गाजर एक महत्वपूर्ण जड़वाली फसल मानी जाती है। गाजर की खेती पूरे भारतवर्ष में की जाती है। गाजर एक ऐसी फसल है जिसे कच्चा और पक्का दोनों तरह से पकाकर खाया जाता है। गाजर में कैरोटीन और विटामिन ए पाया जाता है जो कि मनुष्य के शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। नारंगी रंग की गाजर में कैरोटीन की मात्रा बहुतायत पाई जाती है. इसकी हरी पत्तियों में काफी ज्यादा पोषक तत्व पाए जाते है जैसे कि प्रोटीन, मिनरल्स, विटामिन आदि। गाजर की हरी पत्तियां मुर्गियों के चारा बनाने में काफी ज्यादा काम आती है। वैसे तो गाजर पूरे देश में उगाई जाती है लेकिन यह मुख्य रूप से पंजाब, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा, असम आदि क्षेत्रों में उगाई जाती है।
जलवायुः गाजर एक ऐसी फसल है जो कि मूलतः ठंडी होती है। इसका बीज 7.5 से 28 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर सफलतापूर्वक उग जाता है। 15-20 डिग्री तापमान पर जड़ों का आकार छोटा होता है लेकिन इसका रंग बेहतरीन होता है। विभिन्न किस्मों पर तापमान भिन्न -भिन्न होता है। यूरोपीय किस्म जो होती है 4-6 सप्ताह तक 4.8 से 10 डिग्री ग्रेड तापमान पर जड़ बने रहना चाहिए।
भूमिः गाजर की खेती के लिए दोमट मिट्टी होनी चाहिए। बुआई के समय खेत की मिट्टी अच्छी तरह से भुरभुरी होनी चाहिए। इसमें खेती करने से पौधे की जड़े काफी अच्छी बनती हैं. भूमि में पानी का निकास काफी आवश्यक है।
भूमि की तैयारीः गाजर की खेती के लिए खेत को दो बार विक्ट्री के हल से जोतना चाहिए। इसके लिए 3-4 जुताईयां देशी हल से करें. प्रत्येक जुताई के उपरांत पाटा अवश्य लगाएं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए। इसे गहराई तक अच्छे से बोना चाहिए।
उत्तम किस्मेः
1. पूसा केसरः ये लाल रंग की गाजर की किस्म होती है। इसकी पत्तियां छोटी, जड़ें लंबी, आकर्षक रंग केंद्रीय भागर संकरा होता है। गाजर की फसल 90-110 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी पैदावार 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।
2. पूसा मेघालीः ये किस्म नारंगी गूदे, छोटी टॉप और कैरोटीन की अधिक मात्रा वाली संकर प्रजाति होती है। इसकी बुआई अक्टूबर महीने तक कर सकते है। मैदान में बीज उत्पन्न होता है। इसको बोने के बाद फसल 100-110 दिनों में तैयार हो जाती है।
3. नैन्टसः इस किस्म की जड़े बेलनाकार नांरगी रंग की होती हैं. जड़ के अन्दर का केंद्रीय भाग मुलायम, मीठा और सुवासयुक्त होता है. 110-112 दिन में तैयार होती है. पैदावार 100-125 क्विंटल प्रति हेक्टेअर होती है।
खाद और उर्वरकः एक हेक्टेयर खेत में लगभग 25-30 टन तक सही गोबर खाद को अंतिम जुताई के समय तथा 3 किलोग्राम नाइट्रोजन और 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से बुआई के समय पर डालें। बुआई के 5-6 सप्ताह बाद 30 किलोग्राम नाइट्रोजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप में डालें।
सिंचाईः बुवाई करने देने के बाद नाली में पहली सिंचाई को कर देना चाहिए जिससे मेड़ों में नमी बनी रहती है। बाद में 8 से 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए। गर्मियों में चार से पांच दिनों के अंतराल पर सिंचाईं करते रहना चाहिए। खेत को किसी भी हालात में सूखने नहीं देना चाहिए नहीं तो इसके चलते पैदावार कम हो सकती है।
खरपतवारः गाजर की फसल जब भी पैदा होती है तब उसके साथ की तरह के अनेक खरपतवार उग जाते है, जो भूमि से नमी और पोषक तत्व लेते है जिसके कारण गाजर के पौधों का विकास और बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसीलिए इनको खेतों से निकालना बेहद ही आवश्यक हो जाता है. निराई करते समय पंक्तियां से आवश्यक पौधे निकाल कर मध्य की दूरी अधिक कर देनी चाहिए। जो भी जड़े हल्की सी वृद्धि करती है उसके आसापास निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
कीट नियंत्रणः गाजर की फसल पर निम्न कीड़े-मकोड़े का प्रकोप मुख्य रूप से होता है। इस पर छह पत्ती वाले धब्बे वाले टिड्डे का प्रकोप काफी रहता है।
जीवाणु रोगः यह रोग इर्विनिया कैरोटावारा नामक जीवाणु फैलता है। इस रोग का प्रकोप मुख्य रूप से गुदेदार जड़ों पर होता है जिसके कारण जड़ें सड़ने लगती है। ऐसी ज़मीन में जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था नहीं होती है। ये उन में भी लगता है जहां पर निचले क्षेत्र में फसल को बोया जाता है। इसकी रोकथाम के लिए खेत में जल निकास का उचित प्रबंधन किया जाना चाहिए।
खुदाई और पैदावारः गाजर की फसल की खुदाई तभी करनी चाहिए जब वे पूरी तरह विकसित हो जाएं। खेत में खुदाई के समय पर्याप्त नमी होनी चाहिए। जड़ों की खुदाई फरवरी के महीने में होनी चाहिए। इनको बाजार में भेजने से पूर्व जड़ों को अच्छी तरह धो लेना चाहिए। इसकी पैदावार किस्म पर निर्भर करती है। एसियाटिक किस्में अच्छा उत्पादन करती है। पूसा किस्म की पैदावार लगभग 300-350 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, पूसा मेधाली 250-300 प्रति हेक्टेयर जबकि नैन्टस किस्म की पैदावार 100-112 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।