गेहूं रबी की प्रमुख खाद्यान फसल है. देश में प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्यों की बात करें, तो इसमें कई राज्य जैसे राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश शामिल हैं. बदलते मौसम, घटते भूजल स्तर एवं सीमित संसाधनों की दशा में खेती के परम्परागत तरीको से गेहूं का उत्पादन बढ़ाना संभव नहीं है.
ऐसे में किसान भाइयों को पैदावार बढ़ाने के लिये खेती को सजगता पूर्वक एवं सुनियोजित ढंग से करने की जरुरत है. इसके लिए उपलब्ध संसाधनो का समुचित उपयोग, नवीनतम तकनीकों का समावेश तथा सभी कृषि कार्यों को ठीक समय पर एवं सुचारू रूप से स्थापित करना आवश्यक है.
सही किस्म का चयनः-
गेहूं की बुवाई के लिये किस्म का चयन अपने क्षैत्र की भौगोलिक स्थिति एवं बुवाई के समय के आधार पर करना चाहिये. हमेशा प्रमाणित एवं स्वस्थ बीज का ही उपयोग करना चाहिये.
खेत की तैयारी एवं भूमी उपचार :-
खेत को अच्छी तरह से तैयार करना चाहिये. गेहूं की उत्पादकता बढ़ाने एवं भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने के लिये खेत में बुवाई से एक माह पूर्व प्रति हैक्टेयर 8 से 10 टन भली भांती सड़ी गोबर की खाद/कम्पोस्ट अथवा 2.5 से 3 टन केंचुआ खाद डालनी चाहिये.
दीमक के अधिक प्रकोप वाले खेतो में अन्तिम जुताई से पूर्व प्रति हैक्टेयर 25 कि.ग्रा क्यूनालफास 1.5 प्रतिशत चूर्ण भूमी में डालना चाहिये. सूत्रकृमि जनित मोल्या रोग प्रभावित क्षैत्रो में बुवाई से पूर्व प्रति हैक्टेयर 45 कि.ग्रा. कार्बोफयूरान 3 प्रतिशत कण भूमि में डालना चाहिये
उर्वरक का सही प्रयोग
समय रहते अपने खेत की मिट्टी एवं सिंचाई जल की जांच स्थानीय मिट्टी प्रयोगशाला सें अवश्य करा लेनी चाहिये. मिट्टी की जांच रिपोर्ट के आधार पर उर्वरकों की व्यवस्था करनी चाहिये. आवश्यकता से अधिक रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से खेती की लागत बढ़ती है तथा मृदा की उर्वरता भी नष्ट होती है. दूसरी ओर जरूरत से कम उर्वरकों के प्रयोग से उपज पर विपरीत असर पड़ता है.
सिंचित क्षेत्रों में नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय भूमि में बीज सें 2-3 से.मी. नीचे देना चाहिये. नत्रजन की शेष मात्रा को यूरिया के रूप में दो समान भागो में बांटकर पहली एवं दूसरी सिंचाई के तुरन्त बाद देना चाहिए. बारानी एवं पेटाकास्त में उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ही खेत में देना चाहिए. जस्ते की कमी वाले खेतो में प्रति हैक्टेयर 25 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट अथवा 10 कि.ग्रा. चिलेटड़ जिंक उर्वरको के साथ मिलाकर देना चाहिए.गंधक की कमी वाले क्षैत्रो में अन्तिम जुताई से पूर्व 200 कि.ग्रा. जिप्सम भूमी में समान रूप से बिखेर कर देना चाहिए
बुवाई का समय:
जब दिन रात का औसत तापक्रम 21-230 सेन्टीग्रेड हो जाता है. तब मैदानी क्षैत्रों में गेहूं की बुवाई का उपयुक्त समय होता है. आमतौर पर यह तापक्रम नवम्ंबर माह के दूसरे सप्ताह से हो जाता है.
समय पर बुवाई (सिंचित): 10 से 25 नवम्बर तक
देर से बुवाई (सिंचित) : 25 दिसम्बर तक
बीज की मात्रा एवं बीजोपचार:
हल्की एवं दोमट मिट्टी वाले क्षैत्रों में समय पर बुवाई के लिये प्रति हैक्टेयर 100 किलो एवं अन्य सभी दशाओं के लिये 125 किलो बीज काम में लेना चाहिए.
गेहूं की फसल को कवकजनित पत्ती कण्डवा एवं अनावृत कण्डवा रोगों से काफी नुकसान होता है. रोग की अनुकूल अवस्था में पत्ती कण्डवा रोग से गेहूं के उत्पादन में 40-80 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है. अनावृत कण्डवा रोग संक्रमित बीज तथा पत्ती कण्डवा रोग संक्रमित बीज एवं मृदा के माध्यम से लगता है. इन दोनों रोगो का उपचार केवल बीजोपचार से ही सम्भव है. बीजोपचार के लिये कवकनाशक रसायन टेबूकोनाजोल (रेक्सिल 2 डीएस) 1.25 ग्राम या कारबोक्सिन, (वीटावेक्स 75 डब्ल्यू पी) 2 ग्राम प्रति कि.ग्रा. बीज दर से प्रयोग में लेना चाहिये.
कवकनाशक उपचार के बाद दीमक नियंत्रण के लिये कीटनाशक उपचार 6 मि.ली. फिप्रोनिल 5 एस.सी. अथवा 1.5 ग्राम क्लोथियानिडिन 50 डब्ल्यू डी जी. दवा से प्रति किलो बीज दर से करना चाहिये.
अंतिम बीजोपचार एजोटोबेक्टर जीवाणु कल्चर से करना चाहिये. एक हैक्टेयर क्षेत्र के बीज के लिये तीन पैकेट कल्चर काम में लेना चाहिये. कल्चर से उपचारित बीजों को छाया में सुखाकर तुरन्त बुवाई करनी चाहिये.ध्यान रहे, बीजोपचार का यह काम बुवाई शुरू करने से केवल 2-3 घंटे पूर्व ही करनी चाहिये.
बुवाई की विधिः-
अच्छी तरह से तैयार खेत में बुवाई करते समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20-23 से.मी. एवं बीज की गहराई 5-6 से.मी. रखनी चाहिये.
सिंचाई प्रबन्धन :
खेती में सिंचाई जल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है. गेहूं की फसल में फव्वारा विधि से सिंचाई करने पर लगभग 40 प्रतिशत पानी की बचत होती है. इस पानी से 64 प्रतिशत अतिरिक्त भूमि में गेहूं की खेती की जा सकती है. इस विधि से सिंचाई कार्य की मजदूरी में भी 80 प्रतिशत तक कटौती हो जाती है. किसान भाईयों को ठीक समय पर फव्वारों की व्यवस्था कर लेनी चाहिये.
इसके साथ ही जहाँ आवश्यकता हो, वहां पुराने फव्वारों, सिंचाई नालिया, पाइप इत्यादि की समय रहते मरम्मत करवा लेनी चाहिये. जिससे सिंचाई के दौरान पानी व्यर्थ ना हो. वैसे गेहूं को हल्की मिटृटी में 6-8 एवं भारी मिटृटी में 4-6 सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. जल की उपलब्धता के आधार पर सिंचाई सदैव फसल की क्रान्तिक अवस्थाओं पर करनी चाहिए.