किसान पपीता की खेती की ओर आकर्षित हो रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह अत्यधिक लाभदायक फसल है. हालांकि, उचित जानकारी के अभाव में इसकी खेती करना आर्थिक रूप से नुकसानदायक भी हो सकता है. पपीता की मार्केटिंग में कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इसके औषधीय और पौष्टिक गुणों से हर कोई परिचित है. परंपरागत गेहूं-धान जैसी फसलों की तुलना में फल-फूल और सब्जी की खेती अधिक लाभदायक हो सकती है. पपीते की खेती से किसान प्रति हेक्टेयर दो से तीन लाख रुपये प्रति वर्ष (सभी लागत घटाने के बाद) की शुद्ध कमाई कर सकते हैं.
पपीते की खेती क्यों करें?
पपीता विटामिन ए का सबसे अच्छा स्रोत है, जो कोलेस्ट्रॉल, डायबिटीज और वजन घटाने में सहायक होता है. यह आंखों की रोशनी बढ़ाने के साथ-साथ महिलाओं के मासिक धर्म के दौरान दर्द को कम करने में भी मदद करता है. पपीते में पाया जाने वाला एंजाइम 'पपेन' औषधीय गुणों से भरपूर होता है, जिससे इसकी मांग लगातार बढ़ रही है.
पपीते की फसल एक वर्ष के भीतर फल देने लगती है, जिससे इसे नकदी फसल के रूप में उगाया जा सकता है. इसकी खेती के लिए 1.8x1.8 मीटर की दूरी पर पौधे लगाने से प्रति हेक्टेयर लगभग एक लाख रुपये की लागत आती है, जबकि 1.25x1.25 मीटर की दूरी पर लगाए गए पौधों के साथ सघन खेती करने पर लागत बढ़कर 1.5 लाख रुपये तक जाती है. इसके बावजूद इससे दो से तीन लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की शुद्ध कमाई संभव है.
पपीते लगाने का सर्वोत्तम समय
पपीता उष्णकटिबंधीय फल है, जिसकी रोपाई वर्ष में तीन बार - जून-जुलाई, अक्टूबर-नवंबर और मार्च-अप्रैल में की जा सकती है. पपीते की फसल पानी को लेकर बहुत संवेदनशील होती है, इसलिए इसकी खेती ऐसे स्थानों पर की जानी चाहिए जहां पानी ठहरता न हो.
मार्च-अप्रैल में पपीते की खेती तेजी से लोकप्रिय हो रही है क्योंकि इस समय बीमारियों का प्रकोप तुलनात्मक रूप से कम होता है. इस समय पपीते की खेती करने के लिए उन्नत किस्मों के बीजों को अधिकृत स्रोतों से प्राप्त करना चाहिए और उन्हें कीटनाशकों तथा फफूंदनाशकों से उपचारित करने के बाद ही बोना चाहिए.
पपीते में रोग एवं उनका प्रभावी प्रबंधन
पपीते की फसल सफेद मक्खी जनित पर्ण संकुचन रोग और एफिडस्ट जनित रिंग स्पॉट वायरस से अत्यधिक प्रभावित होती है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय एवं आईसीएआर-एआईसीआरपी (फ्रूट्स) द्वारा विकसित तकनीकों के अनुसार रोग प्रबंधन के निम्नलिखित उपाय अत्यंत प्रभावी हैं:
- रोगरोधी किस्मों का चयन करें.
- नेट हाउस या पॉली हाउस में पौधों की नर्सरी तैयार करें ताकि सफेद मक्खी एवं एफिड नियंत्रण में रहें.
- रोपाई के लिए मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर उपयुक्त समय है.
- फसल की क्यारियों के किनारे ज्वार, बाजरा, मक्का या ढैंचा लगाने से एफिड के प्रसार को रोका जा सकता है.
- रोगग्रस्त पौधों को तुरंत उखाड़कर नष्ट कर दें.
- एफिड नियंत्रण हेतु इमीडाक्लोप्रीड (1 मिली/लीटर पानी) का छिड़काव करें.
- वार्षिक फसल चक्र अपनाकर रोग चक्र को तोड़ें.
- कार्बनिक पदार्थों से भरपूर मिट्टी में खेती करने से रोग की गंभीरता कम होती है.
- मृदा परीक्षण के आधार पर जिंक एवं बोरॉन की कमी को पूरा करें.
- नवजात पौधों के आसपास सिल्वर एवं काले रंग की प्लास्टिक मल्चिंग करने से एफिड नियंत्रित रहते हैं.
पपीते की उन्नत किस्में एवं उनकी उत्पादन क्षमता
- देशी किस्में: रांची, बारवानी, मधु बिंदु
- विदेशी किस्में: सोलो, सनराइज, सिन्टा, रेड लेडी
रेड लेडी: प्रति पौधा 70-80 किलोग्राम उपज.
पूसा नन्हा: सबसे बौनी प्रजाति, 30 सेमी ऊंचाई पर फल देना शुरू करती है.
बाजार मूल्य: ₹15-₹50 प्रति किलोग्राम, जिससे प्रति हेक्टेयर 3-3.5 लाख रुपये की संभावित आय.
अंतरफसली खेती से अतिरिक्त लाभ
पपीते के पौधों के बीच पर्याप्त जगह होती है, जिसमें छोटे आकार की सब्जियां उगाकर अतिरिक्त आय प्राप्त की जा सकती है. प्याज, पालक, मेथी, मटर, और बीन जैसी फसलें इसके साथ उगाई जा सकती हैं, जिससे किसानों की आय में वृद्धि होती है.
महत्वपूर्ण सावधानियां
- तीन वर्षों तक एक ही खेत में दोबारा पपीते की खेती न करें.
- अत्यधिक पानी से बचाव करें, जलभराव से पौधों की मृत्यु हो सकती है.
- कीट एवं रोग प्रबंधन हेतु समय-समय पर अनुशंसित उपाय अपनाएं.