने के बाद, व उनकी ज़रूरत को भांप कर डॉ प्रतीक्षा सिंह व डॉ राहुल कुमार सिंह ने जानवरों (गाय, भैस, बकरी ) के गोबर व खेतो के बचे खरपतवार व घर के कचरा (जो की आसानी से सडाया जा सके) को 60 :40 में मिलकर decomposter की मदद से जैविक खाद बनाने की विधि को समूह के माध्यम से महिलाओ को सिखाया .चूँकि खाद बनाना कृषक महिलाओ के लिए कोई नई विधि नहीं थी जिस कारन इस प्रक्रिया को समूह में एक कार्य के रूप में शुरू करना वैज्ञानिको के लिए आसन नहीं था .इसकी शुरुआत के लिए वैज्ञानिको ने सबसे पहले श्रीमती पूनम मौर्या ग्राम राखुखोर, ब्लाक जंगल कौड़िया व श्रीमती कृष्णा जयसवाल पत्नी नेम्बुलाल जयसवाल के घर प्रदर्शनी लगाई.
इस decomposter की खास बात यह है की जो खाद प्राकृतिक प्रक्रिया से बनाने में कृषक बारिश का इंतजार करते है .एक साल तक गोबर को ढेर के रूप में रखने के बाद, एक ट्राली खाद को लगभग २२००-२५०० रु / ट्राली में बेंचते है वो भी साल में सिर्फ एक बार, जबकि decomposter से यही खाद ३०- ४० दिनों में बनाई जाती है जिसमे न तो बदबू होती है न ही कोई हानिकारक कीटाण कुल मिलकर जांची परखी विधि जिस से ये दो कृषक महिलाए अपने घर पर प्रदर्शन के रूप में लगाकर काफी संतुष्ट हुई है .चूँकि यहाँ बात महिला सशक्तिकरण की हो रही है तो जरुरी है की जैविक खाद बनाने के बाद खाद को बेचकर महिलाओ के हाथ में कुछ पैसे लाने की अर्थात तैयार उत्पाद को बाज़ार तक ले जाने का रास्ता देने का .इसके लिए वैज्ञानिको ने कृषक महिलाओ को बाज़ार भी उपलब्ध करा दिया है जहाँ यह जैविक गोबर की खाद 4-५ रु/ किलो की दर से बेचीं जा सकती है.
अब यहाँ कुछ महिलाओ के साथ समस्या आई कि जिन महिलाओ के पास जानवर नहीं है वे ये काम नहीं कर सकती अतः ऐसी समस्या को सामने आते देख वैज्ञानिको एक और काम शुरू करने की सोची, जिस से उन महिलाओ का मनोबल भी न गिरने दिया जाये जिसके पास जानवर नहीं है और उनके जोश, समझ व उर्जा का उपयोग उन्ही की समृधि में किया जा सके .वह कार्य था- अगरबत्ती बनाना .वैज्ञानिको का यह फार्मूला भी सुपरहिट साबित हुआ .दो स्वयं सहायता समूह में शुरू किया गया काम लगातार अधिक से अधिक महिलाओ को अपने काम में शामिल कर रहा है .यहाँ भी महिलाओ की वही समस्या थी माल को बाजार तक ले जाकर बेचने की जिसका समाधान भी वैज्ञानिको ने किया.अच्छी पैकिंग से लेकर अगरबत्ती बेचने तक की जिम्मेदारी वैज्ञानिको की रही .
अभी तक महायोगी गोरखनाथ कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिको द्वारा जैविक खाद बनाने का प्रदर्शन 6 महिलाओ के घर लगाया जा चुका है जबकि अगरबत्ती बनाने के लिए 12- 12 महिलाओ का दो समूह को प्रशिक्षित कर 90 पैकेट अगरबत्ती बनाई जा चुकी है.
महिला आर्थिक से सशक्त बनाने की यह सफल पहल महिलाओ के हित में तब और मजबूत कदम साबित होती है जब कृषक महिलाए खुद वैज्ञानिको के साथ कदम से कदम मिलकर चलती है. महिलाओ को समूह के माध्यम से प्रशिक्षित करने का मुख्या उद्देश्य उनमे जागरूकता तथा कौशल विकास के द्वारा आय तथा रोजगार सृजन कर उनके जीवन स्तर में सुधर लाने की वैज्ञानिको को कोशिश सच साबित होती दिखाई दे रही है.