देश के किसान धान की बुवाई की तैयारी कर रहे हैं. ऐसे में आज हम किसानों को ब्लू ग्रीन एल्गी (शैवाल) (Blue Green Algae) के बारे में जानकारी देने वाले हैं. इसकी मदद से कम लागत में ज्यादा उपज प्राप्त की जा सकती है. यह एल्गी पाउडर के रूप में उपलब्ध होता है, जिसे कंपोस्ट या मिट्टी में मिलाकर पानी में छिड़क दें. खासतौर इसका इस्तेमाल उन फसलों के लिए होता है, जिनमें ज्यादा पानी की जरूरत होती है.
कृषि मंत्रालय ने कहा है कि पिछले साल अच्छी बारिश हुई है. इस वजह से जमीन में नमी मौजूद है. यह खरीफ फसलों के लिए बेहतर है. इस बार देश के जलाशयों में लगभग 21 प्रतिशत से अधिक जल भरा है, इसलिए उम्मीद है कि इस बार देश में बंपर कृषि उपज होगी. ऐसे में जो किसान खरीफ फसलों की खेती करने वाले हैं, उन्हें ब्लू ग्रीन एल्गी (शैवाल) (Blue Green Algae) का इस्तेमाल कर सकते हैं.
क्या होती है ब्लू ग्रीन एल्गी (शैवाल) (Blue Green Algae)
इसका का इस्तेमाल यूरिया की खपत को कम करता है. यह एक बायो फर्टिलाइजर (Bio Fertilizer) है, जो कि पर्यावरण में मौजूद नाइट्रोजन को अपने में फिक्स करके पौधों को दे देता है. खास बात यह है कि इसे आप आर्गेनिक फार्मिंग (Organic farming) के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
कम करें यूरिया का इस्तेमाल
याद रखना होगा कि ब्लू ग्रीन एल्गी (Blue Green Algae) यूरिया का पूरा नहीं बल्कि आंशिक विकल्प ही है. अगर आप खेत में यूरिया के चार बैग की जरूरत है, तो तीन ही खरीदें. एक की जगह एक किलो एल्गी का इस्तेमाल करें. नेशनल सेंटर फॉर ब्लू ग्रीन एल्गी की मानें, तो हवा में 78 फीसदी नाइट्रोजन मौजूद रहता है, तो वहीं दूसरी ओर 100 किलो यूरिया में 46 प्रतिशत ही नाइट्रोजन आता है. उसमें से भी कुछ हवा में उड़ जाता है, इसलिए किसानों के लिए ब्लू ग्रीन एल्गी एक अच्छा विकल्प है. इससे लाभ यह है कि एल्गी मिट्टी की क्वालिटी सुधारता है, जबकि यूरिया मिट्टी की क्वालिटी खराब करता है.
ब्लू ग्रीन एल्गी (शैवाल) को कैसे इस्तेमाल करते हैं?
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यह एल्गी पाउडर के रूप में उपलब्ध होता है.
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इसे कंपोस्ट या मिट्टी में मिलाकर पानी में छिड़कते हैं.
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खासतौर पर उन फसलों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है, जिनमें ज्यादा पानी की जरूरत होती है.
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इसे धान के खेत में रोपाई के 2 से 3 दिन बाद डाल सकते हैं.
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अगर खेत में पानी रहेगा, तो इसका अच्छा परिणाम मिलेगा.
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अगर धान उगाने वाले आधे क्षेत्र में ब्लू ग्रीन एल्गी का इस्तेमाल किया जाए, तो 1 मिलियन टन रासायनिक नाइट्रोजन की बचत हो सकती है.
बढ़ रही है यूरिया की खपत
भारत कृषि क्षेत्र पर आत्मनिर्भर है. इसे और सशक्त बनाने के लिए साल 1965-66 में हरित क्रांति लाई गई थी. इसके बाद यूरिया का इस्तेमाल शुरू किया गया. साल 1980 में सिर्फ 60 लाख टन यूरिया की खपत थी, लेकिन साल 2017 में इसकी मांग बढ़ गई, जो कि लगभग 3 करोड़ टन तक जा पहुंच चुकी है. देश के पीएम मोदी कम यूरिया का इस्तेमाल करने के लिए लगातार अपील कर रहे हैं. इसके बावजूद 2018-19 में 320.20 लाख टन की बिक्री हुई, तो वहीं जबकि 2019-20 में 336.97 लाख टन की खपत दर्ज की गई.
इंडियन नाइट्रोजन ग्रुप की रिपोर्ट की मानें, तो भारत में नाइट्रोजन प्रदूषण का मुख्य स्रोत कृषि है. पिछले 5 दशक में किसान ने औसतन 6 हजार किलो से अधिक यूरिया का इस्तेमाल किया है. बता दें कि यूरिया का लगभग 33 प्रतिशत इस्तेमाल चावल और गेहूं की फसलों में किया जाता होता है. बाकी 67 प्रतिशत मिट्टी, पानी और पर्यावरण में पहुंचकर नुकसान पहुंचाता है. ऐसे में पर्यावरण विशेषज्ञों का मानना है कि जब मिट्टी में नाइट्रोजन युक्त यूरिया की बहुत अधिक मात्रा घुल जाती है, तो उसकी कार्बन मात्रा कम हो जाती है.