भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ विभिन्न प्रकार की फसलें, फल, सब्जियां, बगान तथा औषधीय पौधों की खेती होती है। सफल एवं टिकाऊ खेती के लिए आवश्यक है कि फसलों से अधिकतम उत्पादन प्राप्त करते हुए भी भूमि को उर्वरक बनाये रखा जाए। वर्तमान के बदलते हुई परवेश में कृषक जहाँ भी खेती में लागत को बढ़ा रहे वहीं उसके अनुरूप उत्पादन का लाभ नहीं प्राप्त हो पा रहा है। उसके लिए लागत को नियंत्रित करना अति आवश्यक है। जैविक उर्वरक सरल प्रभावी और प्राकृतिक रूप से उपलब्ध एक सस्ता साधन है।
जिनके द्वारा हम भूमि की उर्वरकता को बनाये रख सकते है। जैविक उर्वरक जैविक तत्वों और सुक्ष्म जीवों की कोशिकाओं को किसी वाहक में मिलाकर बनाये जाते हैं, जिन्हें मृदा में व बीज के साथ मिला देने पर पौधों के लिए नत्रजन को भूमि में स्थिर करते हैं और अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में परिवर्तित करते हैं तथा भूमि में पड़े पादप और जीव अवशेषों के घट्न की प्रक्रिया को तीव्र करते हैं जिससे मृदा की उर्वरक शक्ति एवं उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
जैव उर्वरता के प्रकार: जैविक उर्वरक मुख्यता दो प्रकार के होते हैं :
1) नत्रजन स्थिर करने वाले जैविक उर्वरक :
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राइजोबियम जैव उर्वरक: यह उर्वरक फली दार फसलों में उत्पादकता बढाने के लिए प्रयोग किया जाता है। दलहनी फसलों की जड़ो में राइजोबियम नामक सुक्ष्म जीवाणु रहते हैं जो वायुमंडल की स्वंत्रत नत्रजन को स्थरीकरण करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं जिसके फलस्वरूप पौधों और जड़ो के विकास में वृद्धि होती है जैसे मटर, लोबिया, मूंग, चना आदि में करते हैं।
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एजोटोबैक्टर जैव उर्वरक: यह उर्वरक गैर दलहनी फसलों और सब्जियों में प्रयोग किया जाता है। इसके जीवाणु स्वंत्रत रूप से भूमि तथा पौधों की जड़ों के आस पास रहकर अपना भोजन कार्बनिक पदार्थ से लेते रहते हैं तथा बदले में वायुमंडलीय नत्रजन को भूमि में स्थिर करके पौधों को उपलब्ध कराते हैं। यह जीवाणु कुछ अम्लो जैसे जिब्रेलिक एसिड और इण्डोल एसिटिक एसिड आदि का निर्माण करते हैं जो पौधों के वृद्धि में सहायक होते हैं। इन उर्वरको का प्रयोग धान, मक्का, बैगन, और टमाटर आदि के लिए किया जाता है।
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एजोस्पईरिलम जैव उर्वरक: इसके जीवाणु जड़ों में गांठ नहीं बनाते किन्तु जड़ों के पास रहते हैं और पौधों को नत्रजन प्रदान करते हैं। इसका प्रयोग ज्वार, बाजरा, तथा सब्जी वाली फसलों में किया जाता है।
- नील हरित शैवाल जैव उर्वरक: नील हरित शैवाल भूमि में स्वतंत्र रूप से रहने वाले जीवाणु हैं जो अपना भोजन प्रकाश, जल, मुक्त नत्रजन और आवश्यक खनिज लवणों की उपलब्धता में बनाते हैं। यह मुख्यता जल के अधिक जल भराव वाले क्षेत्रो में अधिकता से पाये जाते हैं। कृषक स्वयं ही अपने खेतों में नील हरित शैवाल जैव उर्वरक को साधारण और कम खर्च में बना सकते हैं। इस उर्वरक का प्रयोग करने से धान की फसल के उपज में 15% तक की वृद्धि देखी गयी है।
2) सल्फर को क्रियाशील करने वाले जैविक खाद:
सल्फर घोलक जीवाणु खाद: कुछ जीवाणु अपनी वृद्धि के समय आर्गेनिक अम्लो को मृदा में स्त्रावित करके मृदा में उपस्थित अघुलनशील व अनुपलब्ध फस्पोरस व अन्य खनिजो को घुलनशील बनाकर पौधों को उपलब्ध कराते हैं और यही जीवाणु पी.एस. बी. कहलाते हैं।
जैव उर्वरकों से लाभ:
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यह उर्वरक सस्ते और प्रभावी होते हैं।
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रासायनिक उर्वरको के तुलना में कम लागत पर पौधों को पोषक तत्व प्रदान करते हैं।
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पर्यावरण के दृष्टि में सुरक्षित रसायन रहित एवं प्रकृति के पूरक होते हैं।
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मिट्टी में फ़ैलने वाले रोगों के रोकथाम व नियंत्रण में सहायक होते हैं।
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इसके प्रयोग से उत्पादकता में औसतन 10-20% की वृद्धि होती हैं।
जैविक उर्वरक की उपयोग करने की विधि :
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बीज उपचार विधि: जीवाणु कल्चर प्रयोग के यह सर्वोत्तम विधि है। इस विधि में आधा लीटर पानी में 80 ग्राम चीनी गुड़ मिलाकर घोल बनाने के बाद इसे ठंडा किया जाता हैं फिर इस घोल में जीवाणु कल्चर 200 ग्राम की मात्रा मिलाकर मिश्रण तैयार कर लेते हैं। यह मिश्रण 10 किलो ग्राम बीज उपचार के लिए उपयुक्त हैं। इस मिश्रण को बीज के ऊपर छिड़क कर साफ़ हाथो से धीरे-धीरे मिलाते हैं, इसके बाद बीजों को छायादार स्थान पर सुखाते हैं और उसके बाद बुआई कर देते हैं। इसके प्रयोग से बीजों के अंकुरण शीघ्र और जड़ों का विकास अच्छा होता है।
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मृदा उपचार विधि: 5–6 किलो ग्राम जीवाणु कल्चर को 50 – 60 ग्राम/ किलो ग्राम भुरभुरी मिटटी में मिला देते हैं और इसको आखिरी जुताई या पहली सिंचाई के समय सामान रूप से खेत में छिड़क देते हैं। इससे जीवाणु की संख्या में वृद्धि के साथ- साथ मृदा की संरचना में सुधार व उर्वरकता में वृद्धि होती हैं।
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पौध जड़ उपचार विधि: यह उन फसलों के लिए उपयुक्त हैं जहा बीज के स्थान पर छोटे छोटे पौधों की रोपाई की जाती हैं जैसे धान तथा सब्जी वाली फसलें जैसे टमाटर, प्याज आदि। इसको बनाने के लिए 10-12 लीटर पानी में उर्वरक का घोल बनाकर पौधों की जड़ों में 30 मिनट तक डूबने के बाद रोपाई कर देते हैं। इससे पौधों को तत्काल लाभ होते हैं।
जैव उर्वरकों का प्रयोग करते समय ध्यान देने योग्य बातें:
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जीवाणु कल्चर का प्रयोग उत्पादक द्वारा निर्धारित तिथि से पहले करें।
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कल्चर को हमेशा हलके हाथों से मिलाने चाहिए जिससे बीज के छिलके अलग न हों।
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उपचारित बीज को सूर्य की सीधी रोशनी से दूर ठंडे स्थानों पर रखना चाहिए।
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प्रत्येक फसल के लिए उसका विशिस्ट कल्चर ही इस्तेमाल करना चाहिए।
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यदि बीजों को फफूंदीनाशक से उपचारित करना है तो उसका प्रयोग पहले ही कर लें. इसके बाद जैव उर्वरक से बीज उपचार करें।
जैव उर्वरक का प्रयोग करके वायुमंडलीय नत्रजन के स्थरीकरण द्वारा नत्रजन के मात्रा की पूर्ति की जा सकती हैं तथा रासायनिक उर्वरको की निर्भरता को कम किया जा सकता हैं, जिसके द्वारा स्थाई मृदा उर्वरकता प्राप्त कर फसलों से कम लागत पर अच्छी पैदावार की जा सकती हैं।
प्रकृति चौहान1, सौरभ सिंह2, ज्योति3, श्रद्धा सिंह2
1बीज विज्ञान विभाग, 2फसल कार्यकी विभाग
आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या (उत्तर प्रदेश) भारत
3स्कूल ऑफ़ एग्रीकल्चर साइंस, आई. आई. एम. टी., मेरठ (उत्तर प्रदेश) भारत