आलू भारत की सबसे महत्वपूर्ण फसल है। तमिलनाडू एवं केरल को छोड़कर आलू सारे देश में उगाया जाता है। भारत में आलू की औसत उपज 152 क्विंटल टन प्रति हेक्टेयर है जो विश्व में औसत से काफी कम है। अन्य फसल की तरह आलू की अच्छी पैदावार कि लिए उन्नत किस्मों के रोग सहित बीजों की उपलब्धता बहुत आवश्यक है। इसके अलावा उर्वरकों का उपयोग, सिंचाई की व्यवस्था तथा रोग नियंत्रण के लिए दवा के प्रयोग का भी उपज पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
भूमि एवं जलवायु संबंधी आवश्यकताएं
आलू की खेती के लिए जीवांश युक्त बलुई - दोमट मिटटी ही अच्छी होती हैं। भूमि में जल निकासी की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। आलू के लिए क्षारीय तथा जल भराव अथवा खड़े पानी वाली भूमि कभी ना चुने। बढ़वार के समय आलू को मध्यम शीत की आवश्यकता होती है।
उन्नत किस्मों का चुनाव
आलू की जातियों को पकनें की अवधि के आधार पर 3 वर्गों में बांटा गया है
शीघ्र तैयार होने वाली किस्में
कूफरी चन्द्रमुखी
यह 80-90 दिनों में तैयार हो जाती है। इसके कंद सफेद, अंडाकार तथा आंखे अधिक गहरी नहीं होती है । शीघ्र पकने के कारण पिछेती झूलसा रोग से प्रभावित नहीं होती है। उपज 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
कूफरी जवाहर (जे.एच. 222)
पिछेता झुलसा तथा फोम रोग विरोधक किस्म है। कंद सफेद, अण्डाकार मध्यम आकार के होते हैं। औसत उपज 240-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर प्राप्त होती है।
मध्यम आकार से तैयार होने वाली किस्में
कुफरी बादशाह
यह किस्म लगभग 90-100 दिन में तैयार हो जाती है इसके कंद बड़े आकार के सफेद तथा चपटी ऑखों वाली होती है। यह पिछेती झुलसर प्रतिरोधी किस्म है। पोल का प्रभाव कम होता है। उपज क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है । कंद खुदाई के बाद हरे हो जाते हैं।
कुफरी बहरा
यह किस्म 90-100 दिन में तैयार हो जाता है। इसके कंद सफेद अंडाकार गोल और देखने में आकर्षक होते है। इसकी खेती के लिए कम तथा मध्यम शीत वाले क्षेत्र बहुत ही उपयुक्त हैं। उपज क्षमता 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है ।
देर से तैयार होन वाली किस्म
कुफरी सिंदूरी
100 दिन में तैयार होने वाली लाल किस्म है। इसके आलू मध्यम आकार गूदा पीस ठोस, ओखे स्पू धसे हुई रहती है। उपज 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होती है। भण्डारण क्षमता अच्छी होती है।
कुफरी चमत्कार
पौधे साधारण ऊंचे वाढ़युक्त पत्तियों का गहरा हरा रंग होता है। कंद का आकार साधारण बड़ा, गोलाकार सफेद, ऑखें साधारण गहरी तथा गूदे का रंग हल्का पीला होता है। 100-120 दिन में तैयार होकर 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। यह किस्म अगेती झुलसा रोग के लिए अवरोधक है।
बुआई की विधि
पौधों में कम फासला रखने से रोशनी पानी और पोषक तत्वों के लिए उनमें होड़ बढ़ जाती है। फलस्वरूप छोटे माप के आलू पैदा होते हैं। अधिक फासला रखने के प्रति हेक्टेयर में पौधों की संख्या कम हो जाती है, जिससे आलू का मान तो बढ़ जाता है परन्तु उपज घट जाती है। इसलिए कतारों और पौधों की दूरी में ऐसा संतुलन बनाना होता है कि न उपज कम हो और न आलू की माप कम हो। उचित माप के बीज के लिए पंक्तियों में 50 से.मी. का अन्तर व पौधों में 20 से 25 से.मी. की दूरी रखनी चाहिए ।
उपयुक्त माप के बीज का चुनाव
आलू के बीज का आकार और उसकी उपज से लाभ का आपस में गहरा संबंध है। बड़े माप के बीजों से उपज तो अधिक होती है, परन्तु बीज की कीमत अधिक होने से पर्याप्त लाभ नहीं होता। बहुत छोटे माप का बीज सस्ता होगा परन्तु रोगाणुयुक्त आलू पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। प्रायः देखा गया है कि रोगयुक्त फसल में छोटे माप के बीज का अनुपात अधिक होता है। इसलिए अच्छे लाभ के लिए 3 से.मी. से 3.5 आकार या 30-40 ग्राम भार के लिए आलूओं को ही बीज के रूप में बोना चाहिए ।
बुआई समय एवं बीज की मात्रा
उत्तर भारत में जहां पाला आम बात है, आलू को बढ़ने के लिए कम समय मिलता है। अगेती बुआई से बढ़वार के लिए लम्बा समय तो मिल जाता है परन्तु उपज अधिक नहीं होता, क्योंकि ऐसी अगेती फसल में बढ़वार व कन्द का बनना प्रतिकूल तापमान में होता है, साथ ही बीजों के अपूर्ण अंकुरण व सड़न भी बना रहता है। अतः उत्तर भारत में आलू की बुआई इस प्रकार करें कि आलू दिसम्बर के अंत तक पुरा बन जाए। उत्तर पश्चिम भागों में आलू की बुआई का उपयुक्त समय अक्टूबर माह का प्रथम पखवाड़ा है। पूर्वी भारत में आलू अक्टूबर के मध्य से जनवरी तक बोया जाता है। आलू की फसल में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 50 से.मी. व पौध से पौध की दूरी 20-25 से.मी. होनी चाहिए। इसके लिए 25-30 क्विंटल बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है।
मिट्टी चढ़ाना
मिट्टी चढ़ाने का कार्य बुवाई विधि पर निर्भर करता है। समतल भूमि में की गई बुवाई में 30-40 दिन बाद 1/3 नत्रजन की शेष मात्रा को कुड़ों में पौधे से दूर डालकर मिट्टी चढ़ायें । कंद के खुले रहने पर आलू के कंदो का रंग हरा हो जाता है, इसलिए आवश्यकता एवं समयानुसार कंदो को ढॅंकते रहें। आलू या अन्य कंद वाली फसलों में मिट्टी चढ़ाना एक महत्वपूर्ण क्रिया है, जो की भूमि को भुरभुरा बनाये रखने, खरपतवार नियंत्रण कंदो को हरा होने से रोकने एवं कंदो के विकास में सहायक होते है।
उर्वरक का प्रयोग
फसल में प्रमुख तत्व अर्थात नत्रजन, फास्फोरस व पोटाश पर्याप्त मात्रा में डालें। नत्रजन से फसल की वानस्पति बढ़वार अधिक होती है, और पौधे के कंदमूल के आकार में भी वृद्धि होती है, परन्तु उपज की वृद्धि में कंदूमल के अलावा उनकी संख्या का अधिक प्रभाव पड़ता है। फसल के आरम्भिक विकास और वनास्पतिक भागों का शक्तिशाली बनाने में पोटाश सहायक होता है। इससे कंद के आकार व संख्या में बढ़ोतरी होती है। आलू की फसल में प्रति हैक्टेयर 120 कि.ग्रा. नत्रजन 80 कि.ग्रा., फास्फोरस और 80 कि.ग्रा. पोटाश डालनी चाहिए। उर्वरक की मात्रा मिट्टी की जांच के आधार पर निर्धारित करते है। बुआई के समय नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा डालनी चाहिए। नत्रजन की शेष् आधी मात्रा पौधो की लम्बाई 15 से 20 से.मी. होने पर पहली मिट्टी चढ़ाते रहना चाहिए।
आलू में सिंचाई
आलू में हल्की लेकिन कई सिंचाई की आवश्यकता होती है, परन्तु खेत में पानी कभी भी भरा हुआ नहीं रहना चाहिए । खूड़ो या नालियों में मेड़ो की ऊॅंचाई के तीन चौथाई से अधिक ऊंचा पानी नहीं भरना चाहिए। पहली सिंचाई अधिकांश पौधे उग जाने के बाद करें व दूसरी सिंचाई उसके 15 दिन बाद आलू बनने व फूलने की अवस्था में करनी चाहिए। कंदमूल बनने व फूलने के समय पानी की कमी का उपज पर बूरा प्रभाव पड़ता है। इन अवस्थाओं में पानी 10 से 12 दिन के अन्तर पर दिया जाना चाहिए। पूर्वी भारत में मध्य से जनवरी तक बोई जाने वाली आलू की फसल में सिंचाई की उपर्युक्त मात्रा 50 से.मी. (6 से 7 सिंचाईयां) होती है।
पौध संरक्षण
नीदा नियंत्रण
आलू की फसल में कभी भी खरपतवार न उगने दें। खरपतवार की प्रभावशाली रोकथाम के लिए बुआई के 7 दिनों के अन्दर, 0.5 डब्ल्यू.पी.या लिन्यूरोन का 700 लिटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर के हिसाब से छिड़काव कर दें।
रोग नियंत्रण
अगेती झुलसा
यह रोग आलटरनेरिया सोलेनाई द्वारा उत्पन्न होते हैं। पत्तियों पर कोणीय पिरगलन धब्बो, अंडाकार या वृत्ताकार रूप में दिखाई देता है। धब्बे काले भुरे रंग के होते है। कंद पर भी दाग आ जाते हैं।
नियंत्रण के उपाय
एगलाल से कंद उपचारित कर लगाये। जिनेब (0.2प्रतिशत) या डायएथेन जेड -78 (0.25 प्रतिशत) या डायथेन एम -45 (0.25 प्रतिशत) घोल का छिड़काव करें।
पिछेती झुलसा
रोग फाइटोप्थोरा इन्फेसटेन्स द्वारा उत्पन्न होता है। पत्तियों पर भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। बाद में यह काले हो जाते है। पत्तियों की निचली सतह सफेद कपास जैसा बढ़ता हुआ दाग दिखाई देता है। ग्रसित कंदो पर हल्के भूरे रंग के दाग और भुरे चित्तीनुमा चिन्ह दिखाई पड़ते देता है। कभी - कभी बीमारी माहामारी का रूप् धारण कर लेती है।
नियंत्रण के उपाय
डायथेन जेड - 78 (0.25 प्रतिशत) का उायथेन एम-45 (0.25 प्रतिशत) घोल का छिड़काव करें। रोग निरोधी किस्में लगाएं।
जीवाणु मुरझाना
यह रोग स्यूडोमोनास सोलैनैसियेरत जीवाणु के कारण होता है। पौधा तांबो रंग का होकर सूख जाता है।
नियंत्रण के उपाय
संक्रमित खेत में आलू न लगाएं। फसल चक्र अपनाएं। रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर जला दें। कैल्शियम आक्साइड 125 किलो हेक्टेयर की दर के मिट्टी में मिलाएं।
विषाणू तथा माइकोप्लाज्मा रोग
यह दो प्रकार के विषाणु आलू की फसल में विषाणू रोग फैलाते हैं। संस्पर्शी तथा फैलाये जाने वाले विषाणू रोगों से आलू के उत्पादन में अधिक हानि होती है।
नियंत्रण के उपाय
कीटो की रोकथाम करें। मुख्य रूप से माहू तथा लीफ हॉपर। रोग प्रगट होने के पहले रोगोर डायमेथोएट या थायोडान 0.2 प्रतिशत का देना चाहिए । साथ ही रोगी पौधो को निकालकर नष्ट कर दें।
कीट नियंत्रण
एफिड/माहू
वयस्क तथा छोटे एफिड पत्तियों का रस चूसते हैं। इससे पत्तियां पीली नीचे की ओर मुड़ जाती है। इस कीट से हानि का मुख्य कारण यह है कि कीट विषाणु रोग फैलाने में सहायक होता है।
लीफहापर /जैसिड
पत्तियों की निचली सतह पर रहकर रस चूसते हैं। ग्रसित पत्तियां पीली पड़ जाती हैं। यह कीट माइक्रोप्लाज्मा (वायरस रोग) फैलाने में सहायक होता है।
नियंत्रण के उपाय
एफिड, जैसिड व हापर की रोकथाम के लिए बुवाई के समय थीमेट 10 जी 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर बुवाई के समय उपयोग करें। डायमेथोएट या थायोडान 0.2 प्रतिशत का रोगर 0.1 से 0.15 प्रतिशत 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
कुटआ कीट
यह कीट पौधों के बढ़ाने पर ही डंठलों को जमीन की सतह से ही काट देता है। ये कीट रात्रि में ज्यादातर क्रियाशील होते हैं। कंदो में भी छेद कर देता है, कंद बिक्री योग्य नहीं रहते।
नियंत्रण के उपाय
थीमेट 10 जी 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
टयूबर मॉथ
खेतों में इसके लारवा कोमल पत्तियों, डठलों और बाहर निकले हुए कंदो में छेद कर देते है। देशी भंडारों में इसके प्रकोप से अत्यधिक क्षति होती है।
नियंत्रण के उपाय
थीमेट 10 जी का 10-15 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। आलू को खेत में ढक कर रखें। देशी भण्डारण में आलू को शुष्क रेत से 3-4 से.मी. ढकने से नियंत्रण किया जा सकता है या संग्रहण में मिथाइल ब्रोमाइड धुमक उपयोग करें। शीत संग्रहण सर्वोत्तम है।
आलू कटाई या खुदाई
पूरी तरह से पकी आलू की फसल की कटाई उस समय करनी चाहिए जब आलू कंदो के छिलके सख्त पड़ जाये। पूर्णतय पकी एवं अच्छी फसल से लगभग 300 प्रति कि्ंवटल प्रति हैक्टैयर उपज प्राप्त होती है।
लेखक :
ललित कुमार वर्मा, ग्लोरिया किस्पोटा ओकेश चंद्राकर, हेमन्त कुमार, सतीश बैक,
पंडित किशोरी लाल शुक्ला उद्यानिकी महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र राजनांदगांव (छ.ग.)
E-mail- lalitkumarverm@gmail.com