मौजूदा वक़्त में भारत के लाखों किसान जैविक खेती (Organic Farming) की ओर रूख कर रहे हैं. जैविक खेती (Organic Farming) से तात्पर्य शून्य बजट खेती (Zero Budget Farming) से हैं, जिसकी प्रशंसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) द्वारा भी की गई है. मौजूदा समय में देश के कई राज्य शत प्रतिशत जैविक खेती (Organic Farming) करने का दावा करते हैं, जिसमें सिक्किम का नाम शामिल है.
दरअसल, सिक्किम 100 प्रतिशत जैविक खेती (Organic Farming) वाला एकमात्र राज्य होने का दावा करता है. इसके साथ ही आंध्र प्रदेश, ओडिशा और अन्य गैर-भाजपा शासित राज्य भी जैविक खेती को उत्साहपूर्वक प्रोत्साहित कर रहे हैं. मगर इन सभी राज्यों को श्रीलंका के कृषि संकट से सीख जरूर लेना चाहिए.
दरअसल, श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका को पहला पूर्ण जैविक देश बनाना चाहते थे, जिसके चलते अप्रैल में रासायनिक कृषि इनपुट के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया. इसका परिणाम यह है कि खाद्य कीमतों में वृद्धि, खाद्य पदार्थों की गंभीर कमी, चाय व रबर जैसी निर्यात फसलों के उत्पादन में गिरावट की आशंका सामने आने लगी. इसके लिए जमाखोरों को जिम्मेदार ठहराया गया है.
गरीबी हटाओ काल की यादें ताजा
1970 के दशक की शुरुआत में गरीबी हटाओ काल में अनाज के पूरे थोक व्यापार के अधिग्रहण की याद दिलाता है. हालांकि, यह बुरी तरह विफल रहा था और इसे वापस लेना पड़ा था. बता दें कि तब ही खाद्य महंगाई पर लगाम कस सकी, जब हरित क्रांति के जरिए उत्पादन में वृद्धि हुई. इसके लिए बड़े पैमाने पर केमिकल इनपुट का इस्तेमाल किया गया.
श्रीलंका के टी एक्सपर्ट की चेतावनी
श्रीलंका के टी एक्सपर्ट हरमन गुनारत्ने द्वारा संभावित डिजास्टर को लेकर चेतावनी दी गई है कि अगर देश पूरी तरह जैविक खेती पर निर्भर हो गया. तो चाय की फसल में 50 प्रतिशत तक का भारी नुकसान हो सकता है, साथ ही 50 प्रतिशत ज्यादा कीमत नहीं मिलेंगे. अनुमान लगाया गया है कि कम लागत करने के बाद भी ऑर्गेनिक चाय के उत्पादन की लागत 10 गुना ज्यादा पड़ती है.
ऐसे में हो सकता है कि जैविक खेती (Organic Farming) की ऐसी नई तकनीक उपलब्ध हों, जो यील्ड को नुकसान न पहुंचाए, साथ ही कीमत भी ना बढ़ाएं. लेकिन अभी फिलहाल श्रीलंका ने दिखा दिया है कि कृषि को पूरी तरह जैविक बनाने के लिए किसी भी उपाय का जबरन इस्तेमाल करना कितनी बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है.
बता दें कि मौजूदा समय में बिहार व अन्य राज्यों के किसान उर्वरक की कमी को लेकर आंदोलन का कर रहे हैं. ऐसे में कहा जा रहा है कि अगर सरकार जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए कोई कठोर कदम उठाती है, तो यह उसकी मूर्खता होगी.
ऑर्गेनिक प्रॉडक्ट के लिए चुकाई जा रही मोटी रकम
राज्यों के मुख्यमंत्री जैविक खेती (Organic Farming) के लिए इंसेंटिव के साथ एक्सपेरिमेंट कर सकते हैं, लेकिन कोई भी भ्रम में न रहे कि यील्ड नहीं गिरेगी और कीमतें नहीं बढ़ेंगी. बता दें कि दुनिया के साथ-साथ भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो ऑर्गेनिक प्रॉडक्ट खरीदने के लिए मोटी धनराशि चुका रहे हैं या फिर चुकाने के लिए तैयार हैं.
क्या गोबर की खाद और गौमूत्र ले सकते हैं केमिकल्स की जगह?
जैविक खेती की वकालत करने वाले सुभाष पालेकर का प्रस्ताव है कि खेती में रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक के स्थान पर गोबर की खाद और गौमूत्र को इस्तेमाल किया जाए.
मगर भारत की नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (National Academy of Agricultural Sciences) ने इस टेक्नोलॉजी को अप्रमाणित करार करते हुए खारिज किया है. एकेडमी का मानना है कि इस तरह किसानों या उपभोक्ताओं को कोई भी लाभ नहीं मिलेगा.
हरित क्रांति से पहले का आलम
जानकारी के लिए बता दें कि हरित क्रांति की किस्में मिट्टी से जितना संभव हो सके न्यूट्रिएंट्स सोखकर उच्च यील्ड देती है. इससे पहले परंपरागत लो यील्ड वाली किस्म मिट्टी को जल्दी जर्जर बना देती थी. ऐसे में एक फसल कटने के बाद खेत को कुछ समय के लिए खाली छोड़ना पड़ता था, ताकि खेत फिर से उपजाउ बन सके. इसका नतीजा यह होता था कि कम अनाज उत्पादन की वजह से काफी लोगों को भुखमरी की मार झेलनी पड़ती थी. इसके बाद हरित क्रांति आई. तब से लेकर आज तक आबादी तिगुनी हो चुकी है, लेकिन केमिकल इनपुट्स से हाई यील्डिंग वेरायटीज ने अकाल की स्थिति पैदा नहीं होने दी. ऐसे में इसे गोबर की खाद से रिप्लेस नहीं किया जा सकता है.
बताया जाता है कि गाय के गोबर में 2 प्रतिशत नाइट्रोजन और 46 प्रतिशत यूरिया होता है. इसके साथ ही सभी फसलों के न्यूट्रिएंट्स का एक छोटा हिस्सा पशुओं को खिलाने में इस्तेमाल होता है. उसमें से भी बेहद मामूली हिस्सा उनके गोबर में जाता है. ऐसे में गोबर की खाद पर्याप्त परिणाम दे सकती है.
कुछ फसलें पर्याप्त नाइट्रोजन का इंतजाम करने में सक्षम
दाल और सोयाबीन जैसी कुछ फसलें है, जो अपनी नाइट्रोजन को खेत में फिक्स करने में सक्षम होती हैं, इसलिए उन्हें बिना किसी केमिकल का इस्तेमाल किए उगाया जा सकता है. इसके अलावा, कुछ फसलों को ग्रीन खाद से उगाया जा सकता है, लेकिन उनका उत्पादन बढ़ाने का मतलब है रकबा बढ़ाना.
उपयुक्त जानकारी के आधार पर माना जा सकता है कि बड़े पैमाने पर कृषि उत्पादन के लिए खेती से खराब होने वाली मिट्टी में उर्वरक का इस्तेमाल करना जरूरी है.