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Updated on: 29 July, 2021 5:19 PM IST
Plant insects

कृषि में विशेषकर रोगों एवं कीड़ों से होने वाली हानि से बचाना आवश्यक है. कई उन्नत कृषि विधियां या कृषण क्रियाएँ हैं, जिन्हें अपनाकर फसल के विभिन्न रोगों की संख्या और उनके द्वारा होने वाली हानियों में कमी की जा सकती है. इन क्रियाओं का मुख्य उद्देश्य परपोषी पौधे की वृद्धि व अवस्थाओं में सुधार करना है, जिससे वह रोग कारक के प्रतिकूल हो जाएं. समन्वित कृषि विधियों को प्रयोग में लाकर रोग का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है.

फसल अवशेषों के मलबे का प्रबंध करना (Management of crop residue debris:)

अधिकांश संक्रमित फसल का मलबा खेत में ही पड़ा रहता है, जिससे आगे आने वाली फसल पर रोग और कीटों का प्रभाव हो जाता है. क्योंकि इन संक्रमित फसल अवशेष में रोगजनकों और कीटों के बीजाणु छिपे रहते हैं और फसल आने पर आक्रमण कर देते हैं. मक्का, ज्वार, मटर, बाजरा एवं अंगूर की मृदुरोमिल आसिता (Downey mildew), सरसों का श्वेत फफोला, धान्यों एवं बाजरा के गोंदिया रोगों को उत्पन्न करने वाले कवक ऐसे मुख्य उदाहरण हैं, जिनके बीजाणु खेत में छूटे रोगी फसल के मलबे में उत्तरजीवी रहते हैं.

इसी प्रकार टमाटर का अगेती अंगमारी (Early blight) रोग उत्पन्न करने वाला कवक आल्टरनेरिया भी फसल के मलबे में छिपा रहता है. आलू के अगेती एवं पछेती, अंगमारी, म्लानि रोगजनकों के उत्तरजीवी रहने का मुख्य स्त्रोत खेत में आलू की खुदाई के बाद छूटे हुए सड़े-गले कंद ही होते हैं. फसलों के मलबे को नष्ट करने की विभिन्न विधियाँ हैं, जिनमें से खेत में पड़े रोगी फसल के मलबे को जलाना एक प्रमुख विधि है. फसल की कटाई के बाद खेत की गहरी जुताई करके मलबे को मृदा में गहरे में दबा देना भी एक विधि है.

स्वस्थ व रोगरोधी बीजों का प्रयोग (Use of healthy and disease resistant seeds)

अनेक रोग जैसे- आलू का जीवाणु धब्बा (Bacterial spot) एवं म्लानि रोग (Wilt), अदरक का कंद गलन (Crown rot), गेहूं का कंडवा (Smut), केले का शीर्ष गुच्छा एवं पनामा रोग तथा अन्य फसलों में झुलसा, एवं तुलासिता जीवाणु झुलसा आदि रोग बीजों द्वारा फैलते हैं. इस कारण सदैव रोग मुक्त प्रमाणित व रोग रोधी किस्म का बीज बोना चाहिए और बोने से पहले अच्छी तरह से उचित रसायनों द्वारा उपचारित करना चाहिए.

बीजों का तापीय उपचार करना (heat treatment of seeds)

स्वस्थ बीज उत्पादन के लिए बीजों को भंडारण से पहले ऊष्मीय उपचार करना पादप रोग नियंत्रण का एक मुख्य भाग होता है. रोगजनक बीज के भीतर गहरे ऊतकों में छुपा होता है और साधारण कवकनाशी रोगजनक तक नहीं पहुँच सकते हैं.

रोपणी क्यारी का स्थान तथा उसका उपचार (Planting bed location and  itstreatment)

कुछ रोगों जैसे- पत्तागोभी का मूलगलन रोग, टमाटर का मूल गाँठ एवं नींबू का गोंदित रोग आदि संक्रमित रोपणी पौध या कलमों द्वारा ले जाया जाता है. रोपणी क्यारी के स्थान का चयन सावधानीपूर्वक करना चाहिए तथा इसे रोग ग्रस्त खेतों के समीप न रखकर दूर रखना चाहिए और समय-समय पर मृदा को रसायनों अथवा ऊष्मा द्वारा उपचारित करना चाहिए.

फसल-चक्र (Crop Rotation)

एक खेत में एक ही प्रकार की फसल बार-बार लेने से जहाँ किसी आवश्यक पोषक तत्व की मृदा में कमी और फसलों के लिए अन्य विषैले पदार्थ एकत्र हो जाते हैं, वहीं रोगग्राही परपोषी पौधों की मृदा में नियमित उपस्थिति के कारण मिट्टिजनित रोग के बीजाणु बहुत अधिक वृद्धि हो जाती है. अतः यदि इस खेत में तीन या चार वर्षों तक ऐसी फसलों को बोया जाएं, जिन पर रोगजनक का कोई प्रभाव न होता है, तो भूमि से रोगजनक के हटाने में सहायता मिल सकती है. 

पादप रोग प्रबंधन में परपोषी फसलों को अ-परपोषी फसलों के साथ हेर-फेर कर बोने की क्रिया ही फसल-चक्र कहलाती है. फसल-चक्र द्वारा उन रोगों की रोकथाम पूर्णतः संभव है, जिनके रोगजनक केवल जीवित पौधों पर उत्तरजीवित रहते हैं, परन्तु जिन रोगों के रोगजनक 5 वर्ष या इससे अधिक लंबी अवधि तक मृदा में मृतजीवी के रूप में रहते हैं, जैसे -फ्यूजेरियम, स्केलेरोशियम, राइजोक्टोनिया, मूल गाँठ सूत्रकृमि की जातियाँ इत्यादि, उनका फसल चक्र द्वारा पूर्ण प्रबंध करना कठिन होता है.

मिश्रित फसल (Mixed cultivation)

कुछ विशेष गुणों वाली किस्मों जैसे- गेहूँ-जौ, गेहूँ-चना, गेहूँ-सरसों, कपास-मोठ एवं अरहर-ज्वार इत्यादि को मिलाकर बोने से रोगों द्वारा होने वाली आर्थिक हानि कम हो जाती है, क्योंकि एक रोगजनक दोनों फसलों पर आक्रमण करने में सक्षम नहीं होता. अगर एक फसल नष्ट भी हो जाती है, तो दूसरी फसल बच जाती है. उदाहरणः अरहर को ज्वार के साथ मिलाकर बोने से ज्वार की जड़ों से निकले निःस्त्राव में हाइड्रोसायनिक अम्ल होता है जो अरहर का म्लानि रोग उत्पन्न करने वाले कवक फ्यूजेरियम पर विषैला प्रभाव डालता है. कपास को मोठ के साथ मिलाकर बोने से कपास के मूल विगलन रोग में कमी हो जाती है क्योंकि मोठबीन द्वारा उत्पन्न छाया के प्रभाव से मृदा तापक्रम में कमी व आर्द्रता में वृद्धि हो जाती है. यह अवस्थाएँ रोग के रोगजनक राइजोक्टोनिया तथा मेक्रोफोमिना की आक्रमकता के प्रतिकूल है.

पौध दूरी (Plant distance)  

फसल में पौध से पौध की उचित दूरी न होने या अधिक घनापन होने से फसल में आर्द्रता बढ़ जाती है, तापक्रम में कमी हो जाती है तथा वायु व प्रकाश की उपलब्धता में भी कमी हो जाती है. यह अवस्थाएँ अनेक रोगजनकों की वृद्धि में सहायक होती है. उदाहरणः आलू की पछेती अंगमारी, अंगूर का मृदुरोमिल आसिता, धान का पर्णच्छद झुलसा व बीजांकुरों का आर्द्रपतन रोग पौधों के बीच में अन्तराल कम होने से शीघ्रता से फैलते हैं.

बीज बोने की गहराई (Seed sowing depth )

बोने की भिन्न-भिन्न गहराई भी परपोषी को रोगजनक के आक्रमण से बचा सकती है. बीज की उथली बुवाई पौधे के आर्द्रपतन रोग को कम करने की एक प्रभावी विधि है. बीज को अधिक गहराई में बोने से रोगजनक को बीज व पौध पर आक्रमण करने का ज्यादा समय मिल जाता है. जैसे- जौ का धारी रोग एवं गेहूं का ध्वजकंड को 2-3 से.मी. गहरा बोने से रोग कम होता है जबकि बीज को 4-5 से.मी. गहरा बोने से रोग अधिकतम होता है. ठीक इसके विपरीत चने को गहराई में बोने से एस्कोकाइटा झुलसा रोग कवक का संक्रमण बहुत कम होता है.

फसल पोषण का प्रबन्धन (Crop nutrition management)

पौधों के पोषण में असंतुलित अनुपात में उर्वरक देने से पौधों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है. क्योंकि एक तत्व की अधिकता से दूसरे तत्व की कमी हो जाती है.

मृदा सुधारक पदार्थ का उपयोग (Use of Soil Improvers)

पौधों को पोषण प्रदान करने के लिए कम्पोस्ट खाद, हरी खाद तथा जैव सुधारक पदार्थ जैसे- खलियाँ आदि पदार्थों के प्रयोग किया जाता है, जिससे पोषक तत्वों के साथ मिट्टी की संरचना भी सुधारी जा सकती है और मृदा की जलधारिता क्षमता एवं उर्वरता बढ़ जाती है.

रोगग्रस्त पौधे निकालना (remove diseased plants)

रोग ग्रसित पौधे को समय-समय पर उखाड़कर बाहर निकालना रोग प्रबन्धन का एक मुख्य उपाय है. ऐसा करने से रोगजनक रोगग्रस्त पौधों से स्वस्थ पौधों तक नहीं पहुँच पाता है जिससे अन्य पौधे रोगग्रस्त नहीं हो पाते हैं. ऐसा विशेष रूप से विषाणुजनित रोगों के प्रबन्धन में किया जाता है. इससे रोगग्रसित पौधों की संख्या में भी अत्याधिक कमी आती है, परिणामस्वरूप अगली फसल स्वस्थ्य आती है. सभी विषाणुजनित रोग, गेहूँ का अनावृत कंडवा, गन्ने का लाल सड़न, फसल पौधों का उकठा या म्लानि, बाजरे का हरित बाली रोग आदि के प्रबन्धन के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपाय है.

रोग वाहक कीटों और खरपतवारों का प्रबन्ध (Management of disease vector insects and weeds)

विषाणु रोग जनकों के रोग वाहक कीटों की सख्ंया को नियंत्रित रखना चाहिए, क्योंकि ये रोगवाहक कीट अन्य खेतों या क्षेत्रों से रोगजनक के निवेशद्रव्य को फसल पौधों तक लाते हैं व इन पौधों को संक्रमित करते हैं. ऐसे खेतों में कीटनाशकों का प्रयोग निश्चित अन्तराल पर किया जाना लाभकारी होता है.

इसी प्रकार खरपतवार मुक्त खेत रखने से रोगों व कीटों के बीजाणु के पनपने के लिए कोई जगह नहीं होगी, तो कीट व रोगों पर नियंत्रण रखा जा सकता है. गन्ने के लाल तथा मृदुरोमिल आसिता के रोगजनक के लिए कांस घास परपोषी होता है. भिण्डी का पीत-शिरा मोजेक विषाणु जंगली परपोषी हिबिस्कस पर निरन्तर जीवित बना रहता है. सब्जियों के जड़गाँठ सूत्रकृमि तथा तम्बाकू मोजेक विषाणु सोलेनेसी कुल के अनेक खरपतवारों पर जीवित बने रहते हैं.

English Summary: How to prevent plant diseases by agricultural activities
Published on: 29 July 2021, 05:25 PM IST

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