अमरूद की मिठास के लिए मशहूर बदायूं के बीजरहित खीरे की धमक दिल्ली तक पहुंच गई है. इस प्रयास के पीछे हैं गोपेश शर्मा, जिन्होंने गुजरात मॉडल के पॉली हाउस में संरक्षित खेती की शुरुआत की. मेहनत, लगन व तकनीक से आज वह प्रति एकड़ हर दूसरे दिन सात से नौ क्विंटल तक खीरा पैदाकर बाजार में बेच रहे हैं.
दिल्ली की मंडी में अच्छी कीमत मिल रही है, कई बड़े शहरों में भी निर्यात कर रहे हैं. परिवार से जुड़े लोगों के साथ ही ग्रामीणों को भी रोजगार मुहैया करा रहे हैं. संरक्षित खेती की शुरुआत कर जिले में आधुनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए गोपेश शर्मा को डीएम दिनेश कुमार सिंह सम्मानित कर चुके हैं.
बरेली हाईवे पर बिनावर से आगे बढ़ते ही बरखेड़ा गांव के बाहर बरातघरनुमा एक खेत पन्नी से पूरी तरह ढका हुआ दिखाई पड़ता है. यही गोपेश शर्मा का पॉलीहाउस है. पीडब्ल्यूडी में इंजीनियर रहे गोपेश शर्मा ने सेवानिवृत्ति के बाद खेती में कुछ अलग करने की ठानी. इंटरनेट पर आधुनिक खेती की तलाश करते रहे, जिसमें उन्हें संरक्षित खेती का यह तरीका पसंद आया.
उद्यान विभाग से संपर्क किया तो पता चला कि इस तरह की खेती पर सरकार 50 फीसद अनुदान भी दे रही है. इसके बाद उन्होंने देर नहीं की, गुजरात की एक कंपनी से संपर्क साधकर पॉलीहाउस तैयार करा लिया. कंपनी ने ही जर्मनी में शोधित खीरे का बीज उपलब्ध कराया और स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई की व्यवस्था भी करा दी.
एक एकड़ की परिधि में दो पॉलीहाउस तैयार कराने में करीब 35 से 40 लाख रुपये का खर्च आता है. इसमें पचास फीसद अनुदान सरकारी मिल जाने से राह आसान हो गई. काम बड़ा था, अकेले करना मुश्किल था, इसलिए उन्होंने अपने भांजे विशाल कुमार शर्मा और कृषि विशेषज्ञ हरिओम सिंह को साथ जोड़ लिया और पॉलीहाउस में खीरा की खेती शुरू कर दी.
चंद महीनों में देखते ही देखते खीरे की फसल तैयार हो गई. इसके बाद तो हर दूसरे दिन बरेली व दिल्ली की मंडियों में बदायूं का खीरा पहुंचने लगा. एक एकड़ में चार से छह लाख तक की आमदनी हो रही है.
गांव के बेरोजगारों को मुहैया करा रहे रोजगार
गांव के बेरोजगार युवाओं को पॉलीहाउस में रोजगार भी मिल रहा है. फसल की देखरेख, सिंचाई और तुड़ाई में दर्जनभर से अधिक लोगों की जरूरत रहती है. गांव के युवाओं को आसानी से रोजगार मिल रहा है. साथ ही मार्केटिंग के लिए भी उन्होंने कई नौजवानों को साथ जोड़कर रोजगार दिया है.