इनदिनों एक मुद्दा है, जो बड़ी चर्चाओं का विषय बना हुआ है, वो है 19 जनवरी, 1990 जिसे The Night of Terror के नाम से भी जाना जाता है. दरअसल, कश्मीरी पंडितों के नरसंहार ने उस रात हिन्दुस्तान के इतिहास को झकझोर कर रख दिया. इसी पर आधारित फिल्म है द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files). जिसमें कश्मीरी पंडितों के उस दर्द को बयान किया गया है, जिसके बारे सुन कर भी हमारी रूह कांप जाये. आपको बता दें कि इस फिल्म के रिलीज़ होने से पहले ही इसपर प्रतिबंध लगाने की मांग रखी गई थी. इस मुद्दे पर राजनीति भी खूब हुई. इन सभी मुश्किलों से जूझते हुए इस फिल्म ने अपनी छाप लाखों लोगों के दिलों में छोड़ दी.
आपकी जानकारी के लिए बता दें कि उत्तरप्रदेश, हरियाणा, गोवा, गुजरात, कर्नाटक और मध्यप्रदेश सरकार ने इस फिल्म को पूरी तरह टैक्स फ्री (Tax Free) कर दिया है और अपने ज्यादातर सिनेमा घरों में इस फिल्म को रिलीज किया है. जिसका दर्शकों द्वारा अच्छा खासा रिस्पांस भी देखने को मिल रहा है.
द कश्मीर फाइल्स फिल्म में क्या है ख़ास (What's special about The Kashmir Files movie)
इस फिल्म की कहानी की बात करें, तो ये पूरी तरह कश्मीरी पंडितों के दर्द पर आधारित है. जिसमें यह दिखाया गया है कि कैसे कश्मीरी पंडितों को वहां यातनाएं दी गईं हैं. इसके अलावा इस फिल्म में कई दिग्गज कलाकार इसमें अपनी भूमिका निभाते नजार आये हैं. जैसे- अनुपम खेर और मिथुन चक्रवर्ती. इसके अलावा इसमें पल्लवी जोशी, दर्शन कुमार, चिन्मय मंडलेकर, भाशा सुम्बली, पुनीत इस्सर जैसे कलाकार भी शामिल हैं.
द कश्मीर फाइल्स फिल्म का 2 दिन का बिजनेस (2 days business of The Kashmir Files film)
अगर इस फिल्म के 2 दिन के बिजनेस की बात करें, तो इसने 14.35 करोड़ का बिजनेस किया है, जोकि 2022 के बाद से लेकर अभी तक की सबसे तेज ग्रोथ वाली फिल्मों में शुमार हो गई है.' तरण आदर्श ने अपने ट्वीट में लिखा है कि इस फिल्म ने पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, बॉक्स ऑफिस पर आग लगा दी है.
कश्मीरी पंडितों का इतिहास और द कश्मीर फाइल्स फिल्म की अन कहीं कहानी (history of Kashmiri Pandits and the story of The Kashmir Files film)
5 अगस्त, 2019 भारत के बदलते इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है, जब भारत के संविधान से अनुच्छेद 370 को हटाकर भारत के अन्य राज्यों को कश्मीर से जोड़ने का एक प्रयास किया गया, प्रयास- कश्मीरी पंडितों के साथ इंसाफ का और कोशिश उन्हें फिर से कश्मीर अपने घर लौटाने की.
कहा जाता हैजवाहरलाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला के झगड़े के बाद अब्दुल्ला को कई सालों तक जेल में रखा गया. 1975 में इंदिरा गांधी के सरकार में शेख अब्दुल्ला फिर से कश्मीर के मुख्यमंत्री बने और शुरू हुआ कश्मीर का एक नया अध्याय. 1980 आते-आते शेख अब्दुल्ला की सेक्युलर छवि के कारण उन्हें लगने लगा था कि उनका पॉलिटिकल कंट्रोल कश्मीर पर से कम हो रहा है और यहीं से कश्मीर की हवाओं में बदलाव आने लगा. 30 साल से शेख अब्दुल्ला की सेक्युलर छवि पर इस्लाम का रंग चढ़ने लगा. उन्होंने कई जगह कश्मीरी पंडितों को मुखबिर या "अदर्स" कहकर संबोधित करने लगे थे.
मार्च 1987 असेंबली इलेक्शन का वक़्त और कहा जाता हैइस चुनाव ने कश्मीर के इतिहास को बदलकर रख दिया. एक तरफ नेशनल कॉन्फ्रेंस और कॉंग्रेस की पार्टी और दूसरी तरफ कुछ ही महीने पहले बनी M.U.F जिसमे वे सारे लोग थे जो सरकार से नाख़ुश थे. बाद में अधिकतर M.U.F के पार्टी मेंबर आतंकवादी बन गए. उस वक़्त M.U.F की एक लहर उठी थी सरकार के ख़िलाफ़. तभी के तत्कालीन हालात ये कहते थे कि M.U.F की जीत पक्की थी, लेकिन बाद में फारूक अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में ये कबूला था कि चुनाव में धांधली हुई थी.
सरकार ने National Conference और Congress को जीतने की पूरी कोशिश की थी और इन्हीं के MLAs जीते भी थे. चुनाव में हुई धांधली के बाद लोगों का गुस्सा सरकार और स्टेट गवर्नमेंट पर टूट पड़ा. M.U.F के सय्यद सलाहुद्दीन जो आगे जाके Hizb-ul-Mujahiddin का मेन कमांडर लीडर बना.
1988 में JKLF का अलगाव आतंकवाद शुरू हुआ. ये वक़्त खून खराबा और रंजिशों का था. JKLF की विचार धारा भारत से विलय तो चाहती थी, लेकिन पाकिस्तान से मिलना भी नहीं चाहती थी. उनकी मंशा कश्मीर को लेकर अलग होने की थी. 14 सितंबर, 1989 को आतंकवादियों ने पंडित टीका लाल टपलू जो कि पेशे से वकील और लोकल बीजेपी लीडर थे. उन्हें दिन दहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी. 2 अक्टूबर 1989 पंडित निखाथ गंजू एक रिटायर जज जिन्होंने अपने कार्यकाल में JKLF के फाऊंडर मकबुल बट्ट को मौत की सज़ा सुनाई थी, उन्हें मौत के घाट उतार दिया. 27 दिसंबर 1989 को जर्नलिस्ट वकील को मार दिया गया.
4 जनवरी 1990 के उर्दू दैनिक अखबार आफताब में Hizb-ul-Muzahidin ने प्रेस रिलीज डाला. खबर कश्मीरी पंडितों के लिए थी. या तो आप हमारे साथ मिल जाएं या मारे जाएं या कश्मीर छोड़कर चले जाएं. कश्मीरी पंडितों के अंदर डर बढ़ता गया. जो उनके पड़ोसी थे वही उनके जान के दुश्मन बन गए, कोई अपनी मर्ज़ी से तो कोई डर से. कश्मीर की घाटियों में देशद्रोह और गद्दारी की गूंज थी. आए दिन कश्मीरी पंडितों के घर लुट-पाट,चोरी, आगजनी, लड़कियों के साथ बलात्कार हो रहे थे. धमकियां हर गली मोहल्ले में आम बात थी. आजादी और Nizame-mustafa के नारे जीतने ही तेज और बुलंद हो रहे थे, कश्मीरी पंडितों के दिल की धड़कने उतनी ही धीमी पड़ रही थी.
आतंकियों ने ये ऐलान कर दिया था कश्मीर आबाद होगा. इसके साथ ही मस्जिद से भड़काऊ भाषण का सिलसिला लगातार जारी था. अपनी आबरू को बचाने के लिए कई औरतों और लड़कियों ने आत्महत्या कर ली तो कई लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ, और कई किसी तरह जान और आबरू बचाकर निकल गई. अपने ही देश में उन्हें रिफ्यूजी कहा जाने लगा. कश्मीरी पंडितों का पलायन 1990 जनवरी से लेकर मार्च, अप्रैल तक चलता रहा. मदद की हर पुकार हर आवाज़ धीमी पड़ चुकी थी हाथ केवल आया तो, वो था निराशा, अपमान और अपनों को खोने का दर्द.