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Updated on: 7 August, 2024 12:00 AM IST
हिमाचल प्रदेश ने बागवानी क्षेत्र में शानदार उपलब्धियां हासिल की

कृषि हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का एक अभिन्न अंग है. हिमाचल प्रदेश में लगभग 57.03 प्रतिशत काम-काजी आबादी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है. कृषि और इससे जुड़े उद्योग कुल "सकल राज्य मूल्यवर्धित" में लगभग 13.47 प्रतिशत योगदान प्रदान करते हैं. राज्य का कुल क्षेत्रफल 55673 वर्ग किलोमीटर है जिसमें से 9.44 लाख हेक्टेयर कार्यात्मक स्वामित्व में है जिस पर 9.97 लाख किसान खेती करते हैं. राज्य में भूमि स्वामित्व का औसत आकार लगभग 0.95 हेक्टेयर है. हिमाचल प्रदेश भारत का एक पहाड़ी राज्य है जो विभिन्न प्रकार के फलों, सब्जियों तथा फूलों इत्यादि के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. हिमाचल प्रदेश में बागवानी का इतिहास बहुत प्राचीन है. इसकी भूमि पर फलों और सब्जियों की खेती पारंपरिक रूप से बहुत प्राचीन काल से की जा रही है. बागवानी क्षेत्र आय के विभिन्न स्रोत उत्पन्न करके हिमाचल प्रदेश के लोगों की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक सिद्ध हुआ है. प्रदेश में बागवानी क्षेत्र को विकसित करने में श्रमिकों, किसानों एवं स्थानीय लोगों का अत्यंत सहयोग रहा है. स्वतंत्रता के बाद हिमाचल प्रदेश सरकार ने बागवानी को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न योजनाएं चलाईं. प्रदेश में किसानों को नए तंत्रों की जानकारी प्राप्त करने और उन्हें अपनाने के लिए कई योजनाओं के द्वारा समर्थन प्रदान किया गया. आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार राज्य के कुल क्षेत्रफल 891926 हेक्टेयर में से 26 प्रतिशत (2.34 लाख हेक्टेयर) भाग बागवानी के अंतर्गत है.

बागवानी क्षेत्र में शानदार उपलब्धियों के कारण राज्य को "बागवानी राज्य" का दर्जा दिया गया है. राज्य को “फ्रूट बाउल ऑफ इंडिया” के नाम से भी जाना जाता है. हिमाचल प्रदेश में बागवानी क्षेत्र में जबरदस्त वृद्धि देखी गई है. बागवानी क्षेत्र ने राज्य के “सकल मूल्यवर्धन” में कृषि के हिस्सेदारी में शानदार वृद्धि दर्ज की है.

प्रदेश में फल फसलों की स्थिति

हिमाचल प्रदेश विभिन्न फलों के उत्पादन के लिए प्रसिद्द है. राज्य में सेब, आड़ू, नाशपाती, खुबानी, आम, नींबू एवं लीची इत्यादि कई प्रकार के फलों की खेती की जाती है. राज्य को फलों का एक महत्वपूर्ण निर्यातक भी कहा जाता है. इस कारण प्रदेश को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक महत्वपूरण स्थान प्राप्त है. हिमाचल अपने गुणवत्तापूर्ण फल उत्पादन के लिए जाना जाता है. प्रदेश में फलों के अंतर्गार्ट क्षेत्र, फलों के उत्पादन एवं विक्रय में समय के साथ धीरे-धीरे वृद्धि देखि है.

लेकिन इसके विपरीत, वर्ष 2022-23 में फलों का कुल उत्पादन 8.15 लाख टन था जो 2023-24 में घटकर 5.84 लाख टन हो गया. इस कारण राज्य में फलों के अंतर्गत क्षेत्र में 1224 हेक्टेयर बढ़ोतरी की योजना बनाई गयी. फलों की खेती न केवल आर्थिक लाभ प्रदान करती है बल्कि यह प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण में भी मदद प्रदान करती है जो पर्यावरण संरक्षण के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक है. राज्य में सेब फल का सबसे अधिक उत्पादन होता है जो लगभग 672343 मीट्रिक टन है, इसके बाद आम का उत्पादन 45500 मीट्रिक टन और नाशपाती का 18604 मीट्रिक टन है.

हिमाचल प्रदेश में सब्जियों की फसलों की स्थिति 

सब्जियाँ प्रदेश के बागवानी क्षेत्र में एक एहम भूमिका निभाती है . राज्य में सब्जियों की उत्पादकता 21.34 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है अथवा कुल उत्पादन 1,867,413.15 टन  है. हिमाचल प्रदेश अपने टमाटर, मटर, शिमलामिर्च, बीन्स, प्याज, लहसुन गाजर आदि जैसे सब्जियों के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है . मटर का सब्जियों के कुल क्षेत्रफल में सबसे बड़ा हिस्सा है जो कि 25.996 हेक्टेयर है अथवा इस फसल का उत्पादन 328.804 टन है. आश्चर्यजनक है कि मटर की तुलना में केवल आधा क्षेत्र होने के बावजूद टमाटर का उत्पादन 577.004 टन है अथवा इसकी उत्पादकता 43 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर की है जो कि अत्यधिक प्रभावशाली है. सब्जी के उत्पादन में विशेष रूप से बढ़ोतरी देखि गयी है. राज्य में 2011 में सब्जियों का उत्पादन 135600 टन था जो वर्ष 2022 में बढ़कर 1867413 टन प्राप्त किया गया .

भारत में बागवानी क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

बागवानी क्षेत्र घरेलू उत्पाद (सकल मूल्यवर्धन) में लगभग 30.4 प्रतिशत का योगदान करता है जबकि केवल 13.1 प्रतिशत क्षेत्रफल ही इसके अंतर्गत है. भारत का बागवानी क्षेत्र कृषि क्षेत्र से अधिक लाभकारी और उत्पादक्षम साबित हो रहा है और यह एक तेजी से बढ़ते उद्योग के रूप में प्रकट हो रहा है. भारत दुनिया में चीन के बाद फल और सब्जी के उत्पादन में दूसरे स्थान पर है. भारत विभिन्न प्रकार के फल और सब्जियों के उत्पादन के लिए अनुकूल है क्योंकि यहाँ खेती के अनुकूल जलवायु, श्रम की उपलब्धता, और कम इनपुट लागत के संयोजन जैसी सुविधाएं हैं. इस परिणामस्वरूप, फल और सब्जियों का देश में कुल बागवानी उत्पाद का लगभग 90 प्रतिशत का हिस्सा है. 2022-23 में कुल बागवानी उत्पाद 351.92 मिलियन टन रहा . 2021-22 के साथ तुलना की जाये तो इस उत्पादन में लगभग 4.74 मिलियन टन (1.37%) की वृद्धि हुई है. 2022-23 में फलों का उत्पाद 108.34 मिलियन टन था, जिसकी 2021-22 के 107.51 मिलियन टन फल उत्पादन के साथ तुलना की जा सकती  है. सब्जियों का उत्पादन 2022-23 में 212.91 मिलियन टन था, जिसकी तुलना में 2021-22 में 209.14 मिलियन टन उत्पादन था . वन्यजन्तु उत्पाद की वृद्धि 2021-22 में 15.76 मिलियन टन से बढ़कर 2022-23 में 16.05 मिलियन टन हो गई है, जो लगभग 1.78% की वृद्धि दर्शाता है. 2022-23 में भारत में फूलों का कुल उत्पादन 3.124 मिलियन टन रहा तथा शहद का उत्पाद 0.133 मिलियन टन रहा .

सेब: एक आर्थिक रूप से समर्थनीय फसल

2023 में भारत का कुल सेब उत्पादन 2437370 टन रहा . वर्ष 2020 में भारतीय सेब के निर्यात की कुल मात्रा 30606.83 टन थी जिसका मूल्य 10637 लाख रुपये था. यह मात्र वर्ष 2023 में बढ़कर 52875.89 टन हो गई जिसका मूल्य 16766.86 लाख रुपये था. सेबों की खेती भारतीय सकल घरेलू उत्पाद में आर्थिक विकास और रोजगार को बढ़ावा देने के रूप में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान करती है. सेबों की खेती और निर्यात किसानों के लिए आय उत्पन्न करती है, जो उनके रहन- सहन में वृद्धि करता है. बढ़ते उत्पादन के कारण कृषि उपकरणों की मांग बढ़ती है, जिसके कारण इस से सम्बंधित उद्योगों को समर्थन मिलता है. भारतीय सेबों का निर्यात विदेशी मुद्रा कमाता है, जो देश के व्यापार संतुलन को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है. इसके अलावा, सेब के बाग पर्यटन को बढ़ावा देते हैं. इस क्षेत्र ने कृषि विकास में सामान्य योगदान के रूप में तकनीकी प्रगति को बढ़ावा दिया है. सतत सेब की खेती अधिक उत्पादकता की दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रही है, जिससे यह भारत की आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है.

बागवानी क्षेत्र में क्रांति

भारत में कृषि अपने क्षेत्रफल में गिरावट का सामना कर रही है, जो वर्ष 2012 में 747896 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 2०22 में 7०5897  हेक्टेयर हो गयी . यह परिवर्तन लोगों की बदलती सोच का परिणाम है जिनकी रूचि धीरे-धीरे बागवानी की ओर बढ़ रही है. बागवानी क्षेत्र विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती करने का साधन है, जैसे कि फल और सब्जियों की फसलें. इस परिवर्तन के माध्यम से पारंपरिक कृषि से बागवानी की दिशा में एक प्रवृत्ति देखि गयी है, जिसके अंतर्गत उच्च मूल्यवर्धन और व्यावसायिक रूप से समर्थनीय फसलों की खेती की जा रही है. यह भारतीय कृषि में एक मौलिक परिवर्तन की ओर संकेत कर रहा है. हिमाचल प्रदेश  में कृषि क्षेत्र उच्च मूल्यवान बागवानी उत्पादों द्वारा निर्वाहित हो रहा है, जिसमें बागवानी का लगभग  44 प्रतिशत का क्षेत्रफल  है और यह कृषि ग्रॉस राज्य घरेलू उत्पाद को लगभग 48 प्रतिशत या 12136  करोड़ रुपये का योगदान प्रदान कर रहा है.

हिमाचल प्रदेश में बागवानी क्षेत्र ने रोज़गार, वेतन और इसके आभाव कम करने में कई सकारात्मक परिणामों के लिए एक एहम भूमिका निभाई है. सरकार ने किसानों के समर्थन के लिए विभिन्न योजनाओं को लागू किया है, जिसके अंतर्गत तकनीकी सहायता एवं भूमि सामग्री विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा प्रदान किये जाने वाला अनुदान बागवानी पर केंद्रित किया जा रहा है, ताकि उत्पादकता एवं गुणवत्ता में सुधार हो तथा कटाई के बाद आने वाली समस्याएँ यानी “पोस्ट-हार्वेस्ट लोस्सेस” को कम किया जा सके. कृषि और बागवानी मिलकर हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था का आधार हैं, जो रोजगार सृष्टि, आय सृष्टि, और समग्र आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. हिमाचल प्रदेश में बागवानी क्षेत्र राज्य की आर्थिक समृद्धि का एक महत्वपूर्ण सहयोगी बना हुआ है. इसका प्रभाव किसान के सहयोग के अलावा रोज़गार सृजन, तकनीकी प्रगति, और सतत विकास को समाहित करता है. यदि राज्य अपने प्राकृतिक फायदों का सही तरीके से उपयोग करना और नवाचार को अपनाने में आगे बढ़ता है, तब बागवानी क्षेत्र की हिमाचल प्रदेश के भविष्यात्मक आर्थिक मंच को आकार देने में और भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की संभावना है.

बागवानी क्षेत्र की समस्याएं:

  • बागवानी उद्योग जलवायु परिवर्तन से विशेष रूप से प्रभावित हो रहा है, जिससे फसल उत्पादकता, क्षमता और समग्र वित्तीय व्यवहार्यता पर स्पष्ट प्रभाव पड़ रहा है. बढ़ता तापमान, वर्षा चक्र में उतार-चढ़ाव और बाढ़ और शुष्क दौर जैसी अभूतपूर्व मौसम संबंधी घटनाएं किसानों के लिए अपनी फसल उगाने में बढ़ती चुनौतियां खड़ी कर रही हैं. ऐसी परिस्थितियों से फसल की उत्पादकता कम हो सकती है, फलों की उत्कृष्टता प्रभावित हो सकती है तथा संक्रमण और बीमारियों में वृद्धि हो सकती है. इसके अलावा, तापमान और वर्षा व्यवस्था में बदलाव से फसल की खेती और कटाई के समय-निर्धारण पर असर पड़ सकता है, जिसके परिणामस्वरूप आपूर्ति नेटवर्क में गड़बड़ी और बाजार मूल्यांकन में उतार-चढ़ाव हो सकता है.

  • फलों के आयात में वृद्धि भारत के बागवानी उद्योग के लिए महत्वपूर्ण चुनौतियाँ खड़ी करती है. यह स्थानीय उत्पादकों के लिए प्रतिस्पर्धा को बढ़ाता है, गुणवत्ता मानकों को खतरे में डालता है, और कीटों और बीमारियों के फैलने का जोखिम उठाता है. आयात पर निर्भरता बाजार को कीमतों में उतार-चढ़ाव और व्यापार नीति में बदलाव का भी सामना करती है. इन मुद्दों से निपटने के लिए, घरेलू बागवानी क्षेत्र में स्थिरता और लचीलापन सुनिश्चित करने के लिए स्थानीय उत्पादकों का समर्थन करने वाली मजबूत नीतियां और गुणवत्ता नियंत्रण उपाय आवश्यक हैं.

  • 1960 के दशक में हरित क्रांति के बाद रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में लगातार वृद्धि देखी गई है. तेजी से परिणाम प्राप्त करने के लिए, किसानों में इन उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग करने की प्रवृत्ति होती है. हालाँकि, इसके अत्यधिक उपयोग से हानिकारक परिणाम सामने आते हैं. इससे मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ और ह्यूमस सामग्री में कमी, लाभकारी कीटों की आबादी में कमी, पौधों की वृद्धि में कमी, कीटों के हमलों के प्रति संवेदनशीलता में वृद्धि और मिट्टी के पीएच में परिवर्तन जैसे हानिकारक परिणाम सामने आते हैं. अंततः, इन कारकों के कारण कृषि उत्पादकता में कमी आती है.

  • भारत के बागवानी क्षेत्र में फसल कटाई के बाद का नुकसान एक गंभीर मुद्दा है, जिसका आंकड़ा 20% से 40% तक है. अपर्याप्त भंडारण, परिवहन और बाज़ार पहुंच इस समस्या में योगदान करते हैं. अपर्याप्त “कोल्ड स्टोरेज” सुविधाओं और खराब रखरखाव प्रथाओं के कारण फसल खराब हो जाती है, जबकि अपर्याप्त पैकेजिंग और बाजार की जानकारी किसानों की लाभदायक बाजारों तक पहुंचने की क्षमता में बाधा बनती है. इन चुनौतियों से निपटने के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश, बेहतर प्रबंधन प्रथाओं, कुशल पैकेजिंग समाधान और किसानों के लिए बेहतर बाजार पहुंच की आवश्यकता है. फसल कटाई के बाद होने वाले नुकसान से निपटकर, भारत खाद्य सुरक्षा बढ़ा सकता है, किसानों की आय बढ़ा सकता है और बागवानी आपूर्ति श्रृंखला की समग्र दक्षता में सुधार कर सकता है.

  • भारतीय बागवानी किसानों के लिए उच्च लागत एक प्रमुख चिंता का विषय है. बीज, उर्वरक और मशीनरी का खर्च बजट पर दबाव डालता है, खासकर छोटे किसानों के लिए यह एक बड़ी समस्या है. इनपुट कीमतों में उतार-चढ़ाव वित्तीय योजना को बाधित करता है और लाभ को कम करता है, जिससे आधुनिक तकनीकों में निवेश में बाधा आती है. इसे संबोधित करने के लिए किफायती इनपुट पहुंच, टिकाऊ प्रथाओं को बढ़ावा देना और वित्तीय सहायता की आवश्यकता है, जिससे इस क्षेत्र की प्रतिस्पर्धात्मकता सुनिश्चित हो सके.

  • भारत में बागवानी विकास को परिवहन और वितरण, जल संसाधन, उत्पादों की उपलब्धता और ऊर्जा जैसी विभिन्न प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है. देश की पारिस्थितिक स्थितियों (अर्ध-शुष्क, लगातार सूखा आदि) को ध्यान में रखते हुए जल उपलब्धता कृषि विकास के लिए मुख्य प्रतिबंध बन जाती है. वर्षा पर निर्भर कृषि के लिए जल आवश्यक है. बागवानी उत्पाद (जैसे फल और सब्जियाँ) स्थिर और पर्याप्त जल आपूर्ति पर अत्यधिक निर्भर हैं. हालाँकि कुछ क्षेत्रों में बड़ी नदियाँ हैं लेकिन छोटे पैमाने के किसानों को सिंचाई के माध्यम से पानी लाने के लिए बड़े निवेश की आवश्यकता है. यह पारिस्थितिक रूप से संतुलित, टिकाऊ और लागत-कुशल होना चाहिए. इसलिए यहां कृषि विकेंद्रीकरण रणनीतियां विकसित की जानी चाहिए.

  • भारतीय कृषि क्षेत्र में बढ़ते मशीनीकरण के बावजूद, अधिकांश कृषि कार्य मानव श्रम पर बहुत अधिक निर्भर हैं. बीज बोने, निराई करने और अन्य कृषि कार्यों के लिए मशीनरी मौजूद है, लेकिन किसानों द्वारा उन्हें अपनाना सीमित है. यह छोटे पैमाने के किसानों के लिए विशेष रूप से कठिन है क्योंकि उनके पास सीमित भूमि है, जिससे मशीनीकरण को अपनाना मुश्किल हो जाता है. इसके अतिरिक्त, ग्रामीण किसानों में जागरूकता की कमी और वित्तीय प्रतिबंध इस समस्या को और बढ़ावा देते हैं.

लेखक:

सुभाष शर्मा, शिवम बहल एवं मधुलिका ठाकुर
सामाजिक विज्ञान विभाग, डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्योनिकी एवं वानिकी विश्व विद्यालय, नौणी, सोलन, (हि. प्र)

English Summary: Himachal Pradesh is an emerging region in Indian agriculture great achievements have been made in horticulture
Published on: 07 August 2024, 05:58 IST

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