रबी का मौसम चल रहा है जिसमें किसान दलहनी फसलों की खेती करते हैं. इन्हीं दलहनी फसलों में से एक प्रमुख फसल है चना. हमारे देश में चने की खेती सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में की जाती है. आज भी हमारे देश में चने या अन्य फसल परंपरागत तरीके से ही की जाती है. इस वजह से किसानों को चने की खेती से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है. यदि चने की खेती के लिए वैज्ञानिक तरीके आजमाए जाए तो इससे लाभ लिया जा सकता है. तो आइए जानते हैं चने की अच्छी पैदावार के लिए चने की फसल का प्रबंधन वैज्ञानिक तरीके से कैसे करें.
चने की खेती के लिए पूर्व प्रबंधन (Pre-management for gram farming)
मध्य प्रदेश के हरदा जिले के प्रोग्रेसिव फॉर्मर संतोष पटेल का कहना है कि चने की अच्छी पैदावार के लिए बेड पद्धति से इसे लगाना चाहिए. इससे न सिर्फ पैदावार में इजाफा होता है बल्कि चने की गुणवत्ता भी बेहतर होती है. वहीं बेड पद्धति अपनाने से चने का बीज भी कम लगता है. एक बेड पर चने की तीन लाइनें लगाई जाती है. वहीं एक बेड से दूसरे बेड की दूरी पांच फीट रखी जाती है. चने को मजदूरों से बेड पर तीन लाइनों में लगवाया जाता है. लाइन से लाइन की दूरी 12 इंच और पौधे से पौधे की 4 इंच रखी जाती है. परंपरागत तरीके से चने की खेती करने वाले किसान 80 से एक क्विंटल बीज प्रति एकड़ में बोते हैं, लेकिन बेड पद्धति से चने की बुवाई की जाती है तो एकड़ में सिर्फ 25 से 30 किलो बीज लगता है. इस तरह 50 से 60 किलो चने की बचत बुवाई में हो जाती है.
चने की खेती के लिए सिंचाई प्रबंधन (Irrigation management for gram farming)
उनका कहना है कि चने की खेती में टपक सिंचाई पद्धति अपनाना चाहिए. इससे पानी भी कम लगता है, वही सिंचाई करने में भी आसानी होती है. सिंचाई की सीमित व्यवस्था होने के बाद भी इस पद्धति से चने की फसल में 4 से 5 बार पानी आसानी से दिया जा सकता है. सामान्य विधि से पानी देने पर एक बार से दूसरी बार देने पर चना खराब होने लगता है.
चने की खेती के लिए मावठा से बचाव (Avoiding mawatha for cultivation of gram)
संतोष ने बताया कि यदि चने की बुवाई के लिए बेड पद्धति तथा सिंचाई के लिए ड्रिप पद्धति ही अपनाना चाहिए. इन पद्धतियों को अपनाकर चने की अच्छी पैदावार ली जा सकती है. इस मौसम में चने की फसल में मावठा पड़ने की ज्यादा संभावना रहती है. बेड पद्धति का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि मावठा गिरने पर चने की फसल ख़राब नहीं होती है. दरअसल, इस पद्धति को अपनाने से जल की निकासी आसानी से हो जाती है. इससे फसल को कोई नुकसान नहीं होता है.
चने की खेती के लिए खाद प्रबंधन (Manure management for gram farming)
सिंचाई के लिए ड्रिप पद्धति अपनाने से खाद एवं उर्वरक को समान मात्रा में पौधे को दिया जा सकता है. वही पोषक तत्व सीधे पौधे को मिलते हैं. वही इस पद्धति को अपनाने से चना जलने की समस्या बेहद कम आती है. 50 से 60 दिन में चने का पौधा बड़ा हो जाता है. पर्याप्त दूरी के कारण पौधे को पर्याप्त खाद पानी मिलता है इसलिए पौधा अच्छा विकास करता है. यही वजह है कि उत्पादन भी अधिक से अधिक होता है. संतोष का कहना है कि वे बुवाई के समय खाद नहीं डालते हैं, बल्कि 12 से 15 दिन की फसल पर 3 किलोग्राम नाइट्रोजन, पोटाश दो किलो ग्राम 2 किलोग्राम मोनोअमोनियम फास्फेट प्रति एकड़ के हिसाब से देते हैं. वही 25 दिन की फसल पर 5 किलोग्राम नाइट्रोजन डालते हैं तथा 55 दिन की फसल पर 10 किलोग्राम पोटाश प्रति एकड़ के हिसाब से दिया जाता है.
चने की खेती के लिए पाला प्रबंधन(Frost management for gram farming)
चने में पाला पड़ने की सबसे बड़ी समस्या है इससे फसल को ज्यादा नुकसान होता है. इसलिए चने में हल्की सिंचाई कर देते हैं. जिस कारण से पाले से नुकसान न के बराबर होता है. पानी जाने से पाला पड़ने की संभावना बिल्कुल नहीं रहती है. इस वजह से फल भी ज्यादा लगता है. उत्पादन सामान्य पद्धति की तुलना में दोगुना मिलता है. 10 से 12 दिन में सामान्य विधि से चना बोने पर बाहर निकलता है लेकिन बेड पद्धति में चना इतने ही दिनों में 4 से 6 इंच का हो जाता है.
चने की खेती के लिए भाजी तुड़ाई (Harvesting vegetables for gram cultivation)
संतोष ने बताया कि वे चने की भाजी तुड़ाई करवाते हैं जिससे पौधे में ब्रांचिंग ज्यादा होगी. जिससे उत्पादन भी ज्यादा मिलेगा. 15 दिन का चना होने पर भाजी तुड़ाई की जाती है. वहीं लोग एक महीने का चना होने पर भाजी तुड़ाते हैं. बेड पद्धति अपनाने से जहां बीज, खाद उर्वरक सभी का फायदा होता है. वही ड्रिप सिंचाई से पानी की बचत होती है और उत्पादन अधिक होता है. इसके अलावा चने का भाव भी अच्छा मिलता है.