आज भारत विश्व की आर्थिक शक्ति बनने की बात कर रहा है. देश में परिवर्तन की लहर दौड़ रही है. नए-नए उद्योग स्थापित हो रहे हैं. नईं-नईं तकनीकें बाज़ार में आ गई हैं. परंतु कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसे हम नज़रअंदाज़ कर रहे हैं और वह है कृषि, खेती और किसानी.
हम आज इस कदर अंधे हो गए हैं कि न तो हमें अपने अत्याचार नज़र आ रहे हैं और न ही उन लोगों के जो देश को आहिस्ते से खोखला कर रहे हैं. उनकी नीतियां और भूख इतनी विनाशकारी है कि भारत को आगे चलकर इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे.
जब हम देश की राजनितिक पार्टियों की बात करते हैं और कहते हैं कि ये पार्टियां सत्ता की मदद से देश के उद्योगपतियों को फायदा पहंचाती हैं तो हम भूल जाते हैं कि ये कोई एक दिन या कुछ महिनों से नहीं हो रहा. यह एक सिस्टम बन चुका है. पहले ये दल इन उद्योगपतियों से चुनाव में मोटा पैसा लेते हैं और बाद में सत्ता मिल जाने पर देश के कोने-कोने में इन्हें मनचाही ज़मीन देते हैं जिसपर ये अपने उद्योग और घर बनाते हैं. देश का दुर्भाग्य है कि आज राजनीति में असामाजिक तत्व घुस आए हैं जिनको जनता के सरोकार से कोई मतलब नहीं. यह सब पार्टियां अपना उल्लू सीधा करने की जुगत में लगी हुई हैं. सबका एक ही एजेंडा है - पैसा से सत्ता और सत्ता से पैसा.
एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि आज देश की आधी से ज्यादा ज़मीन गिनती के 6-7 लोगों के पास जमा है, फिर भी नेता चुप है, मीडिया चुप है, बड़े-बड़े संस्थान चुप हैं, जानते हैं क्यों ? क्योंकि - न बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया.
किसानों में भी दो दो धड़े हैं. एक तरफ वो किसान हैं जो आज की तारीख में इतने संपन्न हो गए हैं कि वो चुनाव लड़ रहे हैं क्योंकि अब वो किसान नहीं रहे, सिर्फ किसानी का चोगा औड़ा हुआ है. असल में आज आत्महत्या करने वाला किसान, परेशान और लाचार किसान वह है, जिसके पास खुद की भी ज़मीन नहीं है. वह दूसरे की ज़मीन में खेती करता है और दिहाड़ी के हिसाब से पैसा पाता है. वो भला क्या लोन लेगा और उस तक भला सरकार की कौन सी सब्सिडी और योजना पहुंचेगी. असल में आज भारत का किसान वही है.
किसानों की ज़मीने हड़प करते-करते भी उद्योगपतियों की भूख नहीं थम रही. अब सवाल पैदा यह होता है कि आखिर किया क्या जाए ?
मैं इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा हूं, अगर आपके पास इसका समाधान है तो टिप्पणी करके बताएं. हमें आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा.