फसल उत्पादन तकनीकी के साथ-साथ देश की बंजर भूमि की क्षमता बढ़ाना व अच्छी भूमि को बंजर होने से बचाना, कृषि उत्पादन बढ़ाने में अहम भूमिका रखता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहां सूखा व बाढ़ के कारण खाद्यान्न की कमी हो जाती है तो वहीं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से खाद्य उत्पादन बढ़ाने में सहायता मिली है। मृदा एवं जल संरक्षण एवं विकास जहां एक तरफ फसलों या फलों की पैदावार बढ़ाता है वहीं दूसरी तरफ मृदा के खराब होने से बचाव भी हुआ है। जल, जमीन, जंगल और जानवरों का संरक्षण मानव के लिए हितकारी है। बंजर भूमि को विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग नामों से जाना जाता है। लगभग 72 लाख हेक्टर क्षेत्रफल प्रभावित है। आंकड़ों से यह भी पता लगता है कि लगभग 20 हजार हेक्टेयर जमीन प्रति वर्ष ऊसर (बंजर) में बदलती जा रही है। जिसे रोकने तथा ऐसी भूमि को वनीकरण द्वारा बचाये जाने की आवश्यकता है। फलों का उत्पादन करना इस तरह की भूमि में हर तरह से उपयुक्त है, फलों के उत्पादन से होने वाली अच्छी आमदनी के साथ-साथ जमीन का समुचित उपयोग हो जाता है। यदि ऐसी भूमियों में फलदार वृक्षों में उचित जल प्रबन्ध को अपनाया जाय तो पौधों में पैदावार तथा उनकी बढ़वार अच्छी होती है।
जमीन में फलदार पौधों के लिए उपलब्ध नमी फलों के गुण व उनकी खेती की सफलता को निर्धारित करता है। पानी के साथ पौधों को जीवित रखने वाले सारे तत्व घुलनशील दशा में पौधों को प्राप्त होते हैं। ऊसर तथा बंजर भूमि में कैल्शियम, मैगनीशियम तथा सोडियम के घुलनशील नमक क्लोराइड व सल्फेट के रूप में विद्यमान होते हैं। नमी पौधों की बढ़त में सहायक होती है। लवणों को पौधों की जड़ों से दूर रखती है। मिट्टी की पारगम्यता को बढ़ाती है। पौधों की जल मांग वहां की जलवायु मिट्टी, सिंचाई के तरीकों तथा प्रजाति आदि के कारण बदलती रहती है। बागवानी के लिए अपनाये जाने वाले कुछ प्रमुख फलदार वृक्षों के लिए जल प्रबन्ध निम्नलिखित रूप में अंकित हैं:
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अमरूद- अमरूद के पौधों की शुरू में ८-१० सिंचाई प्रति वर्ष की आवश्यकता होती है। जब पौधे फल देने की स्थिति में आ जाते हैं तो अप्रैल से जून तक १०-१५ दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए।
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अंगूर- यह एक सूखा अवरोधी फल है। 1 प्रथम फूल आने तक कुल आवश्यक जल के २८ जल की आवश्यकता पड़ती है। पूनिंग के पहले अंगूर की फसल में २ से ३ दिन के अन्तराल पर हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए। फूल के आने के बाद से फलों के पकने तक इसे लगातार जल की आवश्यकता होती है। स्प्रिंकलर विधि द्वारा सिंचाई करना अंगूर के लिए लाभप्रद है।
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आंवला- बंजर भूमि में अच्छी फल देने वाला यह अनोखा वृक्ष है। ड्रिप विधि द्वारा सिंचाई करने से आंवले में अच्छे फल आते हैं. तथा उनकी गुणवत्ता में सर्वाधिक वृद्धि पायी गयी है। तीन दिनों के अन्तराल पर सिंचाई करना उत्तम है।
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आम- यह शीतोष्ण जलवायु का फल है। वर्ष भर पानी की आवश्यकता बनी रहती है। दो साल तक के पौधों को पानी की आवश्यकता जल्दी-जल्दी होती है। पौधों में बौर (मंजरी) आने के २-३ महीने पहले सिंचाई बंद कर देनी चाहिए। आम के बाग में ड्रिप सिंचाई विधि द्वारा सिंचाई करके पानी को बचाया जा सकता है। इससे जल की बचत के साथ-साथ अच्छी सिंचाई क्षमता प्राप्त होती है। फलों की गुणवत्ता भी अच्छी प्राप्त होती है।
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केला- पूरे फसल के जीवन तक सिंचाई करके नमी बनाये रखना बहुत आवश्यक होता है। यदि इसमें कमी की जाती है तो पौधों की बढ़त व फसल में कमी आ जाती है। केले के लगते समय पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है। गर्मियों में ७-८ दिन के अन्तराल पर तथा सर्दियों में १५-१६ दिन के अन्तराल पर सिंचाई कर देनी चाहिए। लवणीय भूमि में १२०-१३० मि.मी. जल पूर्ति केले के लिए उचित पायी गयी है।
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पपीता- पपीते की जड़ जमीन में अधिक गहरी नहीं जाती है। इसमें हल्की तथा जल्दी-जल्दी सिंचाई करने की आवश्यकता पड़ती है। जलग्रस्त वाले क्षेत्रों में इसकी बागवानी नहीं की जा सकती है। शुरू में एक सप्ताह के भीतर पौधों की सिंचाई कर देनी चाहिए, परन्तु जब पौधा पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है तो १० दिन के अन्तराल पर सिंचाई कर देनी चाहिए। लवण प्रभावित भूमि में प्रत्येक सिंचाई पिछले सप्ताह के वाष्पन की लगभग दुगुनी करनी चाहिए।
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बेर- यह शुष्क क्षेत्रीय फल है। उचित जल प्रबन्ध द्वारा पैदावार तथा इसके फल के आकार दोनों में अच्छी वृद्धि होती है। बेर में नवम्बर से फरवरी तक सिंचाई करनी चाहिए जिससे फल एवं उसकी गुणवत्ता दोनों में बढ़ोत्तरी होती है। ड्रिप विधि द्वारा बेर में सिंचाई अन्य विधियों की तुलना में सर्वोत्तम पायी गयी है।
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नींबू प्रजाति- इन फलदार वृक्षों की स्वस्थ 1 जड़ों के लिए उचित जल प्रबन्ध की आवश्यकता पड़ती है। लवणीय भूमियों तथा जलमग्न क्षेत्रों के लिए यह उपयुक्त फल नहीं है। नींबू प्रजाति फलों के लिए एस. ए. आर. ४ से अधिक नहीं होना चाहिए। सिंचाई ५०% नमी के कम होने पर कर देनी चाहिए। अधिकतर थाला विधि से सिंचाई करने की परम्परा है, परन्तु ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाकर अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
आज आवश्यकता इस बात कि है कि हम जमीन का कोई भी टुकड़ा बेकार न रहने दें। उसे आच्छादित करके रखें। दक्षिण भारत के तौर पर एक ही समय में जमीन के एक ही टुकड़े पर अधिक उत्पादन प्राप्त करने की सोचें। हाइड्रोपोनिक्स खेती को बढ़ावा दें। इस तरह बंजर तथा समस्याग्रस्त भूमियों को सुधारकर उपयोग में लाने की आवश्यकता है।
जायद व खरीफ में मक्का की खेती में कीट नियंत्रण तथा तना बेधक
इस कीट की सूंड़िया तनों में छेद करके अन्दर ही खा जाती है। जिससे मृत गोप बनता है।
उपचार
बुआई के लगभग तीन सप्ताह बाद ६ प्रतिशत लिन्डेन के २० कि.ग्रा. दाने या कार्बोफ्यूरान ३ प्रतिशत दानेदार का २० कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर दानों को खेत में अच्छी नमी होने पर जड़ों के पास डालें या कार्बोफ्यूरान जी के ३०० ग्राम दाने शाम के समय तीन सप्ताह पुरानी मक्का की फसल के गोप में डालें। इससे मक्का के पौधों पर सभी प्रकार के लगने वाले कीट पतंगों का नियंत्रण हो जाता है। इसके अलावा एन्डोसल्फान ३५ ई.सी. १.५ लीटर प्रति हेक्टर या मोनोक्रोटोफास ३६. ई. सी. १० लीटर/ हेक्टर के हिसाब से छिड़कना चाहिए ।
कमला कीट
यह कीट बहुत तेजी से मक्का की पत्तियों को खाती है। इसमें नियंत्रण के लिए किसी एक रसायन का छिड़काव या बुरकाव प्रति हेक्टेयर कर सकते हैं।
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मिथाइलपैराथियान 2% धूल, 20 किलो/हेक्टर
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इन्डोसल्फान 4% धूल, 20 किलो/हेक्टर
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क्लोरोपाइरीफास 4% धूल, 20 किलो / हेक्टर
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न्यूवान 70 ई.सी. 650 मि.ली./हेक्टर
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इन्डोसल्फान 35 ई.सी. 1.5 लीटर/हैक्टर
रोग
पत्तियों पर झुलसा रोग
इस रोग में पत्तियों पर बड़े लम्बे कुछ अण्डाकार, भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। रोग के उग्र होने पर पत्तियां झुलसकर सूख जाती है।
उपचार
इस रोग की रोकथाम के लिए जिनेव २ किलो/हेक्टर या जीरम ८०, २ ली./हेक्टर या जीरम२७, ३ ली./हेक्टेयर की दर से छिड़कना चाहिए।
तना सड़न
यह बीमारी अधिक वर्षों वाले खेतों में लगती है। इसमें तने की पोरियों पर ज्लीम हास्ने बनते हैं जो शीघ्र ही सड़ने लगते हैं। पत्तियाँ सूखकर पीली पड़ जाती है।
उपचार
रोग दिखाई देने पर 10 ग्राम स्ट्रेपटोसाक्लीन या 40 ग्राम एग्रीमाइसीन प्रति हेक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
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लेखक-
ज्योति विश्वकर्मा (सहायक प्राध्यापक)
रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना, राजस्थान
विशाल यादव (शोध छात्र)
प्रसार शिक्षा, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या