पुष्करमूल एक बहुउपयोगी पौधा होता है जिसको हृदयरोग, दमा जैसी गंभीर बीमारियों के इलाज में ही उपयोग किया जाता है. इसके पत्ते पूरी तरह से कमल की तरह ही दिखते है. इसीलिए इनको पद्पत्र भी कहते है. यह पौधे अक्सर हिमालय के क्षेत्रों में पाए जाते है और यह इतने दुर्लभ है कि इनके निर्यात पर प्रतिबंध है. यह बारहमासी झाड़ीनुमा तथा 1.5 मीटर लंबी खुशबूदार जड़ और प्रकंद युक्त पौधा होता है. पत्तियां ऊपर से रूखी और नीचे से घने बालों वाली अंडाकार और भाले के आकार की होती है. इसपर राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड की तरफ से 50 प्रतिशत सब्सिडी प्रदान की जाएगी.
जलवायु और मिट्टी
शीतोष्ण और हिमालयी बुग्याल में यह 1500 -4200 मीटर क्षेत्र में पाया जाता है. यहां पर चिकनी दोमट मिट्टी वाली जगह पर इसकी फसल काफी उपयुक्त होती है.
रोपण सामग्री
इसको बीजों के माध्यम से इसकी पौध को तैयार करना काफी उचित माना जाता है. इससे काफी ज्यादा फायदा होता है.
नर्सरी विधि
पौध तैयार करना
इसकी खेती को नवंबर या फिर मार्च के शुरू में ही बीजों के माध्यम से ही उसकी पौध को उत्पन्न किया जा सकता है. यह 50 दिनों के भीतर ही अकुंरण पूर्ण हो जाता है.
पौधे की दर और पूर्व उपचार
एक हेक्टेयर भूमि के लिए कुल एक किलोग्राम बीज ही पर्यापत् होते है जिनसे 40000 पौधों को उत्पन्न किया जा सकता है. जीए की अकुंरण को सफल बनाने की मदद करती है.
खेत में रोपण
भूमि की तैयारी और उर्वरक प्रयोग
मिट्टी को छीला करते हुए धीमे से भूमि को जोतना चाहिए. साथ ही जैविक खाद या फिर पशु खाद को 15 टन हेक्टेयर की मात्रा से मिलाना चाहिए. पौधों के बीच की दूरी 30 गुणा 30 सेमी की दूरी को रखना बिल्कुल सही माना गया है जिसमें प्रति हेक्टेयर 1100 प्रकन्द खंडों की आवश्यकता है. प्रकंदों को अकुंरण के बाद 15 से 20 दिनों का समय लगता है. साथ ही एक हेक्टेयर में 40 हजार पौधों का समायोजित किया जा सकता है.
अंतर फसल प्रणाली
यह पौधा एकल फसल प्रणाली के रूप में उगाया जाता है.
फसल प्रबंधन
यहां पर एक तथा डेढ़ वर्ष के उपरांत अक्तूबर और नवंबर में फसल को काटा जाता है साथ ही मिट्टी को गीला करके जड़ों को खोदना चहिए. इसके बाद जड़ों को साफ करके मिट्टी के कणों को हटाया जाता है, साथ ही जड़ो को जब भी काटा जाता है और सूखाकर इसको हवा में बंद डिब्बों में भरा जाता है, प्रकंद और जड़ों को तनों से अलग करके रखा जाना चाहिए तथा इनको छाया में सुखाना चाहिए.
पैदावार
एक और डेढ़ वर्ष के उपरांत प्रति हेक्टेयर 8 टन के लगभग सुखी जड़े प्राप्त की जा सकती है.