किसी की जिन्दगी कैसे बदलेगी ? दरअसल सब की जिन्दगी ठीक वैसी ही हैं जैसे पहले थी,सबकी जिन्दगी में वही दिन है, वही शाम और वही रातें है. हां, बस समय के साथ परिस्थितियां जरुर बदली है और इन परिस्थितीयों की वज़ह से थोड़ी व्यस्तता सबकी जरूर बढ़ जाती है. मेरा मानना है सोच बदलने से नजरिया जरुर बदल जाता है. यदि सोच ना बदले तो हमारे अन्दर नये विचारों का आना- जाना नहीं होगा फिर किसी ने सही ही कहा है नजर बदल कर तो देखों नजारे खुद ब खुद बदल जायेंगे.
ये दुनियां उतनी बुरी भी नहीं है, जितना हम सोच लेते हैं
जितना हम ये सोच लेते हैं कि "ये दुनियां बहुत बुरी है" हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है. दुनियां तो वही जो हम देखते हैं. जैसे नयी जगहों पर जाने से बेशक हम कुछ नई चीज देखेंगें और हो सकता है कुछ नई चीज को अपने अन्दर आत्मसात भी करेंगें, इस क्रिया से संभवत हमारे विचार में बदलवा आयेगा ही. जब हम किसी चीज को जितनी बारीकी से देखते हैं उसे उतनी ही खूबसूरती से चिंतन करते है. चाहे वो इन्सान का व्यक्तित्व हो या प्रकृति की बनाई कोई रचना सब में एक सकरात्मकता होती है. बस जरुरत होती है सोच बदलने की. इसके उदाहरण के लिये मेरे पास दो ऐसे पात्र हैं जिनको में काफ़ी समय से अपनी पैनी नजरों से देख रहा हूँ शायद ये उदारहण सटीक होगा जिन्दगी और सोच को लेकर. एक हमारे मित्र है जिसके पास अथाह धन है किसी चीज की कोई कमी नहीं है फिर भी वो काफी अपनी जिन्दगी से परेशान रहता है वज़ह उसे बचपन से ही उसके दिमाग में ये बात बैठा दी गई है कि तुम सेठ के बेटे हो तुम्हे काम खोजने या नौकरी करने की कोई जरूरत नहीं है. भगवान का दिया हुआ सब कुछ है. जैसे- जैसे उसकी उम्र बढ़ती गई उसे संपत्ति समझ में आती गईं. वो हमेशा ये समझता गया कि हमारे पुरखों का इतना सब कुछ है, और वो इतनी बड़ी विरासत का मालिक है.
बच्चों को सामाजिक बनाएं ना कि स्वार्थी
वो काफी मौज़ में अपनी जिन्दगी जीता रहा. उसके ठाठ- बाट भी रईसों वाला ही बन जाता है, पर साहब धन- दौलत सामाजिक व्यवहारिकता कहां सिखाती हैं. जब वो बाजार में निकलता है तो काम करते हुए मजदूर, छोटे व्यापारी,रिक्शा चालक, को वो ये समझता है कि ऐसे- ऐसे लोग तो मेरे घर के नौकर-चाकर हैं , इनसे क्या बात करनी है. यहां तक किसी गरीब-लाचार को देख कर उसके दिमाग़ में ये बात आती है कि ये सब दिखावा करते है , इनके पास कोई दुःख-तक़लीफ़ नहीं हैं. उसकी इस सोच की वज़ह से उसके व्यवहार में मधुरता खत्म होती चली जाती है. और धीरे- धीरे वो शारीरिक और मानसिक रुप से कमजोर होता चला जाता है. उम्र कहां भला रुकती है उसके घर वाले भी उसे नकारा ही समझने लगते है उन्हें लागता है कि यदि इसे कोई काम दिया जाये तो उसे वो डूबा ही देगा या फिर उसका मन नहीं लगेगा. एक समय के बाद वो खुद को ही किसी काम के काबिल नहीं समझता . उसके अन्दर से हिम्मत नहीं होती की वो कोई काम करें. उसकी जिन्दगी बस खाओ- पीयो और सो जाओ. किसी भी इंसान के जीवन में उतार-चढ़ाव होता रहता है. किसी की ना तो उम्र स्थिर रहती है और ना ही संपत्ति. जब छोटा बच्चा बड़ा होने लगता है तो उसकी जरूरत भी बढ़ने लगती है और सम्भवत: घर वाले उसकी आवश्कताओं पर अंकुश लगाते ही है और मेरा ऐसा भी मानना है कि हर एक बच्चा जब तक वो अपने पैर पर खड़ा नहीं हो जाता वो बहुत सारी चीजों में अपने घर वालों के आगे बच्चा ही रहता है. इस बात को यदि बारीकी से समझे तो किसी भी बच्चे के दिमाग में ये बात नहीं ड़ालनी चाहिये कि उसके पास इतनी सम्पत्ति है कि उसे काम-धंधा करने की जरूरत नहीं है.
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दूसरा उदाहरण में भी एक मेरा दोस्त ही हैं भगवान की दया से उसके पास भी किसी चीज की कोई कमी नहीं है पर उसके पिता उसे खून- पसीने की कमाई का कहानी अक्सर सुनाते रहते कि उन्होनें किस तरह से अपने बिजनेस में घाटा सहा है,कितना धोखा खाया है,कैसे इधर-उधर भटक कर अपने छोटे से बिजनेस को इतना बड़ा किया है.अपने संघर्ष की पूरी कहानी सुनाते। दुनियां कैसी है ये उसे बताते ,क्या सही है क्या गलत है वो उसको समझाते हैं. इसके दिल और दिमाग में कुछ अच्छा करने की चाह है. इस उदाहरण से यही समझा जा सकता कि हर अभिभावक को अपने बच्चें के दिमाग में किसी संपति के मालिक बनने की नहीं बल्कि संधर्ष की बात बतानी चाहिये .