Papaya Ring Spot Virus: उत्तर भारत के किसानों के लिए पपीता रिंग स्पॉट वायरस एक बड़ी समस्या और चिंता का विषय है, जिससे उपज में काफी नुकसान होता है और आर्थिक क्षति होती है. बिहार में पपीता कुल 1.90 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिससे कुल 42.72 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है. बिहार की उत्पादकता 22.45 टन/हेक्टेयर है. राष्ट्रीय स्तर पर पपीता 138 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिससे कुल 5989 हजार टन उत्पादन प्राप्त होता है. पपीता की राष्ट्रीय उत्पादकता 43.30 टन/हेक्टेयर है. बिहार में पपीता की उत्पादकता राष्ट्रीय उत्पादकता से बहुत कम है, जिसका प्रमुख कारण इसमें लगने वाली विभिन्न बीमारियां है, विशेषकर पपाया रिंग स्पॉट वायरस रोग.
PRSV के प्रभावी प्रबंधन में कल्चरल, जैविक और रासायनिक उपायों के संयोजन के साथ-साथ प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग शामिल है. PRSV के प्रबंधन निम्नलिखित तरीके से किया जा सकता है....
1. कल्चरल उपाय
साइट का चयन और स्वच्छता
- अलगाव: अन्य पपीता बागानों और कद्दूवर्गीय फसलों (जैसे खरबूजे, खीरे और स्क्वैश) से दूर खेतों का चयन करें क्योंकि PRSV इन मेजबानों को भी संक्रमित कर सकता है.
- रोगिंग: संक्रमण के स्रोत को कम करने के लिए नियमित रूप से निरीक्षण करें और संक्रमित पौधों को तुरंत हटा दें. इन पौधों को जलाकर या गहराई में गाड़कर नष्ट करना आवश्यक है.
- फसल चक्रण: एक ही खेत में लगातार पपीता की खेती से बचें. मिट्टी और आसपास के वातावरण में वायरस के भार को कम करने के लिए गैर-मेजबान फसलों के साथ चक्रण करें.
नर्सरी प्रबंधन
- वायरस-मुक्त पौधे: प्रतिष्ठित स्रोतों से प्रमाणित वायरस-मुक्त बीज या पौधे का उपयोग करें. शुरुआती संक्रमण को रोकने के लिए पौधों को कीट-रोधी नर्सरी में उगाया जाना चाहिए.
- नर्सरी का अलगाव: एफिड संक्रमण के जोखिम को कम करने के लिए नर्सरी को पुराने पपीते के खेतों से दूर रखें.
अवरोधक फसलें
- पपीते के खेतों के आसपास मक्का या ज्वार जैसी गैर-होस्ट अवरोधक फसलें लगाने से एफिड्स को फसल में प्रवेश करने से शारीरिक रूप से रोका जा सकता है.
2. जैविक नियंत्रण
प्राकृतिक दुश्मन
- शिकारी और परजीवी: लेडी बीटल, लेसविंग और परजीवी ततैया जैसे लाभकारी कीटों को प्रोत्साहित करें जो एफिड्स का शिकार करते हैं. ये प्राकृतिक दुश्मन एफिड आबादी को नियंत्रण में रखने में मदद कर सकते हैं.
जैविक कीटनाशक
- नीम तेल: नीम आधारित उत्पाद एफिड आबादी को कम कर सकते हैं और एक विकर्षक(रिपेलेंट) के रूप में कार्य करते हैं, जिससे PRSV का प्रसार कम होता है.
- कीटनाशक साबुन: ये एफिड्स के खिलाफ़ प्रभावी हो सकते हैं, जबकि लाभकारी कीटों के लिए कम हानिकारक होते हैं.
3. रासायनिक नियंत्रण
कीटनाशक
- एफिड वेक्टर को प्रबंधित करने के लिए कीटनाशकों का विवेकपूर्ण उपयोग करें. इमिडाक्लोप्रिड जैसे प्रणालीगत कीटनाशक लंबे समय तक चलने वाला नियंत्रण प्रदान कर सकते हैं, लेकिन प्रतिरोध निर्माण और गैर-लक्ष्य जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव से बचने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) रणनीति के हिस्से के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए.
- छिड़काव का समय: कीटनाशकों को सुबह या देर दोपहर के समय लगाएं जब एफिड गतिविधि कम होती है, जिससे बेहतर प्रभावकारिता सुनिश्चित होती है और लाभकारी कीटों पर कम प्रभाव पड़ता है.
एंटीवायरल एजेंट
- वायरस के खिलाफ़ सीधे रासायनिक नियंत्रण सीमित है, एंटीवायरल यौगिकों और एलिसिटर पर शोध जो पौधे की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा सकते हैं, जारी है और आशाजनक है.
4. प्रतिरोधी किस्में
- पारंपरिक प्रजनन या जैव प्रौद्योगिकी विधियों के माध्यम से विकसित प्रतिरोधी या सहनशील पपीता किस्मों का उपयोग करें. 'रेड लेडी' जैसी किस्मों ने पीआरएसवी के प्रति कुछ प्रतिरोध दिखाया है.
- उत्तर भारतीय परिस्थितियों के लिए उपयुक्त पीआरएसवी-प्रतिरोधी किस्मों की पहचान करने और उनकी खेती को बढ़ावा देने के लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों के साथ सहयोग करें.
5. एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम)
निगरानी और प्रारंभिक पहचान
एफिड आबादी और पीआरएसवी के शुरुआती लक्षणों के लिए नियमित रूप से खेतों की निगरानी करें. एफिड की उपस्थिति और आबादी की गतिशीलता को ट्रैक करने के लिए पीले चिपचिपे जाल (Yellow Trap)का उपयोग करें. पूर्व चेतावनी प्रणाली को लागू करने से समय पर हस्तक्षेप करने में मदद मिल सकती है.
रोग प्रबंधन के विभिन्न उपायों को एकीकृत करना
एक समग्र दृष्टिकोण के लिए कल्चरल, जैविक और रासायनिक नियंत्रण विधियों को मिलाएं. उदाहरण के लिए, इष्टतम प्रबंधन के लिए नियमित रूप से रोगिंग और बाधा फसलों के साथ प्रतिरोधी किस्मों के उपयोग को एकीकृत करें.
किसान शिक्षा
पीआरएसवी की पहचान, रोकथाम और प्रबंधन पर किसानों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएं आयोजित करें. आईपीएम प्रथाओं के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए ज्ञान का प्रसार महत्वपूर्ण है.
6.अनुसंधान और विस्तार
निरंतर अनुसंधान
पीआरएसवी-प्रतिरोधी किस्मों, एफिड प्रबंधन तकनीकों और अभिनव नियंत्रण उपायों पर अनुसंधान का समर्थन करें. कृषि विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों और सरकारी एजेंसियों के बीच सहयोग महत्वपूर्ण है. नित्य नए हो रहे अनुसंधान से अवगत रहे और उन्हें प्रबंधन में शामिल करें.
प्रसार सेवाएं
यह सुनिश्चित करने के लिए प्रसार सेवाओं को मजबूत करें कि नवीनतम शोध और सिफारिशें किसानों तक पहुंचें. नियमित रूप से फील्ड विजिट, प्रदर्शन और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग ज्ञान हस्तांतरण को बढ़ा सकता है.
अखिल भारतीय फल परियोजना (ICAR-AICRP on Fruits ) एवम् डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (RPCAU ,Pusa) द्वारा विकसित तकनीक
इस तकनीक के अनुसार पपीता को मार्च-अप्रैल या सितंबर-अक्टूबर माह में आप पपीता लगा सकते हैं. इस महीने में लगाए गए पपीता में विषाणु रोग कम लगते है. पपीता में फूल आने से पहले यदि पपाया रिंग स्पॉट रोग पपीता में लग गया तो फल नहीं बन देगा. अतः इस रोग को प्रबन्धित करने का प्रमुख सिद्धांत यह है की इस रोग को आने से अधिक से अधिक समय तक रोका जाए. अखिल भारतीय फल परियोजना (ICAR-AICRP on Fruits ) एवम् डॉ राजेंद्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा (RPCAU ,Pusa) ने तकनीक विकसित किया है, उसके अनुसार खड़ी पपीता की फसल में भिभिन्न विषाणुजनित बीमारियों को प्रबंधित करने के लिए निम्नलिखित उपाय करना चाहिएI
पपीता को पपाया रिंग स्पॉट विषाणु रोग से बचाने के लिए आवश्यक है कि 2% नीम के तेल जिसमे 0.5 मिली प्रति लीटर स्टीकर मिला कर पहले महीने से लेकर एक एक महीने के अंतर पर छिड़काव आठवे महीने तक करना चाहिएI उच्च क्वालिटी के फल एवं पपीता के पौधों में रोगरोधी गुण पैदा करने के लिए आवश्यक है की यूरिया 04 ग्राम, जिंक सल्फेट 04 ग्राम तथा घुलनशील बोरान 04 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर एक एक महीने के अंतर पर छिड़काव पहले महीने से लेकर आठवे महीने तक छिड़काव करना चाहिएI उपरोक्त रसायनों का अलग अलग छिड़काव करना चाहिए. जिंक सल्फेट एवम बोरान को एक साथ मिला देने से घोल जम जाता है, जिससे छिड़काव करना मुश्किल हो जाता है.
बिहार में पपीता की सबसे घातक बीमारी जड़ गलन के प्रबंधन के लिए आवश्यक है की हेक्साकोनाजोल 2 मिली दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर एक महीने के अंतर पर मिट्टी को खूब अच्छी तरह से भीगा दिया जाए, यह कार्य पहले महीने से लेकर आठवें महीने तक मिट्टी को उपरोक्त घोल से भिगाते रहना चाहिए. शुरुवात में प्रति पेड़ को भीगने में बहुत कम दवा के घोल की आवश्यकता पड़ती और लेकिन जैसे पौधा बढ़ता जाता है. घोल की मात्रा भी बढ़ते जाती है, सातवें आठवें महीने तक पहुंचते पहुंचते एक बड़े पौधे को भीगने में 5 से 6 लीटर दवा के घोल की आवश्यकता होती है.