प्राकृतिक खेती, जिसे शून्य बजट प्राकृतिक खेती (ZBNF) भी कहा जाता है, एक ऐसी विधि है जो रसायनों के उपयोग से मुक्त और पर्यावरणीय संतुलन पर आधारित है. इसमें फसलों के रोगों का प्रबंधन पारंपरिक ज्ञान, जैविक विधियों और प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके किया जाता है. यह विधि न केवल मिट्टी और पर्यावरण को स्वस्थ बनाए रखने में सहायक है, बल्कि किसानों को लागत में कटौती और लाभ में वृद्धि का अवसर भी प्रदान करती है. आजकल प्राकृतिक खेती की तरफ लोगों का रुझान बहुत तेजी से बढ़ रहा है. प्राकृतिक खेती की सफलता फसलों में लगनेवाले रोगों के सफल प्रबंधन पर निर्भर करता है. बिना रोग एवं कीटो के प्रबंधन के प्राकृतिक खेती संभव नहीं है.
प्राकृतिक खेती में रोग प्रबंधन के प्रमुख सिद्धांत
- मिट्टी की सेहत सुधारना
स्वस्थ मिट्टी से ही स्वस्थ फसल उगती है. प्राकृतिक खेती में जीवामृत, घनजीवामृत और मल्चिंग जैसी विधियों से मिट्टी की जैविक गुणवत्ता बढ़ाई जाती है. यह पौधों को रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करता है.
- जैव विविधता का उपयोग
विभिन्न फसलों और सहायक पौधों की खेती से रोगों के चक्र को तोड़ा जाता है. कहने का तात्पर्य यह है कि एक खेत में लगातार एक ही फसल की खेती करने के बजाय विविध फसलों की खेती अदल बदल कर करें.
- रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन
प्राकृतिक खेती का यह प्रमुख सिद्धांत है. ऐसी किस्मों एवं प्रजातियों का चायल करें जिसमे कम रोग लगता हो. पारंपरिक और स्थानीय किस्मों में रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधकता पाई जाती है, जिनका उपयोग प्राकृतिक खेती में किया जाता है.
रोग प्रबंधन की प्राकृतिक विधियाँ
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जैविक उपचार
प्राकृतिक खेती में फसलों में रोग लगने से पूर्व या लग जाने के बाद निम्नलिखित जैविक उपचार करके प्रबंधित किया जा सकता है जैसे...
जीवामृत का प्रयोग
गाय के गोबर, गौमूत्र, गुड़, बेसन और मिट्टी से तैयार किया गया जीवामृत मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की संख्या बढ़ाता है. यह पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक है.
नीमास्त्र
नीम की पत्तियों, गौमूत्र और पानी से तैयार यह मिश्रण फफूंद और कीटजनित रोगों को नियंत्रित करता है.
अग्निअस्त्र
लहसुन, मिर्च, नीम, अदरक और गौमूत्र से तैयार यह जैविक कीटनाशक फसलों को हानिकारक रोगों से बचाता है.
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मल्चिंग और मिट्टी ढकना (Mulching)
मिट्टी को जैविक अवशेषों या फसल अवशेषों से ढककर नमी बनाए रखना और खरपतवार नियंत्रित करना संभव होता है. यह कई रोगजनकों की वृद्धि को रोकता है.
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फसल चक्र (Crop Rotation)
एक ही प्रकार की फसल बार-बार उगाने से रोगजनक और कीटों की संख्या में भारी वृद्धि होती है . फसल चक्र अपनाकर इस समस्या को बहुत आसानी से प्रबंधित किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, दालों और अनाजों की बारी-बारी से खेती करने से रोगकारकों की संख्या नियंत्रित रहती है एवं मिट्टी में नत्रजन प्राप्त होता है जिससे पौधों का विकास एवं रोगरोधिता में भी वृद्धि होती है.
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जैविक रोगनाशी
रोगों को नियंत्रित करने के लिए ट्राइकोडर्मा, पेसिलोमाइसेस, और बैसिलस जैसे जैविक एजेंटों का उपयोग किया जाता है. ये लाभकारी सूक्ष्मजीव रोगजनकों को नष्ट करते हैं.
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संजीवक और अर्क का उपयोग
तुलसी अर्क, हल्दी का घोल, अदरक का रस,लहसुन आदि का छिड़काव पौधों को फफूंद और बैक्टीरियल रोगों से बचाने में मदद करता है.
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प्राकृतिक सहयोगी जीवों का उपयोग
मित्र कीटों (जैसे लेडीबर्ड बीटल) और पक्षियों को प्रोत्साहित करना जो रोग फैलाने वाले कीटों का नियंत्रण करते हैं.
कुछ सामान्य फसली रोगों का प्राकृतिक प्रबंधन
- फफूंदजनित रोग
फसलों में लगनेवाले रोगों के प्रबंधन हेतु ट्राइकोडर्मा या नीमास्त्र का उपयोग किया जा सकता है.
- जीवाणुजनित रोग
जीवाणुजनित रोगों के प्रबंधन में तुलसी, लहसुन और हल्दी का घोल बहुत प्रभावी पाया गया है.
- वायरस जनित रोग
विषाणुजनित रोगों के प्रबंधन में रोगग्रस्त पौधों को काट कर तुरंत हटाना बहुत प्रभावी पाया गया है. इसके अलावा और पौधों पर मिर्च-लहसुन अर्क का छिड़काव किया जा सकता है.
प्राकृतिक खेती के लाभ
- पर्यावरण सुरक्षा
रसायनों का उपयोग न होने से मिट्टी, जल और वायु प्रदूषण नहीं होता.
- स्वस्थ उत्पाद
रसायनमुक्त भोजन स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है.
- कृषि लागत में कमी
बाजार से रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों को खरीदने की आवश्यकता नहीं होती.
- जैव विविधता का संरक्षण
स्थानीय संसाधनों और परंपरागत तकनीकों का उपयोग जैव विविधता बनाए रखता है.