कृषि क्षेत्र में किसान और साहित्यसेवी बाबूलाल दाहिया एक मिसाल बन चुके हैं. वह मध्यप्रदेश के सतना जिले से कुछ दूर पिथौराबाद गाँव के रहने वाले हैं, जिन्हें एक सफल, कवि, लेखक, और प्रखर वक्ता के रूप में जाना जाता है. बाबूलाल दाहिया को पद्मश्री अवॉर्ड से सम्मानित किया गया है लेकिन उनका कहना है कि वह कोई अवॉर्ड पाने के लिए खेतीबाड़ी नहीं करते हैं. उन्हें सरकार ने अवॉर्ड देकर सम्मानित किया है, यह सरकार का बड़प्पन है. आइए आज हम देश के अन्नदाता के लिए मिसाल बने बाबूलाल दाहिया की सफलता पर प्रकाश डालते हैं.
बचपन से था खेतीबाड़ी का ज्ञान
बाबूलाल दाहिया की उम्र करीब 75 साल है. उन्हें बचपन से ही खेती करने के तौर-तरीके पता थे, क्योंकि वह छुट्टियों के दिनों में अपने पिता के साथ खेती में हाथ बांटाया करते थे. आज वह कृषि के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करते रहते हैं, साथ ही सोशल मीडिया पर हमेशा सक्रिय रहते हैं. बता दें कि बाबूलाल दाहिया डाक विभाग में पोस्ट मास्टर के पद से रिटायर हो चुके हैं, उनके पास करीब 8 एकड़ जमीन है, जिसमें वह जैविक खेती करते हैं.
कई किस्मों का है खजाना
बाबूलाल दाहिया के पास देसी धान की करीब 110 किस्मों का खजाना है. वह हर साल इन्हें अपने ही खेत में बोया करते हैं, साथ ही उनका अध्ययन भी करते हैं. बता दें कि जब साल 2015 में सिर्फ 400 मिमी बारिश ही हुई थी, जिसकी वजह से सूखा पड़ने की हालत में फसलें बर्बाद हो गई थीं, तब बाबूलाल दाहिया ने अपने खेत में करीब 30 किस्में लगा रखी थीं, जिन पर सूखे का कोई असर नहीं हुआ था. इतना ही नहीं, हर साल उनकी फसलों की पैदावार बहुत अच्छी रहती है. इस वजह से आस-पास के किसान भी काफी प्रभावित हुए हैं. फिलहाल करीब 30 गांवों के किसान उनके साथ मिलकर धान और मोटे अनाज (कोदो, कुटकी, ज्वार) की खेती करते हैं.
देसी बीज से खास लागाव
बाबूलाल दाहिया को देसी बीज से खास लागाव रहता है. उनका मानना है कि देसी बीज हमारे यहां की जलवायु में हजारों साल से हैं, जिनमें रोगों को सहन करने की क्षमता होती है. ये बीज कम पानी में भी बोये जा सकते हैं, साथ ही इनमें ज्यादा पानी बर्बाद भी नहीं होता है. बाबूलाल दाहिया के पास शुरुआत में 2 से 3 किस्मों के ही देसी बीज थे, जिनमें से धान की सबसे अच्छी पैदावार होती थी, लेकिन उसकी ज्यादातर प्रजातियां विलुप्त होने लगी हैं. धान के अलावा उनके पास करीब 200 प्रकार के देसी बीज इकट्ठा हैं, लेकिन उनका मुख्य उद्देश्य धान की किस्मों को बचाना है, इसलिए जब भी उन्हें देसी बीज उपलब्ध होने की खबर मिलती है, वह वहां पहुंच जाते हैं.
किसानों के लिए संदेश
बाबूलाल दाहिया किसानों को प्रेरित करते हैं. उनका कहना है कि साल 1965 तक किसान देसी किस्मों से खेती करते थे, लेकिन जब से हरित क्रांति आई है तब से किसान बाजार पर निर्भर हो गए हैं. इसके बाद धीरे-धीरे देसी बीज विलुप्त होने लगे, लेकिन अगर किसान को कृषि क्षेत्र में आगे बढ़ना है, तो उन्हें देसी बीजों का ज्यादा से ज्यादा से उपयोग करना होगा. देसी बीज में कम लागत लगती है, साथ ही इन्हें हर मौसम को सहन करने की क्षमता होती हैं, इसलिए किसानों को खेतीबाड़ी में देसी बीज का उपयोग करना चाहिए, जिससे पर्यावरण और मिट्टी भी सुरक्षित बनी रहे.
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