दक्षिणी राजस्थान के बांसवाड़ा जिला अंतर्गत आने वाले ग्राम पंचायत चिकली तेजा में स्थित ग्राम चिकली बादरा की जनजातीय समुदाय की महिला सीमांत किसान पुष्पा देवी पारगी एक उत्साही महिला किसान हैं. इस जन जातीय समुदाय पीढ़ियों से इनके परिवार की आजीविका का प्रमुख स्रोत खेती है और पुष्पा देवी के पास की 3 बीगा वर्षा आधारित खेती है, परन्तु वर्षा के अनिमितता के कारण और पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नहीं होने की वजह से इनके 6 सदस्यीय परिवार का भरण-पोषण संभव नहीं था. पहले ये मात्र एक फसल मक्का की ही ले पाती थीं, क्योंकि 3 बीगा खेत से प्राप्त उपज से इनके परिवार की खाद्य आपूर्ति मात्र 3-4 महीने ही हो पाती थी. शेष के लिए इनकी निर्भरता गांव व आस-पास खेतिहर मजदूरी तथा पति के पलायन पर इनकी निर्भरता होती थी.
जनजातीय सीमांत समुदाय के किसानों की आजीविका सृजित कर और टिकाऊ विकास, महिला सशक्तिकरण, स्वराज, सामुदायिक विकास जैसे मुद्दों पर काम करने वाली वागधारा वर्ष सस्थान ने वर्ष 2018 फरवरी में महिला सक्षम समूह गठित कर उनकी विकास में हेतु समुदाय के साथ काम करना प्रारम्भ किया. इसी क्रम में आनंदपुरी तहसील के ग्राम में गांव की समस्याओं को समझने हेतु सर्वप्रथम वाग्धारा संस्था के सामुदायिक सहजकर्ता ललिता मकवाना ने सक्षम महिला समूह के साथ निरंतर बैठकें कर उनके सामने आने वाली खेती सम्बन्धित चुनौतियों के बारे में जानकारी करने का प्रयास किया जिसमें निकल कर आया कि गांव के 80-85 को प्रतिशत किसान सिर्फ एक ही वर्षा आधारित फसल में ही खेती कर पाते थे. साथ ही रसायनिक उर्वरकों के अधिक उपयोग से खेती पर लगने वाली लागत भी अधिक लगती थी.
10 से 15 दिनों में तैयार हो जाती है मटका खाद
अपने विभिन्न गतिविधियों के साथ वागधारा के सहजकर्ताओं ने गांव में हर माह की मासिक बैठक में जल, जंगल, जमीन, जानवर, बीज, हमारे खेती के लिए क्यू जरूरी है और जैविक खेती की आवश्यकता के बारे में जानकारी देकर और किसानों से सम्बन्धित समस्याओं एवं उनके समाधान पर चर्चा कर जैविक खेती करने हेतु समुदाय को प्रेरित किया जाता है. वागधारा के कार्यों को जानने के लिए उत्सुक पुष्पा देवी पारगी ने इन मासिक सक्षम महिला समूह की बैठक में प्रतिभागिता करनी प्रारम्भ कर दी. जहां पर उन्हें जैविक खेती करने के गुर सीखे और खेती के लिए खाद की आवश्यकता पड़ने पर यूरिया के स्थान घर पर बने मटका खाद का उपयोग किया जिसे उन्होंने संस्था द्वारा सिखाया गया था. स्थानीय संसाधनों- गाय का गोबर, नीम, धतूर, गुड ,करंज आदि की पत्तियों से बनाये गये मटका खाद के तैयार होने की अवधि 10 से 15 दिनों की होती है. पुष्पा देवी ने जैविक खाद का उपयोग कर 2 बीघा में 10 क्विंटल मक्का की उपज प्राप्त की, जबकि रासायनिक खाद के उपयोग से मात्र 7 क्विंटल ही उपज मिलती थी.
पुष्पा देवी का कहना है ‘‘मैंने 20 लीटर के बड़े मटके में गाय का गोबर, नीम, धतूर आदि की पत्तियों के साथ लहसुन कुचल कर डाल दिया. 15 दिनों बाद मैंने मक्का के खेत में उसका प्रयोग किया जिससे हमारी फसल में कल्ले ज्यादा निकले और खेत हरा-भरा रहा और नमी भी ठीक दिखाई दी.’’ इसके साथ ही उन्होंने मटका खाद का उपयोग कर यूरिया खाद में लगने वाले रु 3400.00 की भी बचत कर ली और मटका खाद अपनी घर की जैविक पोषण वाटिका में उपयोग कर जैविक सब्जियां अपने परिवार को उपलब्ध करवाई. साथ ही खेत की उर्वरा शक्ति भी बरकरार रही.
ये भी पढ़ें: मुर्गी पालन और सब्जी व्यवसाय से सालाना लाखों कमा रहा है ये किसान, ग्रामीण युवाओं के लिए बना मिसाल
मटका खाद के उपयोग से उपज में हुई बढ़ोतरी
पुष्पा देवी ने प्रसन्न होते हुए बताया की खेती पर मेरा लागत खर्चा कम हुआ है जो पहले रासायनिक यूरिया खाद के उपयोग से बढ़ा था ‘‘मटका खाद के उपयोग से मेरी उपज में बढ़ोतरी हुई है यह देखते हुए गांव के अन्य बहुत से महिला किसान मटका खाद बनाने की ओर प्रवृत्त हुए और अपनी फसलों में इसका उपयोग कर रहे हैं.’’ पुष्पा देवी के प्रोत्साहन से गांव के लोग बड़ी मात्रा में मटका खाद बनाया.’’
पुष्पा देवी के प्रयासों की सफलता को देखकर आस-पास के गांवों के किसान भी उनसे मटका खाद बनाने की विधि पूछने लगे हैं और वह अन्य जगह में जाकर मटका खाद एवं उससे होने वाले लाभों के प्रति अपने अनुभवों को साझा करती हुई उन्हें रसायनिक उर्वरकों के उपयोग से बचने तथा मटका खाद का उपयोग करने हेतु प्रेरित कर रही हैं. उनका सफर अभी जारी है.