यह एक कांटेदार झाड़ीनुमा होता है जिसकी कई शाखाएं होती है. इसकी ऊंचाई 0.3-1.5 मीटर के बीच होती है. पौधे के पत्ते गोल-अंडाकार होते है और वे बालों से ढके होते हैं. इसके पत्ते हरे रंग के, फूल नीले और बैंगनी रंग के और फल गोल और हरे रंग के सफेद धारीदार होते हैं. इसमें कई गुण है, इसलिए आयुर्वेद में इसका उपयोग औषधि के रुप में किया जाता है. आज आप हमारे इस लेख में बड़ी कटेरी के बारे में विस्तार से जान सकते हैं.
जलावयु और मिट्टी
यह ज्यादातर उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में उगती है. रेतीली चिकनी मिट्टी और छायादार जगहें इसकी उगाई के लिए अपयुक्त है. ऐसे क्षेत्र जहां पेड़ उगाये जाते है उनके बीच के स्थानों पर इसे उगाया जाए, तो इसकी पैदावार अच्छी होती है.
प्रजनन सामग्री
बीज व पौध
नर्सरी तकनीक
पौध तैयार करना
मई-जून में छायादार जगहों में ठीक से तैयार नर्सरी, क्यारियां (साइज 10x1 मीटर) बनाई जाता है.
जुलाई-अगस्त में 1-1 या 2 माह पुरानी पौध खेत में लगाई जाती है.
खेत में पौध लगाने की बजाय सीधे बीज भी बोया जा सकता है.
नर्सरी में क्यारियां तैयार करते समय उर्वरक व पॉल्ट्री खाद का प्रयोग किया जा सकता है.
बीज की आवश्यकता 4 किलो प्रति हेक्टेयर होती है.
खेतों में रोपण
भूमि तैयार करना और उर्वरक का प्रयोग:
भूमि की तैयारी वर्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही कर ली जाती है.
भूमि की जुताई ठीक से कर ली जाती है और उसमें सभी खरपतवार निकाल लिये जाते है.
खेत में नालियां बनाई जाती है ताकि पानी उनमें बाहर बह जाए औऱ एकत्र होकर फसल को बर्बाद न करें.
प्रत्योरोपण और पौधों के बीच अंतर
अच्छी तरह से तैयार की गई भूमि में बीजों को सीधे बो दिया जाता है.
ठीक से अंकुरण के लिए लगभग 20-30 दिनों का समय लगता है.
पौधों को लगाने के लिए उनमें 30X30 सेंटीमीटर का अंतर रखा जाता है और प्रति हेक्टेयर लगभग 111000 पौधे लगाये जाते है.
अंतर फसल प्रबंधन
पौधों की प्रजाति फलदार पेड़ों के बीच भी उगाई जा सकती है
संवर्धन विधियां
जब तक पौधे पूरी तरह से उग नहीं जाते, 20-20 दिनों के बाद उनके आस-पास की खरपतवार को निकालना आवश्यक होता है.
सिंचाई
फल आने की अवधि (नवंबर से फरवरी तक) के दौरन एक दिन छोड़कर नियमित रुप से सिंचाई करना आवश्यक होता है.
चूंकि यह प्रजाति हर मौसम में (सदाबहार) पायी जाती है, अत: गर्मियों में सिंचाई करना आवश्क है ताकि पौधे जीवित रहें.
फसल प्रबंधन
फसल पकना और उसे प्राप्त करना
फसल अप्रैल तक पक जाती है और इसे काटा जा सकता है. इस वक्त प्रजाति 9-10 माह की हो गई होती है.
यदि पौधों को अगले वर्ष भी खेत में रखा जाता है तो फसल को दोबारा भी प्राप्त किया जा सकता है.
फसल के बाद का प्रबंधन
अप्रैल और नई माह में फलों के तोड़ने व संग्रहण का समय होता है.
संग्रहीत फलों को छाया में सुखाकर ऐसे कन्टेनरों में बंद किया जाता है जिनमें हवा आती-जाती न हो.
जड़ों को हाथों से बाहर निकाला जाता है और साफ-ताजे पानी में साफ किया जाता है.
निकाली गई जड़ों को कुछ समय तक पहले धूप में और फिर 10 दिन तक छाया में सुखाया जाता है.
ठीक से सुखाई गई जड़ों को अब बैगों में भरा जाता है और ऐसे कंटेनरों में रखा जाता है जिनमें हवा अंदर बागर न जाती हो.
पैदावार
प्रति हेक्टेयर में लगभग 600 किलो फल और 300 किलो बीज ताजा फसल प्राप्ति (ईल्ड) हो जाती है.
यदि फसल को अगले वर्ष भी रखा जाता है, तो प्रति हेक्टेयर लगभग 20 क्विंटल सूखी जड़ें भी प्राप्त हो जाती है.