केला एक ऐसा फल है जो कि सेहत के लिए काफी लाभकारी होता है. यदि हम पोषक तत्वों की बात करें तो केले में कई तरह के भरपूर मात्रा में पोषक तत्व होते है. केले में कई तरह के विटामिन भी मौजूद होते है. इसमें विटमिन ए, विटामिन बी, सी, डी, आयरन, कैल्शियम, पौटेशियम आदि प्रचुर मात्रा में होते है. टिशू कल्चर केले की रोपाई पूरी वेर्ष भर की जा सकती है. जब भी टिशू कल्चर से पौधा तैयार होता है तो उसमें 8 से 9 महीने के बाद ही फूल आना शुरू हो जाते हैं.
इसके साथ ही एक साल के अंदर टिशू कल्चर केले की प्रजाति शुरू हो जाती है. जब भी टिशू कल्चर की तकनीक के जरिए केले की खेती को तैयार किया जाता है तब इसके फौधे 300 मीटर से अधिक लंबे होते है. इस किस्म से पौदा हुए ज्यादातर केले मुड़े हुए होते है. इससे तैयार केले की पौधे की फसल एक साल में तैयार हो जाती है.
कृषि जलवायु (Agricultural Climate)
केला एक तरह से एक प्रकार की उष्णकंटिबंधीय फसल है. ये 13 डिग्री से -38 डिग्री की रेंज में एवं 85 प्रतिशत की आद्रता में अच्छी तरह से बढ़ सकती है. ज्यादा ठंड के चलते नुकसान 12 डिग्री से गेरे से नीचे चला गया है. देश में ग्रेड नाइन जैसी उचित किस्मों के चयन के माध्यम से इस फसल की खेती को लेकर जलवायु में की जा रही है. अगर केले की फसल की समान्य बढ़ोतरी की बात करें तो यह 18 डिग्री सेल्सियस से शुरू होती है और 27 डिग्री सेल्सियस पर अधिकतम होती है. अगर यह खेती 38 डिग्री सेल्सियस पर पहुंच जाती है तो गिरकर रूक जाती है. जरूरत से ज्यादा धूप के चलते केले की फसल को नुकसान पहुंचता है और वह झुलस जाती है
मिट्टी (Soil)
केले की फसल के लिए मिट्टी में अच्छे से जल निकासी, उचित प्रजनन क्षमता और पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए. अगर केले की खेती के लिए मिट्टी की बात करें तो चिकनी गहरी मिट्टी इसके लिए ज्यादा पंसद की जाती है. खराब तरह से जल निकासी, वायु के अवगमन व अवरोध और पोषक तत्वों से कमी वाली मिट्टी केले की फसल के लिए ठीक नहीं होती है. अगर मिट्टी नमकीन होती है और कैल्शियम युक्त हो तो भी यह केले की खेती के लिए काफी अनुपयुक्त होते है. केले की लिए इस तरह की मिटटी हो जिसमें किसी भी रूप में अम्लीय व क्षरीयता ना हो और पोटेशियम,फास्फेरस आदि प्रचुर मात्रा में हो.
भूमि की तैयारी (Land preparation)
केले की फसल को रोपने से पहले हरी खाद की फसल उगाए और उसको आसानी से जमीन में गाड़ दें. इसके लिए जमीन को दो से तीन बार समतल जोत लेना चाहिए. इसके साथ ही पिंडो को तोड़ने के लिए रोटावेटर का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करें और मिट्टी को उचित ढाल दें. मिट्टी को तैयार करते समय एफ वाईएम की अच्छे से खुराक को डाल लें. इसके साथ ही जो भी गडढे किए है जो कि 45 वाई 45 के आकार के होते है. इन सभी गड्डढो को 10 किलो, 250 ग्राम खली एवं 20 ग्राम कॉर्बोफ्यूरॉन मिश्रित मिट्टी से पुनः भराव किया जाता है. जब ये गड्डे अच्छे से तैयार हो जाए तो इनको सौर विकिरण के लिए आसानी से छोड़ दिया जाता है. ये हानिकारक कीटों को आसानी से मारने में काफी ज्यादा मदद करता है ये मिट्टी जनित रोगो को दूर करने और मिटट् को वायु मिलने में असरकाराक होता है. क्षारीय मिट्टी में जहां पर पीएच 8 सेमी से ऊपर हो गड्ढे के मिश्रण संशोधन में कार्बनिक पदार्थों को आसानी से मिलाया जाना चाहे.
खाद व उर्वरक (Manures and Fertilizers)
बारिश का मौसम के शुरू होने के पहले ही जून के पहले महीने में खोदे गए गड्डे में खाद 8.15 किलोग्राम नाडेप कम्पोस्ट खाद, 150-200 ग्राम नीम की खली, 200 से 300 ग्राम तक सिंगल सुपर फास्फेट, 200 ग्राम नाइट्रोजन, 200 ग्राम डालकर मिटटी को भर दें. समय पर पहले से खोदे गए गड्डे में केले की पौध को लगाने का कार्य करना चाहिए.
रोपन साम्रगी (Planting Material)
टिशू कल्चर केले की रोपाई वैसे तो पूरे साल कभी भी की जा सकती है. इसके लिए ड्रिप सिंचाई एक बेहद ही महत्वपूर्ण तकनीक है. महाराष्ट्र में जब इसकी बुआई की जाती है तो रोपाई के महीने, जून-जुलाई और बाहर रोपाई के महीने अक्टूबर और नबंवर.
रोपाई का तरीका
केले के पौधे की जड़े को छेड़े बिना ही उसे पॉलीबैग से अलग कर दिया जाता है तथा उसके तने को भू स्तर से 2 सेमी नीचे रखते हुए पौधों को गड्ढों में आसानी से रोपा जा सकता है. कोशिश की जानी चाहिए कि 2 सेमी नीचे रखते हुए पौधों को गड्ढे में रोपा जाना चाहिए. कोशिश की जानी चाहिए कि गहरा रोपण ना हो.
जल प्रबंधन (Water management)
केला पानी के लिए बाहुल फसल है. अधिक समय तक उत्पादन करने के लिए पानी की बड़ी मात्रा में यह मांग करता है. केले की जड़े पानी खिचनें की मात्रा में कमजोर होती है. इसीलिए देश में ज्यादा से ज्यादा केले की फसल का उत्पादन करने के लिए अधिक पानी और ड्रिप सिंची की तकनीक का उपयोग किया जाना चाहिए. ड्रिप सिंचाई से इसकी फसल काफी बेहतर हो सकती है. ड्रिप सिंचाई के जरिए जल की अच्छी बचत होती है और साथ ही इससे फसल की 23-32 प्रतिसत की अच्छी पैदावार होती है. जरूरत से ज्यादा सिंचाई से छिद्रों से हवा निकल जाती है.
केले की खेती की नियमित रूप से निराई गुराई जरूरी है. कोशिश की जानी चाहिए कि पांच माह के बाद प्रत्येक दो माह में निदाई व गुराई के पश्चात मिट्टी को चढ़ाने का कार्य किया जाए. प्रत्येक गुड़ाई के पश्चात मिट्टी को चढ़ाने का कार्य किया जाता है. जब केले की धारियां गोल होने लगे और हल्की पीली होने लगे तब गुच्छे की कटाई को करना चाहिए. कोशिश की जाए कि केले का स्टॉक थओड़ा लंबा रखें ताकि इसको आसानी से संग्रह किया जा सकें.