इस बात को समझने के लिए हमें कुछ साल पीछे चलना होगा. साल 1942 में एक नारे ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं. उस वक्त अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी सुभाष चंद्र बोस ने "दिल्ली चलो" का नारा दिया था. वह यह जान गए थे कि छिटपुट प्रदर्शन करने से काम नहीं चलने वाला है. अंग्रेजी हुकूमत को मात देने के लिए उनके दरवाजे पर दस्तक देना होगा. कुछ इसी तरह का कदम अब किसान उठा रहे हैं.
कृषि कानून 2020 के खिलाफ किसानों ने राज्य में खूब प्रदर्शन किया, लेकिन वहां कोई उन्हें सुनने वाला नहीं था. उनके मन में कहीं न कहीं यह बात जरूर रही होगी कि जब कानून प्रधानमंत्री मोदी ने बनाए हैं, तो क्यों न अपनी बात उनकी ही कानों तक पहुंचाई जाए. इसके लिए किसानों ने हारकर दिल्ली कूच कर दिया. हालांकि उन्हें क्या पता था कि दिल्ली बॉर्डर पर पुलिस उनके साथ अंग्रेजों जैसा बर्ताव करेगी और उनपर लाठियां बरसाएगी.
इस बात से समझा जा सकता है कि भाजपा के नेता हर छोटी से बड़ी चीज के लिए प्रधानमंत्री को श्रेय देते हैं. चाहे पंचायत चुनाव में भाजपा की जीत ही क्यों न हो. 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में किसानों का एक बड़ा तबका ऐसा है, जिसने मोदी पर भरोसा जताया. यहीं कारण है कि किसान अपनी बात विधायक या सांसद को न बताकर सीधे प्रधानमंत्री को ही बताना चाहते हैं. इसीलिए कृषि कानून के खिलाफ किसान दिल्ली बॉर्डर पर डटे हैं.
किसानों की कोई सुनने वाला नहीं
इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि जब कृषि कानून 2020 के खिलाफ किसान अपने-अपने चौक-चौराहों पर प्रदर्शन कर रहे थे. तब उन्हें सुनने वाला कोई नहीं था. मीडिया को भी एक वक्त के लिए ऐसा नहीं लगा होगा कि किसानों का आंदोलन इतना बड़ा हो जाएगा. साथ ही मीडिया ने उनकी समस्याओं को प्रमुखता से नहीं लिया. यह भी एक कारण है कि किसानों को दिल्ली के बॉर्डर पर कड़ाके की ठंड में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन करना पड़ रहा है. हालांकि उनकी मांगों को लेकर तब भी सुनवाई नहीं हुई थी और आज भी नहीं हो रही है.
किसानों की मांग क्या है?
किसानों की मांग है एमएसपी पर कानून बनाया जाए. साथ ही एमएसपी से नीचे फसल खरीदने वालों पर कानूनी कार्रवाई का प्रावधान हो. इसके अलावा उनकी यह भी मांग है कि तीनों कृषि कानून को रद्द की जाए. हाल के दिनों में देखा गया है कि सरकार कोई भी विधेयक संसद से पास करवा ले रही है, जबकि विधेयक लाने से पहले आम जनता को भी इसके बारे में जानकारी होनी चाहिए. उन्हें भी सही गलत को तय करने का मौका देना चाहिए. अगर सरकार किसानों से कृषि कानून को लेकर पहले सुझाव मांगती, फिर उसमें से अच्छे चीजों को लेकर कानून में डालती, तो शायद इतना बड़ा आंदोलन आज देखने को नहीं मिलता.