धान भारतीय कृषि में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो करीब 450 लाख हेक्टेयर पर खेती की जाती है और करीब 1120 लाख टन उपज देता है. हरित क्रांति ने परोक्ष रूप से कई पारंपरिक धान की किस्मों के गायब होने में योगदान दिया है. पारंपरिक किस्में कीट प्रतिरोधी, लवणता के प्रति सहनशील, गहरे पानी में और सीमित पानी में विकास के साथ-साथ औषधीय, पोषण और सुगंधित गुणों से युक्त होते हैं.
हालांकि, जनसंख्या वृद्धि और खेती योग्य भूमि के विखंडन से पारंपरिक किस्मों और आनुवंशिक सामग्री का नुकसान हुआ है. परिणामों मेंकेवल कुछ स्थानीय किस्मों की धान की खेती देखा जा सकता है, जबकि हजारों पारंपरिक किस्में किसानों की भूमि से गायब हो गई हैं. जब फसल के स्थानीय किस्में लुप्त हो जाती हैं, तो इससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान का भी नुकसान होता है. यह घटना भारत सहित अब ताइवान, जापान और बांग्लादेश जैसे धान उगाने वाले सभी देशों में देहा जा रहे है.
भारत एक धान उगाने वाला प्रमुख देश है और धान की खेती का एक महत्वपूर्ण केंद्र है, जहाँ विभिन्न प्रकार की भूमि का एक समृद्ध भंडार है. हालाँकि, अब बहुत कम पारंपरिक धान की किस्मों की खेती की जा रही है. एनबीपीजीआर (नई दिल्ली) संग्रह पर शोध से संकेत मिलता है कि धान की लगभग 2000 स्थानीय पारंपरिक किस्मे उपलब्ध हैं, और वे 60% सीमांत किसानों द्वारा छोटे पैमाने पर बोए जाते हैं. स्पष्ट रूप से, सीमांत किसान पारंपरिक ज्ञान की समृद्ध विरासत और संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं. आधी सदी पहले, भारत में समृद्ध किस्म की विविधता के साथ चावल की एक लाख से अधिक किस्में थीं. चावल की ये पारंपरिक किस्में पारंपरिक प्रबंधन और देखभाल के तहत आधुनिक किस्मों के बराबर या उससे बेहतर प्रदर्शन करती हैं, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन प्रभावित क्षेत्रों में रूपात्मक और उन्नत विशेषताएँ के साथ.
भारत मेंधान लगभग 450 लाख हेक्टेयर के कुल क्षेत्रफल में उगाया जाता है, जिसमें लगभग 130 लाख हेक्टेयर वर्षा आधारित नीचला जमीन (17%), 30 लाख हेक्टेयर गहरे पानी (7%), और 9 लाख हेक्टेयर तटीय लवणीय क्षेत्रों (2%) में है. देश में धान की खेती के तहत लगभग 40% क्षेत्र, विशेष रूप से पूर्वी भारत में, बार-बार आने वाली बाढ़ द्वारा नुकसान के लिए अत्यधिक संवेदनशील है.
लगातार बाढ़ के गंभीर परिणाम के कारण भारत के धान उगाने वाले लगभग 30% क्षेत्रों में फसल विनाश का खतरा है. पूर्वी भारत में, चावल प्रमुख खाद्य फसल है, और धान की खेती आजीविका का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. अक्सर इस खेत्र में खराब उत्पादकता अनुभव की जाती है जो प्रमुख रूप से जलवायु तनाव से जुड़ी होती है, जिससे किसान को खराब आय होती है. इष्टतम कृषि संसाधन, मशीनीकरण और बेहतर फसल प्रबंधन प्रथाओं का उपयोग करने का बावजूत भी अप्रत्याशित बाढ़ की जोखिम किसानों के लिए निवेश पर लाभ प्राप्त करने के लिए एक बाधा बन जाते हैं और उन्हें लागत गहन प्रथाओं में निवेश करने के लिए हतोत्साहित करते हैं.
पूर्वी भारत, जिसमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं, जो की भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 22% है और जहाँ बाढ़ प्रवण वातावरण लगभग 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बिस्तरित है. बिहार में बाढ़ का खतरा अधिक है, लगभग 70% क्षेत्र बाढ़ प्रभावित है, विशेषकर उत्तरी बिहार. पश्चिम बंगाल राज्य में बंगाल डेल्टा के हिस्से में, बाढ़ का एक लंबा इतिहास रहा है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 42% प्रभावित करता है. ओडिशा में प्राकृतिक आपदाओं का इतिहास रहा है, बाढ़ और चक्रवातों ने तटीय जिलों को बुरी तरह प्रभावित किया है. ब्रह्मपुत्र और बराक घाटियों और अन्य छोटी नदी उप-घाटियों के साथ-साथ असम में बाढ़ प्रभाभित क्षेत्र एक गंभीर चिंता का विषय है, जो राज्य के कुल भूमि क्षेत्र का 40% हिस्सा है.
पारंपरिक धान उपज, गुणवत्ता, जैविक और अजैविक तनाव सहिष्णुता, संसाधन उपयोग दक्षता की हिसाब से भिन्न और महत्तापूर्ण होती है. किसान विभिन्न प्रकार पारंपरिक धान की खेती के लिए समतल नीचा भूमि और स्थानीय अनुकूलित बाताबरण पसंद करते हैं. ये भू-प्रजातियां या किस्में की पौधे अक्सर लंबी, गिरना रोधी, फोटोपेरियोड-संवेदनशील होती हैं. स्वाभाविक रूप से पारंपरिक किस्में कम उपज देने वाले होते हैं, फिर भी इनमें से कुछ किस्में बाढ़-संभावित स्थानों में अपने मध्यम स्तर की बाढ़ सहनशीलता के कारण प्रसिद्ध हैं. कई भू-प्रजातियों की पहचान पूर्ण जलमग्नता के प्रति सहिष्णु के रूप में की गई है. वर्षा सिंचित उथली तराई, जलमग्न, जलभराव, अर्ध-गहरे और/या गहरे पानी की स्थितियों के लिए पूर्वी राज्यों की कुछ महत्वपूर्ण पारंपरिक धान एक तालिका में सूचीबद्ध किया गया है. हालांकि, अभी तक सहिष्णु क्षमता के साथ केवल कुछ धान की किस्मों को संभावित रूप में पहचाना गया है जो की 10-12 दिन पानी की गहराई में 80 सेमी तक डूबने का सहन कर सकते हैं.
बाढ़ की आशंका वाले तटीय स्थानों में उगाई जाने वाली पारंपरिक धान की किस्में लवणता और जलमग्नता, दोनों के प्रति सहिष्णु हैं, हालांकि वे काम उत्पादक होते हैं. इसमें कुछ प्रमुख रूप से खेती की जाने वाली किस्में, भालुकी, भूराता, चेट्टीविरिप्पु, गेटु, कलारता, कलुंडई सांबा, कामिनी, करेकाग्गा, कोरगुट, कुथिरू, पटनाई, नोना बोकरा, पिचानेलु, पोक्कली, रूपसाल, साथी, तल्मुगुर आदि हैं.अनियंत्रित जलभराव की स्थिति और खराब जल निकासी व्यवस्था होने के कारण, बढ़ते जल स्तर के साथ साथ बढ़ता हुआ लंबी किस्में इन स्थितियों के लिए उपयुक्त हैं. पारंपरिक भू-प्रजातियां मूल्यवान आनुवंशिक संसाधन हैं जो पारिस्थितिक संतुलन में योगदान करते हैं, इसलिए उन्हें संरक्षित करना भविष्य की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है. विभिन्न आनुवंशिक संसाधनों से अधिक गुणों की पहचान करना, अधिक बाढ़, लवणता, या यहां तक कि कई तनाव सहिष्णुता के साथ-साथ अन्य वांछित लक्षणों के साथ बेहतर किस्मे उत्पन्न करना समय की आवश्यकता है. महत्वपूर्ण विशेषताओं और स्थानीय अनुकूलता का उपयोग करते हुए पारंपरिक बाढ़ सहिष्णु किस्में किसानों के लिए कई नई और बेहतर जलवायु-उपयोगी धान की किस्मों के विकास में योगदान कर सकती हैं.पूर्वी भारत में वर्षा सिंचित उथली तराई, जलमग्न, जलभराव, अर्ध-गहरे और/या गहरे पानी की स्थितियों के लिए पारंपरिक भू-प्रजातियां या धान की किस्मों की सूची
असम
अदोलिया बाओ, अहिनीबाओ अमाना बाओ, बोरजाहिंगा, धेपा बाओ, हेरेपी बाओ, इकरासली, जुल बाओ, कलंगी बाओ, केकोआ बाओ, लती साली, महसूरी, मगुरी बाओ, मनोहर साली, मोइमोरसिंगिया बाओ, नेघारी बाओ, ओगरी साली, रंगा बाओ, रंगून , सियालसाली, तुलसी साली
बिहार
बकोल, बरोगर, दशमी, देसरिया, जेसोरिया समूह, जोगर, कलमा, मगनाथ, सालमोट, सोहर, सुगर
छत्तीसगढ़
सौसारी धन, तुलसीघाटी, मटको धन, डंड्रास, पेनबुडी, सालदेंती, भूरसी धन, गडखुता धन
झारखंड
आगिन सर, भोरंग सर, झालियार गेंडा, कलामदानी, खानिका सर, संबलपुरिया
ओडिशा
एंडे कर्मा, अतिरंगा, भुंडी, बिसिक, बोगा बोर्डन, चकिया 59, चंपकली, चौला पखिया, सीएन 540, ढोला बादल, धुसरा, एफआर 13ए, एफआर 43बी, गंगा सिउली, जानकी, कालाकेतकी, कालापुतिया, कानावर, खदरा, खजारा, खोड़ा, कोलासाली, कुसुमा, मधुकर, मानसरोवर, नहंग टिप, नली बौंसगजा, रावण, रोंगासाली, एस 22, सेल बादल, सरमुली, एसएल276, सोलपोना, तेलगरी
उत्तर प्रदेश
आमगौद, अगहरी, बालगनी, बालमलोत, धनेश्वर, गौरिया, घोघरी, गोआठ, कबरा, सेंगर, सुगपारखी, वेनागा
लेखक
डॉ. कुन्तल दास
वरिष्ठ विशेषज्ञ, बीज प्रणाली और उत्पाद प्रबंधन (अनुसंधान, प्रजनन नवाचार मंच)
अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान, दक्षिण एशिया क्षेत्रीय केंद्र,
वाराणसी, उत्तर प्रदेश