पौध सामग्री को विश्वसनीय स्रोत से प्राप्त करना एक प्रमुख अनिवार्यता है. सब्जियों और फलों के मामले में केवल एक ही मौसम खराब होगा. फलों के मामले में बरसों का श्रम बेकार चला जाता है, यदि पौधा खराब किस्म का लगा दिया जाए. ऊंचे पौधों की तुलना में गृह वाटिका के लिए छोटे फल वृक्ष का चयन करने की सलाह दी जाती है. ध्यान रहे कि जिस बौने वृक्ष की किस्म का चयन किया जाए वह अधिक उपज देने वाला हो. कुछ फल वृक्षों की मंजरी में नर और मादा फुल पाए जाते हैं, लेकिन उनमें फल निर्माण की क्षमता में भिन्नता पाई जाती है. उनमें से कुछ स्वबंध्या होते हैं.
यह समस्या प्रायः समशीतोष्ण फलों में पाई जाती है. अतः सही पराग कर्ता का प्रबंध हो या वह उसी क्षेत्र में उपलब्ध होने चाहिए.
प्रवर्धन :-
एक चयनित मूलवृन्त के उपर कलम या पैबंद चढ़कर प्रर्वधन किया जाता है. पैबंद चढ़ाने के मामले में विभिन्न फल वृक्षों के लिए विभिन्न मूल वृन्त होते हैं. बौने मूलवृन्तों को प्रवर्धन के लिए चुनना चाहिए. उदाहरणतः सब के लिए मालिंग 9 मूलवृन्त चुनना चाहिए. पौधे की बढ़वार के साथ-साथ उसकी बीमारी प्रतिरोधी उसके उचित मूलवृन्त के चयन पर निर्भर करती है. कुछ फलों को जैसे पपीता, अमरूद, फालसा और करौंदा को बीजों से प्रवर्धित किया जाता है. अंगूरों को कलमों द्वारा तथा अनन्नास को भूस्तारी द्वारा प्रवर्धित किया जाता है.
रोपण:-
फलों को पेड़ लगाने के लिए विभिन्न आकार के गड्ढे तैयार किए जाते हैं, जैसे 1 फुट गुणा 1 फुट गुणा 1 फुट गुणा झाड़ियां के लिए, फल वृक्षों के लिए 2 फुट गुणा 2 फुट गुणा 2 फुट गहरे गड्ढे चाहिए तथा 3 फुट गुणा 3 फुट गुणा 3 फुट बड़े पेड़ों के लिए. जो पौधे स्थापित हो जाए तब उन पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.
सदाबहार फल वृक्षों को मैदानों में और कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में लगाने का उपयुक्त समय बरसात जुलाई अगस्त, समशीतोष्ण फलों या पर्णपाती वृक्षों और झाड़ियां के मैदान में लगाने का समय दिसंबर जनवरी उपयुक्त रहता है, जबकि की पहाड़ियों में नवंबर दिसंबर का समय ठीक होता है. यदि भूमि दलदली हो या दिसंबर जनवरी में बर्फ पड़ती हो तो रोपाई को फरवरी तक स्थगित कर देना चाहिए.
पौधों का फासला इस बात पर आधारित होना चाहिए कि वृक्ष पूर्ण वृद्धि प्राप्त होने पर कितना फैलेगा. शुरू में इसका छितराया रूप भ्रामक हो सकता है.
सिंचाई और खाद:-
पौधों पर मंजरी और फल आने के समय प्रचुर मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है. उसे अवस्था में तरल खाद की आवश्यकता ली जा सकती है. जलमग्न के दशायें वृक्षों के लिए हानिकारक होती है. कुछ फलों जैसे पपीता और आडू में अत्यधिक पानी में अत्यधिक पानी या जलमग्नता के कारण कालर - विगलन होने की संभावना बढ़ जाती है. पौधों को दिसंबर जनवरी की विश्राम अवस्था में अधिक पानी देने से पतियों की बढ़वार जल्दी और अत्यधिक हो जाती है जिसका फल निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. कुछ वृक्ष जैसे अमरुद जल निकास की बुरी परिस्थितियों में भी उगता है. वृक्ष के तने के चारों ओर चौड़ा बेसिन बनाने की सलाह दी जाती है. बेसिन वृक्ष और इस का ढलान बेसिन के किनारे की ओर समान हो. फालतू पानी को निकालने के लिए एक संकरी नाली बेसिन के किनारे से बननी चाहिए.
पौधे लगाने से पूर्व भरपूर मात्रा में खाद देना जरूरी है. फूल आने से पहले या बाद में एक या दो बार पुनः खाद डालें. एक छोटे वृक्ष की प्रारंभिक अवस्था में या उसके उपरांत
लगभग एक टोकरी 10 किलोग्राम भली भांत साड़ी गोबर की खाद,1/2 टोकरी पती की खाद तथा उतनी ही लकड़ी की राख एवं एक किलोग्राम हड्डी का चूर्ण प्रतिवर्ष डालना चाहिए झाड़ी को उपरोक्त संस्तुत मात्रा की आधी मात्रा की आवश्यकता होती है.
काट-छांट:-
समशीतोष्ण फूलों की तुलना में अधिक कटाई छंटाई की आवश्यकता होती है. लता वाले सभी फलों जैसे अंगूर और झाड़ियां को साधने की आवश्यकता होती है. कुछ फल वृक्षों जैसे फालसा में प्रचुर काट छांट करके उन्हें 2 फीट झाड़ीनुमा रूप दिया जाता है. इसमें नई बढ़वार में फल लगते हैं. करौंदा की अच्छी वृद्धि के लिए कट छांट अनिवार्य है. अमरूद की लखनऊ 49 नमक किस्म को ब्रांचिंग टाइप बनाने के लिए उसका शीर्ष तब काटना चाहिए जब वह दो-तीन मीटर ऊंचा हो. नींबू को भी कट छांट की आवश्यकता होती है. उत्तरी भारत में अंगूरों की जनवरी में कटाई छंटाई की जाती है. उष्ण जलवायु वाले वृक्ष जब फल देने लगे तब उन्होंने भारी मात्रा में काट छांट नहीं करनी चाहिए. फल लगने से पूर्व काट छांट इस बात पर निर्भर करती है कि उन पौधों को किस प्रकार साधा गया है.
फल दलपुंज छोटी प्ररोह है, जिनमें 3-4 कलिकायें होती है. समशीतोष्ण फल वृक्षों पर दलपुंज और प्ररोह पर लगते हैं. किसी में यह 1 वर्ष पुराने और किसी-किसी इसी वर्ष के होते हैं. आडू के वृक्ष पर एक साल,सेब के दो साल, खूबानी में 3 साल,अलूचा 5-8 साल और चेरी में 10-12 साल पुराने दलपुंज पर फल लगते हैं. जिन किस्म में फल कम आयु के दलपुंज पर लगाते हैं और जिन किस्म में देरी से फल लगते हैं उन्हें अपेक्षाकृत अधिक काट छांट की आवश्यकता होती है. आडू में पाशर्व शाखों को 1/3 काट दिया जाता है और उसकी अगल-बगल की प्ररोह को लगभग तीन से चार कालिकाओं को छोड़कर काट दिया जाता है. वृक्ष को उसके बाहरी आंख के ठीक ऊपर से कटकर खुले पंख के समान ताज के आकार का बनाया जाता है. पहाड़ियों में इसके उपरांत गर्मियों में भीतरी प्ररोहों काटा जाता है न की उसकी पाशर्व शाखा को.
यदि फल वृक्ष निरंतर काट - छांट और खाद के नियंत्रण करने पर भी अत्यधिक वनस्पति बढ़वार करते रहें फल नहीं उत्पन्न कर पाते हैं तो उसके लिए अलग से उपचारों की सिफारिश की जाती है. जैसे जड़ों की काट छांट और छाल रिंगिंग. समशीतोष्ण और पर्णपाती फल वृक्षों और झाड़ियों की काट छांट सर्दी के शुरू में तथा दूसरों की बरसात के शुरू में की जाती है. वृक्ष के तने से लगभग 1 मीटर की दूरी पर एक अर्ध गोलाकार खाई खोदी जाती है. जो जड़ें निकल आती है उनकी कटाई की जाती है. अगली सर्दी में जड़ के दूसरे भाग को भी इसी प्रकार काटते हैं. कभी-कभी मूसला जड़ के निचले हिस्से को उसी समय काट कर अलग कर देते हैं. यह कोई इतना कठिन कार्य नहीं है जितना महसूस होता है.
दक्षिणी और पूर्वी मैदान में नारियल का वृक्ष पहाड़ी के क्षेत्र में अखरोट का वृक्ष और मैदानों में आम का वृक्ष का होना धर्म और संस्कृति से संबंधित है इन्हें पूरा सम्मान दिया जाता है और परिवार के सदस्यों की भांति उनकी देखभाल की जाती है. इनसे भोजन, रेशा, ईंधन के अलावा छप्पर का फूस, इमारती लकड़ी इत्यादि मिलते हैं. यदि स्थान हो तो इन्हें अवश्य लगाएं.
लेखक:
रबीन्द्रनाथ चौबे, ब्यूरो चीफ, कृषि जागरण, बलिया, उत्तर प्रदेश