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Updated on: 4 November, 2023 5:45 PM IST
Millet crop and varieties

प्राचीन काल से विभिन्न प्रकार के छोटे कदन्नों का उपयोग भोजन एंव चारे के रूप में किया जाता रहा है, जबकि भारत में पिछले कुछ समय से मोटे अनाज एंव उनके मूल्य संवर्धित उत्पादों को बढ़ावा दिया गया और इन छोटे कदन्नों की उपेक्षा की गयी. वर्तमान में बढ़ती हुई  कुपोषणता के कारण इनकी महत्वता को फिर से बढ़ गयी है. इन छोटे कदन्नों की पोषण महत्वता के कारण इनकी मांग दिन-प्रीतिदिन बढ़ती जा रही है. वर्तमान में छोटे कदन्नों को उनके पोषण मूल्यों के कारण पोषक अनाज के रूप में जाना जाता है. इन छोटे कदन्नों की पोषण महत्वता एंव मांग को देखते हुए वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय कदन्न वर्ष घोषित किया गया है.

भारत में खेती की जाने वाले विभिन्न प्रकार के कदन्नों में से कंगनी भी एक मुख्य फसल है. इसकी खेती भारत के विभिन्न राज्यों में की जाती है जिनमें राजस्थान भी एक प्रमुख राज्य है. कंगनी की खेती मुख्यत भारत के शुष्क एंव अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में की जाती है, क्योंकि यह फसल सूखे के प्रति अत्यधिक सहनशील है.

आर्थिक महत्व

  • कंगनी पोषक तत्वों से भरपूर फसल है जिसके 100 ग्राम खाने योग्य भाग में 4 ग्राम रेशा, 12.3 ग्राम प्रोटीन, 60.9 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, 4.3 ग्राम वसा, 31 मि.ग्रा. कैल्शियम, 2.8 मि.ग्रा. लौहा, 290 मि.ग्रा. फॉस्फोरस, 3.3 ग्राम खनिज पदार्थ तथा 331 किलो कैलोरी खाद्य ऊर्जा पायी जाती है.
  • कंगनी का सेवन करने से लौहा एंव कैल्शियम की आपूर्ति होती है जोकि हमारी हड्डियों एंव मांसपेशियों के स्वास्थ्य के लिए उत्तम है.
  • कंगनी तंत्रिका तंत्र तथा ह्रदय से संबंधित रोगों को दुरुस्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, क्योंकि इसमें ग्लूटेन की मात्रा नहीं पायी जाती.
  • कंगनी का ग्लाइसेमिक सूचकांक निम्न होने के कारण इसका सेवन मधुमेह रोगियों के लिए काफी लाभदायक है.
  • इसके कंगनी का सेवन करने से वजन तथा कोलेस्ट्रॉल का स्तर कम होता है. इसके साथ-साथ यह पाचन क्रिया तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाती है.

जलवायु

कंगनी की खेती लगभग सभी प्रकार की जलवायु में की जा सकती है. इसकी खेती शुष्क एंव शीतोष्ण दोनों प्रकार की जलवायु में की जा सकती है. परन्तु उच्च उत्पादन एंव सर्वोत्तम वृद्धि एंव विकास के लिए शुष्क एंव अर्द्धशुष्क जलवायु उपयुक्त रहती है. इसकी खेती 50-75 से. मी. वार्षिक वर्षा वाले क्षेत्रों में आसानी से की जा सकती है. इसके सर्वोत्तम वृद्धि एंव विकास के लिए 20-30 डिग्री सेल्सियस तापमान सबसे उपयुक्त रहता है.

मृदा

कंगनी लगभग सभी प्रकार की मिट्टियों में उपजायी जा सकती है. इसकी खेती के लिए दोमट, बलुई दोमट तथा जलोढ़ मृदा सबसे उपयुक्त रहती है. इसकी खेती रेतीली दोमट एंव भरी मटियार दोमट भूमि में भी की जा सकती है. मृदा कंकड़ पत्थर रहित होनी चाहिए.

खेत का चुनाव एंव तैयारी

इसकी खेती के लिए कंकड़ पत्थर रहित उचित जल निकास एंव समतल भूमि का चुनाव करना चाहिए. बुवाई से पूर्व खेत को एक बार मिट्टी पलटने वाले हल से तथा उसके पश्चात देशी हल से या हेरो से दो तीन बार जुताई करें, ताकि मिट्टी भुरभरी हो जाएं. इसके पश्चात् पाटा चलाकर खेत को समतल करके बुवाई के लिए तैयार करें. एक- दो वर्ष के अंतराल पर गहरी जुताई अवश्य करें.

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उन्नत किस्में

सरणी 1: विभिन्न परिस्थ्तियों के लिए अनुशंसित कंगनी की किस्में

पैदावार के लिए उपयुक्त क्षेत्र

किस्में

आंध्र प्रदेश

एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए. 3156, एस. आई. ए. 3085, एस. आई. ए. 326, लिपाक्षी, नरसिम्हाराय, कृष्णदेवराय, पी. एस. 4

कर्नाटका

एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए. 3156, एस. आई. ए. 3085, एस. आई. ए. 326, नरसिम्हाराय, एच. एम. टी. 100-1, पी. एस. 45, डी. एच. एफ. टी.-109

तमिलनाडु

टी. एन. ए. यु.-186, टी. एन. ए. यु.-43, टी. एन. ए. यु.-196, सी. ओ.-1, सी. ओ.-2, सी. ओ.-4, सी. ओ.-5, के. 2, के. 3, एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए.  3156, एस. आई. ए. 30855, पी. एस. 4

राजस्थान

प्रताप कंगनी (एस .आर.-1), एस. आर.-51, एस. आर.-11, एस. आर.-16, एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए.  3156, एस. आई. ए. 30855, पी. एस. 4

उत्तर प्रदेश

पी. आर. के. 1, पी. एस. 4, एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए. 3085, एस. आई. ए. 326, श्रीलक्ष्मी, नरसिम्हाराय, एस 114 

उत्तराखंड

पी. आर. के. 1, एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए. 3156, एस. आई. ए. 3085, एस. आई. ए. 326, पी. एस. 4, श्रीलक्ष्मी

थ्बहार

आर. ऐ. यु.-1, एस. आई. ए. 3088, एस. आई. ए. 3156, एस. आई. ए. 3085, पी. एस. 4

 बीज एंव बुवाई

  • किसी भी फसल से अच्छी उपज प्राप्त करने में बुवाई का समय, बीजदर एंव विधि का अहम योगदान होता है. इनके उचित प्रबंधन के अभाव में फसल की गुणवत्ता एंव उत्पादन में काफी कमी आती है.
  • बीजदर पंक्ति से पंक्ति विधि: 8-10 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर
  • छिड़काव विधि: 15 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर

बीज का चुनाव

बीज खरपतवार रहित तथा साफ सुथरा होना चाहिए. कटे-फटे बीजो का चुनाव करने से बचें क्योंकी इनकी अंकुरण क्षमता कम होती है. ऐसे बीजों का चुनाव करना चाहिए जिनकी अंकुरण क्षमता एंव भौतिक शुद्धता प्रतिशत अधिक हो तथा कंकड़ पत्थर रहित हो.

बुवाई का समय

कंगनी की खेती सामान्यत खरीफ ऋतु में मानसून प्रारम्भ होते ही की जाती है. इसकी खेती विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग समय पर की जाती है.

 सारणी-2 विभिन्न क्षेत्रों के लिए अनुशंसित बुवाई का समय

अनुकूल क्षेत्र

बुवाई का क्षेत्र  

राजस्थान

जून-जुलाई  

तमिलनाडु

अगस्त-सितंबर  

आन्ध्र प्रदेश  

जुलाई का पहला सप्ताह

कर्नाटका

जुलाई-अगस्त

महाराष्ट्र

जुलाई का दूसरा और तीसरा सप्ताह

तमिलनाडु

जून-जुलाई (खरीफ ऋतू से सिंचित क्षेत्र)

जनवरी (ग्रीष्म ऋतू से सिंचित क्षेत्र)

उत्तर प्रदेश एवं बिहार का समतल क्षेत्र

जून

नोटः- कंगनी की बुवाई सामान्यतः जून से लेकर अगस्त तक की जा सकती है.

खाद एंव उर्वरक प्रबंधन

भूमि की उर्वरा शक्ति बनाये रखने तथा अच्छी पैदावार के लिए फसल- चक्र में अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद का प्रयोग करें. खेत की तैयारी के समय 5-10 टन सड़ी हुई गोबर की खाद को अन्तिम जुताई के साथ खेत में अच्छी तरह से मिला देवे. 4-5 वर्षो तक लगातार गोबर की खाद का प्रयोग करने पर आगे के वर्षो में उर्वरक की आधी मात्रा की आवश्यकता होती है.

नत्रजन, फॉस्फोरस एंव पोटैशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय पर देवे. यदि सिंचाई सिंचाई की सुविधा उलब्ध है तो नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एंव पोटैशियम की पूरी मात्रा बुवाई के समय देवें. शेष नत्रजन की मात्रा को प्रथम सिंचाई के समय देवें.

सारणी 3 विभिन्न क्षेत्रों के लिए अनुशंसित उर्वरक की मात्रा

क्षेत्र

अनुशंसित उर्वरक की मात्रा (एन. पी. के. की.ग्रा. प्रति हेक्टेयर)

 

राजस्थान एंव महाराष्टृ

20: 20: 0

आंध्र प्रदेश

40: 30: 0

झारखण्ड एंव तमिलनाडु

40: 20: 0

कर्नाटका

30: 15: 0

अन्य क्षेत्र

20: 20: 0

नोटः- नत्रजन की मात्रा को नीम लेपित यूरिया के माध्यम से देवे

जल प्रबंधन

कंगनी की खेती सामान्यत खरीफ ऋतू में वर्षाधारित क्षेत्रों में की जाती है इसलिए इसमें विशेष सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है. परन्तु इसकी खेती शुष्क, अर्धशुष्क एंव वर्षाधारित क्षेत्रों में की जाती है उस दौरान अगर लम्बे समय तक बारिश नहीं होती है तो एक एंव दो सिंचाइयों की आवश्यक्ता होती है. ईस स्तिथि में अधिक उत्पादन के लिए बुवाई के 25-30 दिन पश्चात प्रथम एंव 40-45 दिन पश्चात द्वितीय सिंचाई करनी चाहिए.

लेखक: राकेश कुमार एवं नलिनी रामावत, कृषि महाविधालय, जोधपुर

English Summary: Millet crop and varieties, time of cultivation and method of cultivation
Published on: 04 November 2023, 05:53 PM IST

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