"मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की... कभी ग़ालिब ने यह शेर शायद अपने दिल के दर्द के लिए कहा था, पर आज यह भारत के चिकित्सा तंत्र पर इतना सटीक बैठता है कि मानो उन्होंने आज का मेडिकल सिस्टम देखकर ही यह कहा हो. 1 जुलाई को जब देश विश्व चिकित्सक दिवस मनाता है, तब यह दिन एक ओर उन ईश्वरतुल्य चिकित्सकों को नमन करने का अवसर है जिन्होंने मानवता की सेवा में अपना जीवन होम कर दिया, वहीं दूसरी ओर यह दिन आत्ममंथन का भी है कि कैसे इस धरती पर भगवान का रूप माना जाने वाला डॉक्टर, आज ‘धरती के यमराज’ में बदलता जा रहा है.
चिकित्सा या व्यवसाय? : इलाज कम, इनवॉइस ज्यादा, आज एक डॉक्टर के हाथ में स्टेथोस्कोप से ज्यादा भारी होता है — उसका मेडिकल कॉलेज का लोन. पढ़ाई के नाम पर 50 लाख से 1 करोड़ तक की लूट, फिर उस लोन का बोझ उतारने के लिए एक निजी अस्पताल में मोटी फीस वाला कंसल्टिंग, जरा सी खांसी हो और MRI, CT Scan, 5 तरह के ब्लड टेस्ट और 10 हजार की दवा — यही आज की इलाज की परिभाषा बन चुकी है.
अब मरीज नहीं, ‘रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट’ (ROI) है. कोरोना और चिकित्सा व्यापार की खुली किताब कोरोना काल ने सिर्फ फेफड़ों को नहीं, मानवता के मुखौटे को भी नोंचकर फेंक दिया.
एक-एक इंजेक्शन 1 लाख में,
ऑक्सीजन सिलेंडर की बोली,
श्मशानों तक में दलाली...
और सबसे बड़ा व्यापार डर का!
एक वायरस ने करोड़ों कमाए, अस्पतालों की ईमारतें चमक उठीं और इंसान की लाश भी तब तक नहीं सौंपी गई जब तक जेब नहीं ढीली हुई. कुछ डॉक्टरों ने वाकई जान की बाजी लगाई, पर बाजारू डॉक्टरों की संख्या कम नहीं थी.
“डॉक्टर साहब अब भगवान नहीं, ब्रांड एंबेसडर हैं — दवाइयों के, स्कैनिंग मशीनों के और अपनी क्लिनिक की EMI के.”
डॉक्टर बने देवता या देवता बने डॉक्टर? हमारे पौराणिक ग्रंथों में तो देवताओं के भी डॉक्टर थे, अश्विनी कुमार, जिन्हें आयुर्वेद का प्रथम आचार्य माना गया. समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरि अमृत और औषधियों का कलश लेकर प्रकट हुए — मानव कल्याण हेतु. पर क्या यह सब सिर्फ कथा बनकर रह गई?
आज डॉक्टरों के लिए औषधि नहीं, फार्मा कंपनियों की स्कीमें प्राथमिकता हैं. हर गोली पर कमीशन, हर पैथोलॉजी टेस्ट पर हिस्सा, हर मरीज एक बिलिंग यूनिट बन गया है.
चिकित्सा का पहला अध्याय तो आदिवासी जंगलों में लिखा गया था... ध्यान देने की बात है कि भारत का प्रथम चिकित्सक न धन्वंतरि है और न हिप्पोक्रेटस बल्कि वे आदिवासी वैद्य हैं जिन्होंने जंगलों की वनौषधियों से हजारों सालों से रोगों का इलाज किया. बस्तर, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा की गांडा- जनजाति आज भी असाध्य रोगों के इलाज के लिए प्रसिद्ध हैं.
मैंने स्वयं ऐसे अद्भुत वैद्यों को देखा है जो हड्डी, त्वचा,सिबलिंग, किडनी , लीवर, हार्ट, सुगर तथा कैंसर जैसी बीमारियों में जड़ी-बूटियों से कारगर उपचार करते हैं , बिना किसी कमीशन, बिना किसी लूट के, प्रायः लगभग निशुल्क. बचपन से डॉक्टर बनने का फितूर और फिर समाज की पूंजी पर ROI कभी किसी प्राइमरी मिडिल स्कूल की क्लास में जाकर पूरी क्लास के बच्चों को खड़े करके बारी-बारी से पूछेगा आप क्या बनेंगे आप पाएंगे 30% बच्चे डॉक्टर बनना चाहते हैं यानी हर तीसरा बच्चा डॉक्टर बनना चाहता है. इसके पीछे यह भी कारण है कि घरों में बच्चों की पढ़ाई शुरू होते ही उसे कहा जाने लगता है “बेटा डॉक्टर बनना है!”
डॉक्टर बनने का यह सपना इतना महंगा है कि पूरा परिवार घर, ज़मीन, ज़ेवर, कर्ज तक गिरवी रख देता है. जब डॉक्टर साहब बनते हैं तो वे और उनका परिवार ऋण से दबे होते हैं . अब वह शपथ जिसमें वे मरीज को भगवान समझते हैं, वह कहां याद रह पाएगी जब हर मरीज उन्हें एक नोटों का पेड़ नजर आता है?
“शपथ नहीं सुनाई देती, जब कर्ज की किस्तों की गूंज डॉक्टर के कानों में हो.” दवा कंपनियों की दलाली का जानलेवा खेल, और डॉक्टर साहब की ‘कमीशन थैरेपी’ : दवा कंपनियों के प्रतिनिधि डॉक्टरों के पास इलाज बताने नहीं, लाभ का प्रस्ताव लेकर आते हैं.
डॉक्टर साहब को हर गोली, हर इंजेक्शन, हर रिपोर्ट से हिस्सा मिलता है . दरअसल मरीज की बीमारी से नहीं, उसकी जेब से सरोकार होता है. “बीमारी की जड़ में वायरस नहीं, व्यापार है!”
ठोस आंकड़े जो चौंकाते है:
भारत अपने GDP का केवल 1.28% स्वास्थ्य पर खर्च करता है जबकि WHO की अनुशंसा है 5% से अधिक. भारत में हर साल 62% परिवार स्वास्थ्य व्यय से आर्थिक संकट में आते हैं.
- भारत का 74% चिकित्सा क्षेत्र निजी हाथों में है.
- औसतन एक डॉक्टर 5 ब्रांडेड दवाएं एक साथ लिखता है, जिनमें 3 गैरज़रूरी होती हैं.
- 2022 में WHO रिपोर्ट अनुसार, भारत में ओवर-डायग्नोसिस और ओवर-ट्रीटमेंट के चलते 14% मौतें अप्रत्यक्ष रूप से हुईं.
लासेंट ग्लोबल हेल्थ रिपोर्ट -2018 (Lancet Global Health Report -2018) के अनुसार: भारत में हर साल लगभग 16 लाख (1.6 मिलियन) लोग ऐसे कारणों से मरते हैं जिनकी रोकथाम संभव थी, यदि समय पर सही इलाज या सही दवा मिल जाती.
समाधान की राह : बहुत कठिन है डगर पनघट की समस्या बड़ी विकट है.
प्रश्न यह नहीं कि रोगी मरा या बचा,
प्रश्न यह भी नहीं कि किसने ऑपरेशन किया और किसने ‘कमीशन’ काटा,
प्रश्न यह है कि क्या शपथ के नाम पर शुरू हुआ यह पेशा, अब शव के व्यापार में बदल चुका है?
जब डॉक्टर रोगी की नब्ज नहीं, फार्मा कंपनियों के प्रॉफिट-ग्राफ पर हाथ रखे खड़े हों, जब मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव ‘संजीवनी’ नहीं, सेल्स टार्गेट की पर्ची लिए खड़े हों—
तब इलाज ‘कृपा’ नहीं, सौदा बन जाता है. जिसने जीवन देने की शपथ ली थी, अगर वही अब लाभ की लाश पर खड़ा हो, तो फिर यमराज को क्यों दोष दें? और अब यमराज नहीं आते... क्योंकि, आजकल मृत्यु भी प्रिस्क्राइब होती है. हालांकि सभी डॉक्टर ऐसे नहीं होते, आज भी कई डॉक्टर उच्च नैतिक मानदंडों का कड़ाई से पालन करते हैं और ये डाक्टर सचमुच धरती के जिंदा भगवान या फरिश्ते होते हैं. दरअसल डॉक्टर बुरा नहीं होता, पर व्यवस्था में जब “सेवा” से ज्यादा “सेल्स” का महत्व हो तो भगवान की मूर्ति भी पत्थर हो जाती है. आज की ज़रूरत है कि चिकित्सा को फिर से 'सेवा' बनाएं , जड़ी-बूटियों की ओर लौटें, आदिवासी चिकित्सा की ओर झुकें, नये शोध हों, चिकित्सा शिक्षा सस्ती हो, और डॉक्टर फिर से देवता कहलाएं , मार्केटिंग एजेंट नहीं!