गेहूं हरियाणा राज्य में रबी की एक प्रमुख फसल है. हरियाणा राज्य में इस फसल का क्षेत्रफल लगभग 25 लाख हेक्टेयर है. अन्य सभी फसलों की भांति गेहूं को भी अधिक पैदावार के लिए संतुलित पोषक तत्वों की ज़रूरत होती है जिनको मृदा की जांच के आधार पर रासायनिक खादों से पूरा किया जाता है. वैसे तो खादों का उपयोग मृदा जांच के आधार पर ही करना चाहिए पर अगर मृदा जांच समय पर न हो सके तो सामान्य अवस्था में भी सभी खादों का उपयोग संतुलित मात्रा में करना चाहिए. अगर संतुलित मात्रा में खादों का उपयोग न किया जाए तो पौधों में पोषक तत्वों की कमी के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं. हर एक तत्व की कमी के लक्षण अलग-अलग होते हैं. अधिकतर अवस्थाओं में पत्तियां पीली हो जाती हैं. अगर इस पीलेपन की समय पर पहचान हो जाए तो उपयुक्त खाद या पर्णीय स्प्रे के द्वारा इसको दूर किया जा सकता है.
क्यों होता है पीलापन ?
गेहूं की खड़ी फसल में पीलेपन के कई कारण हो सकते हैं. इस पीलेपन की समस्या का समाधान पीलेपन के कारण में ही निहित है इसलिए पहले पीलेपन के कारण को जानना अति आवश्यक है.
कार्बन नत्रजन अनुपात का महत्व
किसी भी अवशेष या भूमि की कार्बन:नत्रजन (सी:एन) अनुपात 20:1 के आसपास आदर्श मानी जाती है, परंतु यदि यह अनुपात ज्यादा हो जाए तो मृदा के अंदर परिवर्तन होता है. जब किसान भाई खेत तैयार करते हैं तो पुरानी फसल के कार्बनिक अवशेष खेत में मिल जाते हैं. इन अवशेषों के कारण खेत में कार्बन तथा नत्रजन का अनुपात बढ़ता है. इसे सी:एन अनुपात कहते हैं यानि कार्बन:नत्रजन अनुपात. यह अनुपात प्राप्त पोषक तत्वों की मात्रा फसल को मिलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यदि हम धान की पराली मिट्टी में दबाएं जिसकी सी:एन अनुपात 80:1 होती है, तो सूक्ष्म जीव जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, अक्टिनोमीसीटेस आदि क्रियाशील हो जाते हैं तथा इसके विघटन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. ये ज्यादा मात्रा में कार्बन डाई ऑक्साइड पैदा करते हैं. परंतु ये नाइट्रेट नत्रजन को, जोकि पौधों को लेनी होती है, उसे भोजन के रूप में उपयोग करते हैं. इससे मृदा में नत्रजन की कमी आ जाती है तथा कमी के लक्षण पुरानी पत्तियों पर पीलेपन के रूप में दिखाई देते हैं. इससे नत्रजन की कमी आती है जिसको रोकने के लिए बुवाई के समय यूरिया डालने की सलाह दी जाती है.
नत्रजन की कमी
चूंकि नत्रजन पौधों में चलायमान है, इसकी कमी के लक्षण पौधे में पहले पुरानी पत्तियों पर दिखाई देते हैं. नयी पत्तियां हरी रहती हैं. पुरानी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं. कमी ग्रस्त पौधों की ऊंचाई कम होती है तथा शाखाएं कम बनती हैं. ज्यादा कमी की अवस्था में पूरी पत्ती पीली होकर जल जाती है. इस तत्व की पूर्ति के लिए 130 किलो यूरिया की सिफ़ारिश है. यदि फॉस्फोरस डी ए पी के द्वारा दिया जाना है तो 110 किलो यूरिया डालें. खड़ी फसल में कमी आने पर 2.5 प्रतिशत यूरिया का घोल का छिड़काव करना लाभदायक है.
लौह की कमी
लोहे की कमी में पीलापन नई पतियों पर दिखाई देता है जबकि नाइट्रोजन की कमी में पीलापन पुरानी पत्तियों में दिखाई देता है. हल्का पीलापन धारियों में दिखाई देता है. अगर खरीफ़ सीजन में खेत में ज्वार या मक्का की फसल की बुवाई की गई हो तो इनकी पत्तियों को देखें. यदि नई पत्तियों पर सफ़ेद धारियाँ दिखाई दें तो लौह तत्व की कमी है.
सल्फ़र की कमी
सल्फ़र की कमी के कारण भी फसलों में नए पत्ते पीले हो जाते हैं. सल्फ़र की कमी गेहूं में कम ही देखने को आती है पर मिट्टी की जांच करवा कर सल्फ़र की कमी को दूर करना लाभदायक रहता है. फसल के बुवाई से पहले खेत तैयार करते समय 200 किलोग्राम 4 (बैग) जिप्सम डालने से खेत की भौतिक दशा के सुधार होने के साथ-साथ सल्फ़र की मांग भी पूरी हो जाती है.
अन्य कारण
गेहूं की फसल में सूत्रकृमि के प्रकोप के कारण जड़ें नष्ट हो जाती हैं जिसके कारण पौधों का समुचित विकास नहीं हो पाता तथा जड़ों के पोषक तत्व न उठाने के कारण पीलापन आ जाता है. मोल्या रोधी किस्म राज एम आर-1 की बुवाई करने तथा उचित फसल चक्र को अपना कर इस समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है.
दीमक के प्रकोप के कारण भी जड़ें या तना में पूर्ण रूप या आंशिक रूप से कटाव हो जाता है जिसके कारण पौधा पीला पड़ जाता है. सिफ़ारिश शुदा कीटनाशक के उपयोग से दीमक के प्रकोप को कम किया जा सकता है.
जलभराव सेम या मिट्टी के लवणीय होने के कारण पौधों की जड़ें क्षतिग्रस्त हो जाती जिसके परिणामस्वरूप पोषक तत्वों का ग्रहण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता जिसके कारण पोषक तत्वों की कमी आ जाती है. इस अवस्था में पर्णीय छिड़काव लाभदायक होता है.
फफूंद जनित रोग जैसे की पीला रत्वा आदि के प्रकोप से भी फसल में पीलापन आ जाता है. अतः इस प्रकार के पीलेपन को पहचान कर इसका समय पर निदान करना चाहिए.