केला पूरी दुनिया में सबसे लोकप्रिय ताजा फल है और इसका नाम अरबी शब्द ‘केला‘ से आया है, जिसका अर्थ है उंगली. केले का वैज्ञानिक नाम मूसा एक्यूमिनता और मूसा बाल्बिसियाना है, लेकिन केले के पुराने वैज्ञानिक नाम मुसा सैपिएंटम और मूसा पाराडिसिअका हैं. केले कार्बोहाइड्रेट और पोटेशियम का समृद्ध स्रोत हैं.
इसकी उच्च ऊर्जा क्षमता के कारण एथलीटों की यह पहली पसंद है. यह व्यापार और आय का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है. केला फल पोटेशियम में भी समृद्ध है और फाइबर का एक बड़ा स्रोत भी है.
हाल के वर्षों में, रसायनों के अंधाधुंध उपयोग के प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए, दुनिया भर में जैविक केले के उत्पादन की नई प्रवृत्ति को अपनाया गया है. इसके लिए एक नया नाम, यानी ‘‘ग्रीन फूड्स‘‘ गढ़ा गया है. इतिहास में पहली बार 600 ईसा पूर्व के बौद्ध ग्रंथों ने केले को अत्यधिक पोषक भोजन के रूप में उल्लेख किया है. केला दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण खाद्य फसलों में से एक है. भारत में, केले की फसल का सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी में 2.8 प्रतिशत है. यह किसानों के निर्वाह के लिए एक महत्वपूर्ण फसल है, और भोजन या आय के लिए वर्षभर सुरक्षा सुनिश्चित करता है. केला (मूसा प्रजाति) कुछ शुरुआती फसल वाले पौधे हैं जिन्हें मानव द्वारा अपनाया गया है.
लाखों लोगों के लिए है प्रमुख खाद्य फसल
केले का सेवन पके फल के रूप में किया जाता है, जबकि केले जो पूरी तरह से पके होने पर भी स्टार्चयुक्त रहते हैं, उन्हें स्वाद के लिए पकाने की आवश्यकता होती है. व्यावसायिक स्थिति के बावजूद, केले को ‘गरीब आदमी का सेब‘ कहा जाता है. उत्पादन के सकल मूल्य के मामले में, चावल, गेहूं और मक्का के बाद केला विश्व स्तर पर चैथे स्थान पर है. यह लाखों लोगों के लिए एक प्रमुख प्रधान खाद्य फसल है और साथ ही स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के माध्यम से आय प्रदान करता है. स्टार्ची प्रधान खाद्य फसलों में, केला कुल उत्पादन के मामले में तीसरे स्थान पर है. कम कीमत और उच्च पोषक मूल्य के कारण केला बहुत लोकप्रिय फल है. यह ताजा और पका हुआ दोनों रूप में पके और कच्चे फल दोनों के रूप में सेवन किया जाता है. केला कार्बोहाइड्रेट का एक समृद्ध स्रोत है और विटामिन विशेष रूप से विटामिन बी से समृद्ध है. यह पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्शियम और मैग्नीशियम का भी एक अच्छा स्रोत है. फल वसा और कोलेस्ट्रॉल से मुक्त, पचाने में आसान है. केले के पाउडर का इस्तेमाल पहले बच्चे के भोजन के रूप में किया जाता है. यह नियमित रूप से उपयोग किए जाने पर हृदय रोगों के जोखिम को कम करने में मदद करता है और उच्च रक्तचाप, गठिया, अल्सर, आंत्रशोथ और गुर्दे की बीमारियों से पीड़ित रोगियों के लिए अनुशंसित है. फलों से चिप्स, केला प्यूरी, जैम, जेली, जूस, वाइन और हलवा जैसे प्रोसेस्ड प्रोडक्ट बनाए जा सकते हैं. कोमल तना, जो पुष्पक्रम को सहन करता है, कटे हुए स्यूडोस्टेम के पत्ती को हटाकर सब्जी के रूप में उपयोग किया जाता है।
देश में केले का उत्पादन
केले का उत्पादन 135 देशों और क्षेत्रों में उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में किया जाता है. 2017-18 के दौरान, केले का विश्व स्तर 60.2 लाख हेक्टेयर था, जबकि विश्व उत्पादन 1253.4 लाख टन और उत्पादकता 20.8 टन ध् हेक्टेयर (थ्।व्ज्।ज्ए 2018) थी। भारत दुनिया में सबसे बड़ा केला उत्पादक है. 2017-18 के दौरान, भारत ने 8.6 लाख हेक्टेयर में से लगभग 304.7 लाख टन केले का उत्पादन किया. केले के पौधे एक भूमिगत तने से अलैंगिक रूप से प्रजनन करते हैं। और एक वर्ष से भी कम समय में फसल तैयार किया जा सकता है. केला एक बारहमासी फसल है जो जल्दी उगती है और पूरे साल इसे काटा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में मुख्य रूप से उगाई जाने वाली केले की किस्म ग्रैंड नाइन (ळ.9) है. उत्तर प्रदेश के प्रमुख क्षेत्रों में जहां केले की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, वे हैं सिद्धार्थनगर, बस्ती, संत कबीरनगर, महाराजगंज, कुशीनगर, फैजाबाद, बाराबंकी, सुल्तानपुर, लखनऊ, सीतापुर, कौशाम्बी, इलाहाबाद. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, गन्ना किसान भी केले की खेती के प्रति गहरी रुचि ले रहे हैं.
केले की खेती को बढ़ावा देने के लिए तकनीक
केले की खेती को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के लिए, ‘‘टिशू कल्चर तकनीक के माध्यम से रोग.मुक्त केला पौधों का उत्पादन व नर्सरी की स्थापना और किसानों के बीच कम लागत के पौधों के वितरण‘‘ नामक एक शोध परियोजना वर्तमान में कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश में डॉ0 आर. एस. सेंगर की देखरेख में चल रही है. यह अनुसंधान परियोजना डॉ0 रेणु स्वरूप, सचिव, डीबीटी, नई दिल्ली और डॉ0 शाहज यू0 अहमद, वैज्ञानिक “ई”, डीबीटी, नई दिल्ली की वित्तीय सहायता और सहायता के साथ चल रही है. इस अनुसंधान परियोजना के कार्यान्वयन से, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई किसान जागरूक हुए हैं और पत्रिकाओं और स्थानीय अखबारों में केले की खेती के बारे में पढ़कर और व्यक्तिगत बैठकों के माध्यम से या रोग.मुक्त केले के पौधों के उत्पादन पर प्रशिक्षण और प्रदर्शन के माध्यम से लाभान्वित हुए हैं.
यह भी अनुभव किया जाता है कि गन्ना किसान भी केले की खेती के प्रति अपनी रुचि दिखा रहे हैं. इस अनुसंधान परियोजना की निरंतरता की मदद से, कई किसानों ने अपने खेतों में केले की खेती शुरू की है. निकट भविष्य में यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अधिक से अधिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आय बढ़ाने और अपनी आजीविका को बनाए रखने के लिए केले की खेती को अपनाने में सक्षम होंगे.
मृदा
केला सभी प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है, परन्तु व्यवसायिक रूप से खेती करने हेतु अच्छे जल निकास वाली गहरी दोमट मिट्टी जिसका पी. एच. मान 6.5 से 7.5 के बीच हो, उपयुक्त रहती है. अधिक रेतीली मृदा जो पोषक तत्वों को अधिक देर तक रोकने में असमर्थ होती है एवं अधिक चिकनी मृदा जिसमें पानी की कमी के कारण दरारें पड़ जाती है, केले की खेती के लिए उपयुक्त नही होती है.
जलवायु
केला उष्ण जलवायु का पौधा है। यह गर्म एवं आर्द्र जलवायु में भरपूर उत्पादन देते है. केले की खेती के लिए 20-35 डिग्री सेल्सियस तापक्रम उपयुक्त रहता है. 500 से 2000 मिली मीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में इसकी खेती की जा सकती है. केला को पाला एवं शुष्क तेज हवाओं से नुकसान होता है.
किस्में
(1) ड्वार्फ कैवेन्डिस (एएए)- यह सबसे अधिक क्षेत्र में उगाई जाने वाली एक व्यवसायिक प्रजाति है। पौधे लगाने के बाद 250-260 दिनों के बाद फूल आना आरम्भ हो जाता है. फूल आने के बाद 110-115 दिनों के बाद घार काटने योग्य हो जाती है. इस प्रकार पौधे लगाने के कुल 12-13 माह बाद घार तैयार हो जाती है. फल का आकार 15-20 से.मी. लम्बा और 3.0-3.5 से.मी. मोटे पीले से हरे रंग के होते हैं. घार का भार 20-27 कि.ग्रा. तक होता है, जिसमें औसतन 130 फल होते हैं. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, परन्तु शीर्ष गुच्छा रोग के प्रति संवेदनषील होती है.
रोवस्टा (एएए)
इस किस्म के पौधे मध्यम ऊंचाई के होते हैं फल 12-13 माह में पककर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में 20-25 से.मी. लम्बे एवं 3-4 से.मी. मोटे होते हैं. घार का भार औसतन 25-30 कि.ग्रा. तक रहता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, एवं सिगाटोका रोग के प्रति संवेदनषील होती है.
रसथली (एएबी)
इस किस्म के फल आकार में बड़े तथा पकने पर सुनहरी पीले रंग के होते हैं. घार का भार 15-18 कि.ग्रा. तक होता है. फसल 13-15 माह में पककर तैयार हो जाती है. इस किस्म में फल फटने की समस्या आती है.
पूवन (एएबी)
यह दक्षिण एवं उततर-पूर्वी राज्यों में उगाई जाने वाली एक लोकप्रिय प्रजाति है. इसके पौधों की लम्बाई अधिक होने के कारण उन्हे सहारे की आवष्यकता नही होती है. पौधा लगाने के 12-14 माह बाद घार काटने योग्य हो जाती है. घार में मध्यम लम्बाई वाले फल सीधे ऊपर की दिषा में लगते हैं. फल पकने पर रंग में पीले तथा स्वाद में थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठे होते हैं. फलों की भण्ड़ारण क्षमता अच्छी होती है. इसलिए फल एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से भेजे जा सकते हैं. घार का औसत वजन 20-24 कि.ग्रा. तक होता है. यह प्रजाति पनामा रोग प्रतिरोधी है, एवं स्ट्रीक विषाणु रोग से प्रभावित होती है.
नेन्द्रेन (एएबी)
इस किस्म का उपयोग मुख्य रूप से चिप्स एवं पाउड़र बनाने के लिए किया जाता है। इसे सब्जी केला भी कहा जाता है. इसके फल लम्बे, मोटी छाल वाले थोड़े से मुड़े हुए होते हैं। फल पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं. घार का भार 8-12 कि.ग्रा. तक होता है। प्रत्येक घार में 30-35 फल होते हैं. इसकी खेती केरल एवं तमिलनाडु के कुछ भागों में की जाती है.
मॉन्थन (एएबी)
इस किस्म के पौधें ऊॅंचे एवं मजबूत होते हैं. घार का भार 18-20 कि.ग्रा. होता है. प्रति घार औसतन 60-70 फल होते हैं. यह किस्म पनामा उकटा रोग से प्रभावित होती है, किन्तु पत्ती धब्बा रोग एवं सूत्रकृमि रोग के प्रति सहिष्णु होती है.
ग्रेण्ड नाइन (एएए)
इस किस्म के पौधों की ऊॅंचाई मध्यम तथा उत्पादकता अधिक होती है. फसल की अवधि 11-12 माह की होती है. घार का भार 25-30 कि.ग्रा. होता है. सभी फल समान लम्बाई के होते हैं.
कपूराबलि (एबीबी)
इस किस्म के पौधों की वृद्वि काफी अच्छी होती है. घार का भार 25-35 कि.ग्रा. होता है. प्रति घार 10-12 हस्त एवं 200 फल लगते हैं. फलों में मिठास एवं पेक्टिन की मात्रा अन्य किस्मों की अपेक्षा अधिक पाई जाती है. फलों की भण्ड़ाराण क्षमता बहुत अच्छी होती है. यह किस्म पनामा मिल्ट रोग और तना छेदक कीट के प्रति संवेदनषील एवं पत्ती धब्बा रोग के प्रति सहिष्णु है. यह तमिलनाडु और केरल की एक महत्वपूर्ण किस्म है.
संकर किस्में
एच.1
इस किस्म के पौधे मध्यम ऊॅंचाई लिए होते हैं. घार का भार 14-16 कि.ग्रा. होता है. फल लम्बे एवं पकने पर सुनहरी पीले रंग के हो जाते हैं. फल थोड़ से अम्लीय प्रकृति के होते हैं. इस किस्म से तीन वर्ष के फसल चक्र में चार बार फसल ली जा सकती है.
एच. 2
इसके पौधे मध्यम ऊॅंचाई (2.13 मीटर से 2.44 मीटर) के होते हैं. फल छोटे, गसे हुए तथा गहरे हरे रंग के होते हैं. फल थोड़ा खट्टापन लिए हुए मीठी सुगन्ध वाले होते हैं.
को. 1
इसके फल में विषिष्ट अम्लीय, सेब सुगंध बीरूपक्षी केले की भांति होती है. यह किस्म अधिक ऊॅंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अधिक उपयुक्त है.
एफ. एच. आर.-1 (गोल्ड फिंगर)
यह किस्म पोम समूह से सम्बन्धित है. घार का वजन 18-20 कि.ग्रा. होता है. यह किस्म सिगाटोका एवं फ्यूजेरियम बिल्ट के प्रति अवरोधी होती है.
प्रवर्धन
केला का प्रवर्धन मुख्य रूप से अंत भूस्तारी द्वारा किया जाता है. केले के कन्द से दो प्रकार के सकर निकलते हैं. तलवार सकर एवं जलीय सकर व्यवसायिक दृष्टिकोण से तलवार सकर प्रवर्धन हेतु सबसे उपयुक्त होते हैं. तलवार सकर की पत्तियां तलवारनुमा पतली एवं ऊपर की ओर उठी रहती हैं. 0.5-1 मीटर ऊॅंचे तथा 3-4 माह पुराने तलवार सकर रोपण हेतु उपयुक्त होते हैं. सकर ऐसे पौधों से लेना चाहिए, जो ओजस्वी एवं परिपक्व हों और किसी प्रकार के रोग से ग्रसित न हों.
सूक्ष्म प्रर्वधन
वर्तमान समय में केला का प्रवर्धन शूट टोप कल्चर, इन विट्रो, ऊतक प्रवर्धन विधि से भी किया जा रहा है. इस विधि से तैयार पौधे मात्र वृक्ष के समान गुण धर्म एवं विषाणु रोग रहित होते हैं.
रोपण का समय
पौध रोपण का उपयुक्त समय जलवायु, प्रजाति के चयन एवं बाजार की मांग आदि कारकों पर निर्भर करता है. तमिलनाडु में ड्वार्फ कैवेन्डिष एवं नेन्द्रेन किस्मों को फरवरी से अप्रैल में जबकि पूवन एवं कपूरावली किस्मों को नवम्बर-दिसम्बर माह में रोपित किया जाता है. महाराष्ट्र में रोपण वर्ष में दो बार जून-जुलाई एवं सितम्बर-अक्टूबर में किया जाता है
रोपण पद्वति
खेत को दो-तीन बार कल्टीवेटर चलाकर समतल कर लें. पौध रोपण के लिए 60 ग 60 ग 60 से.मी. आकार के गडढ़े खोदें. प्रत्येक गडढ़े में मिट्टी, रेत एवं गोबर की खाद 1:1:1 के अनुपात में भरें. सकर को गडढ़े के बीच में रोपित कर उसके चारों ओर मिट्टी को अच्छी तरह से दबाएं. पौधों को लगाने की दूरी, किस्म, भूमि की उर्वराषक्ति, एवं प्रबन्धन पर निर्भर करती है. सामान्य रूप से केले के पौधों को लगाने की दूरी किस्मों के अनुसार नीचे सारणी में दर्षाई गई है-
तालिका-2
क्र0सं0 |
प्रजाति |
दूरी (मीटर) |
पौधों की संख्या (प्रति है0) |
1- |
ग्रेण्ड नाईन |
1.8 x 1.8 |
3.086 |
2- |
ड्वार्फ कैवेन्डिष |
1.5 x 1.5 |
4.444 |
3- |
रोवस्टा, नेन्द्रेन |
1.8 x 1.8 |
3.086 |
4- |
पूवन, मार्थन, कपूरावली |
2.1 x 2.1 |
2.268 |
सघन रोपण
सघन रोपण पद्वति आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. इस पद्वति में खरपतवारों की वृद्वि कम होती है तथा तेज हवाओं के कुप्रभाव से भी क्षति कम होती है. बोनी या मध्यम ऊंचाई वाली किस्मों जैसे कैवेण्डिष, बसराई तथा रोबस्टा आदि सघन रोपाई हेतु उपयुक्त होती हैं. रोबस्टा एवं ग्रेण्ड नाईन को 1.2 ग 1.2 मीटर की दूरी पर रोपण कर क्रमषः 68.98 एवं 94.07 टन प्रति हैक्टेयर की उपल प्राप्त होती है.
डॉ आर एस सेंगर एवं वर्षा रानी
कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी वि0 वि0, मेरठ, उ0. प्र0