चना (साइसर एरिटिनम) रबी मौसम की सबसे लोकप्रिय एवं बृहद क्षेत्रफल में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में से एक है. इसे प्रायः दलहनी फसलों का राजा शब्द से भी संबोधित किया जाता है, भारतवर्ष चने का सर्वाधिक उत्पादक एवं उपभोक्ता है. देश में वर्ष 2021 से 2022 में दलहनी फसलों का कुल उत्पादन 27.75 मिलियन टन रहा है, जिसमें से चने का उत्पादन 13.98 मिलियन टन का आंकलन किया गया है.
चना प्रोटीन का प्रचुर स्रोत है, साथ ही साथ ही मृदा में नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर उसकी उर्वरता को भी बढ़ाता है. जैसा की सर्वविदित हैं, देश के विभिन्न क्षेत्रों के कृषक वृहद क्षेत्रफल में चने की खेती कर रहे हैं, लेकिन चने की फसल को कीट-व्याधियों से बहुत आर्थिक क्षति पहुँच रही है, जिससे देश के समस्त किसान परेशानी से जूझ रहे हैं. चने की फसल मुख्य रूप से दो कीटों से प्रभावित होती है, जिसमें मुख्यतः फली भेदक एवं चने का कटुआ कीट है, आइए जानते हैं किस प्रकार किसान भाई अपने खेत से चने के कीट एवं व्याधियों को किस प्रकार नष्ट करें.
चने के प्रमुख कीटः चने की फसल में प्रायः दो प्रकार के कीटों का प्रकोप सर्वाधिक रूप से पाया जाता है, जो की निम्नानुसार है-
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चने का फली भेदक या इल्ली कीट (हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा)
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चने का कटुआ कीट (एग्रोटिस एप्सिलॉन)
चने का फली भेदक या इल्ली कीटः
(i) वैज्ञानिक नामः हेलिकोवर्पा आर्मीजेरा, गणः लेपिडोप्टेरा, प्रजातिः नॉक्टुइडी
(ii) वितरण एवं क्षेत्रः विश्व में जहाँ-जहाँ पर चने की फसल को उगाया जाता है, वहाँ पर यह प्रचुर संख्या में पाया जाता है. प्रायः भारतवर्ष में इस कीट के माध्यम से चने की फसल को भारी नुकसान होता है.
(iii) पोषक पौधेः यह कीट प्रायः चना, अरहर, मटर, मूंग, उर्दू, मसूर एवं सोयाबीन का गंभीर कीट है, यह कीट कपास, ज्वार, मक्का, लोबिया, टमाटर, सूरजमुखी एवं बरसीम आदि को भी गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाता है.
(iv) पहचान के लक्षणः इस कीट का पतंगा पीले-भूरे रंग का होता है, इसके अगले पंखों के बाहरी किनारे के पास काले धब्बे एवं भूरी रेखाएँ पाई जाती है एवं यकृत के आकृति के काले चिन्ह पाए जाते हैं, इसके पिछले पंख सफेद-मटमैले रंग के होते हैं, इसकी पूर्ण विकसित इल्ली की लंबाई 3.5 सें० मी० होती है एवं इसके शरीर के दोनों तरफ पर हरी और गहरे भूरे रंग की रेखाएँ पाई जाती हैं.
(v) क्षति की प्रकृतिः इस कीट की इल्ली पहले पौधों की पत्तियों को खाती फिर चने में फली बनने के बाद उनमें छिद्र कर के दानों को क्षति पहुंचाती है, अगर सही समय पर इसका प्रबंधन नहीं किया गया तो, यह कीट चने की फसल को लगभग 10 प्रतिशत से 90 प्रतिशत तक क्षति पहुंचा सकता है. इस कीट की इल्ली सर्वाधिक रूप से हानि पहुंचाती है. इस कीट का प्रकोप प्रायः जनवरी से मार्च तक विकट रूप से देखा गया है.
(vi) जीवनचक्रः चने का फली भेदक कीट अपना संपूर्ण जीवनकाल चार अवस्थाओं (अंडा अवस्था, शिशु अवस्था, कोषावस्था एवं वयस्क अवस्था) में पूर्ण करता है. इस कीट की मादा लगभग 4 से 10 अंडों को समूह में पत्ती के निचली सतह पर देती है. इसके अंडे चमकदार भूरे हल्के पीले रंग के छोटे एवं गोलाकार होते हैं, इसके बाद इसका रंग परिवर्तित हो जाता है इसके अंडे लगभग 4 से 6 दिनों में फूट जाते हैं. इस कीट का शिशु वयस्क बनने से पूर्व 6 वार त्वचा निर्मोचन करता है. सर्वप्रथम इसका संपूर्ण शरीर हरा होता है, केवल सिर काले रंग का होता है, इसके तत्पश्चात इनका रंग बदल जाता है. शिशु अवस्था से कोषावस्था में परिवर्तित होने में लगभग 14 से 22 दिन का समय लगता है. इस कीट का कोषावस्था पहले हरे पीले बाद में गहरे भूरे रंग का हो जाता है. इस कीट का वयस्क भूरे-धूसर रंग का होता है. इस कीट की मादा अपने संपूर्ण जीवन चक्र में लगभग 400 से 600 अंडे देती है एवं एक वर्ष में लगभग 10 पीढ़ियां पायी जाती है. इस कीट का संपूर्ण जीवन चक्र 35-70 दिन में पूर्ण हो जाता है.
चने का कटुआ कीटः
(i) वैज्ञानिक नामः एग्रोटिस एप्सिलॉन, गणः लेपिडोप्टेरा, प्रजातिः नॉक्टुइडी
(ii) वितरण एवं क्षेत्रः चने का कटुआ कीट संपूर्ण विश्वभर में प्रचुर संख्या में पाया जाता है, प्रायः यह कीट अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, चीन, ताइवान एवं भारत आदि देशों में प्रमुख रूप से आर्थिक क्षति पहुंचाता है. यह कीट भारत के उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार एवं मध्य प्रदेश में अधिक हानि पहुँचाता है.
(iii) पोषक पौधेः कटुआ कीट मुख्यतः चना, मटर, मसूर, मक्का, गन्ना, कपास, मूंगफली, जौ एवं आलू आदि फसलों को क्षति पहुंचाता है.
(iv) पहचान के लक्षणः इस कीट की सुंडी गहरे भूरे-काले रंग एवं इसका सिर लाल रंग का एवं इस कीट का पतंगा मध्यम आकार का धूसर काले रंग का होता है. इसके पंखों पर भूरी एवं गहरी काली रेखाएँ पाई जाती है. इस कीट का अग्रवक्ष (प्रोथोरेक्स) छोटे आकार का होता है.
(v) क्षति की प्रकृतिः जैसा कि नाम से ही विदित है, इस कीट की सुंडिया रात्रि के समय पौधों के तने को सतह से काट देती है, जिससे संपूर्ण पौधा मुर्झा कर सूख जाता है तथा सुबह के समय यह कीट मिट्टी की दरारों में छिप जाता है, इस कीट के प्रकोप से फसल इस प्रकार दिखती है, जैसे किसी ने फसल को काटकर खेत में डाल दिया हो. चने के कटुआ कीट के 15 से 20 पतंगें प्रति दिन प्रति ट्रैप को आर्थिक दहलीज स्तर माना जाता है.
(vi) जीवनचक्रः कटुआ कीट की मादा छोटी आकृति के दूधिया-सफेद रंग के अंडों को पत्ती की निचली सतह पर अकेले या 25 से 30 अंडों के समूह में देती है तथा अपने संपूर्ण जीवनकाल में लगभग 350 अंडे देती है, शरद ऋतु में अंडे लगभग 5 से 11 दिनों में फूट जाते हैं, यह कीट प्रायः अक्टूबर से मार्च के माह में सक्रिय रहते हैं. ग्रीष्म ऋतु में यह पहाड़ी क्षेत्रों में प्रवासित हो जाते हैं. एक वर्ष में इसकी लगभग तीन पीढ़ियां पाई जाती हैं. अंडे से निकलने के लगभग 30 दिनों बाद यह कीट मिट्टी में कोषावस्था में चला जाता है, जहाँ ग्रीष्म ऋतु में 10 दिनों एवं शरद ऋतु में 30 दिनों में संपूर्ण विकसित होकर पतंगा के रूप में निकलता है. यह कीट अपना संपूर्ण जीवन चक्र 45 से 75 दिनों में पूर्ण कर लेता है.
(vii) समुचित रोकथामः
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फसल में से अंडों एवं सुंडिया को इकट्ठा कर नष्ट कर देना चाहिये.
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कीट प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए.
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प्रतिवर्ष एक ही स्थान पर बार-बार चने की खेती नहीं करनी चाहिए.
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फसल चक्र को अपनाना चाहिए.
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कीट के कोषावस्था को नष्ट करने के लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए.
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प्रति सप्ताह समय-समय पर फसल का निरीक्षण करते रहना चाहिए.
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खेत के आसपास उगे हुए खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए.
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फसल की समय-समय पर जब पौधों की ऊंचाई 15 से 20 सेंटीमीटर हो जाए तब उसकी खुटाई करनी चाहिये.
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चने की फसल के बीच में एवं एक किनारे पर गेंदा की पंक्तियाँ पाश फसल के रूप में उगाना चाहिये.
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पुष्पन अवस्था के दौरान टी० आकृति की 50 खूंटियां प्रति हेक्टेयर की दर से लगाना चाहिए, जिससे कि चिड़िया उस पर बैठकर सूंडियों का शिकार कर सकें.
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खेत में समान दूरी पर 12 प्रति हेक्टेयर की दर से फेरोमोन पाश को लगाना चाहिये.
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जैविक कीटनाशी के रूप में एन० एस० के० ई० 5 प्रतिशत की 50 ग्राम मात्रा को या नीम का तेल 1500 पी०पी०एम० 1-1.5 मि०ली० या बवेरिया बेसियाना 5-10 मि०ली० या मेटाराईजियम एनिसोप्ली 5-10 मि०ली० या बेसिलिस थुरिजिएंसिस प्रजाति कुरूस्टाकी 5 मि०ली०, उपरोक्त में से किसी एक जैविक कीटनाशी को प्रति लीटर जल में मिलाकर समांतर रूप से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए.
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प्रति हेक्टेयर की दर से 250 से 500 एल० ई० न्यूक्लियर पोलीहेड्रोसिस विषाणु की मात्रा को जल में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए.
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चने के कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं को पहचान कर उनको संरक्षित कर उनकी सक्रियता को बढ़ावा देना चाहिए.
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जब फसल में चने के फली भेदक की सुंडिया आर्थिक दहलीज (2 अंडे या 1 छोटी इल्ली प्रति पौधा) को पार कर दें तब, निम्न में से किसी एक रासायनिक कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए, लेम्बडा साइहेलोथ्रिन 2 मि०ली० या इमामेक्टिन बेंजोएट 5 प्रतिशत एस०जी० की 1 ग्राम मात्रा या स्पाइनोसेड 45 प्रतिशत एस०सी० की 0.20 से 0.30 मि०ली० मात्रा प्रति लीटर जल में मिलाकर समांतर रूप से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए.
नोट-उपरोक्त बताई गई कीटनाशक दवाओं को नजदीकी एग्रीजंक्शन स्टोर पर उपलब्धता के आधार पर किसी एक का चयन करें.
चने का उकठा रोगः
यह चने का प्रमुख मृदा जनित रोग है. यह रोग फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम प्रजाति साइसेरी नामक फफूंदी से होता है, इस रोग से ग्रसित पौधों की जड़ें सूखकर अंदर से काली पड़ जाती है, जिससे संपूर्ण पौधा नष्ट हो जाता है उकठा रोग से लगभग 10-15 प्रतिशत तक आर्थिक क्षति का अनुमान लगाया गया है, जिन स्थानों पर अधिक ठंड होती है वहाँ इसका प्रकोप कम होता है, जब हमारे खेतों की मिट्टी में पर्याप्त नमी तथा तापक्रम 25-30 डिग्री सेल्सियस होता है, तब इसका फसल पर अधिक प्रकोप देखा गया है.
रोकथाम के उपायः
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रोग ग्रसित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए.
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चने की प्रतिरोधी किस्मों (अवरोधी, क्रांति, स्वेता, पूसा-212, जे० जी०-315 एवं जी०-24 आदि) का चयन करना चाहिए.
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खेत में से वैकल्पिक खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए.
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प्रमाणित या पंजीकृत बीजों को उपचारित कर बोना चाहिए.
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ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए.
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प्रति हेक्टेयर 5-6 टन पूर्ण रूप से सड़ी हुई गोबर की खाद को मिट्टी में मिलाना चाहिए.
नोट-फसलों पर कीट-व्याधियों के प्रबंधन से संबंधित अधिक जानकारी के लिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालय में जाकर विषय विशेषज्ञों से परामर्श लें.
लेखक
अरुण कुमार1*, पवन कुमार2, आशुतोष सिंह अमन3, प्रमोद कुमार मिश्र4 एवं श्रवण कुमार वर्मा
1,3,4,5शोध छात्र (पी०एच०डी०), कीट विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०) 208002
2सहायक प्राध्यापक, कीट विज्ञान विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उ० प्र०) 273009
संवादी लेखक- अरुण कुमार
ई-मेल आई०डी०- arunkumarbujhansi@gmail.com