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Updated on: 29 March, 2022 10:31 AM IST
Sugarcane Farming

गन्ना एक लम्बी अवधि तथा वानस्पतिक प्रजनन द्वारा उगाई जाने वाली फसल है.गन्ने का हरियाणा में प्रमुख फसलों में स्थान है. गन्ना भारत की सबसे महत्वपूर्ण नकदी फसल है. कपड़ा के बाद दूसरा सबसे बड़ा कृषि आधारित उद्योग के लिए कच्चा माल में चीनी उद्योग एक है.ग्रामीण क्षेत्र में सीधे और इसके माध्यम से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा करने में सहायक है.

गन्ने के रोग पूरे विश्व में फसल उत्पादन के लिए बाधक हैऔर कोई भी देश पौधों के रोगजनकों प्रभावों के प्रति प्रतिरक्षित नहीं है. रोग प्रतिरोधी किस्मों के लिए प्रजनन के सभी प्रयासों के बावजूद, यह फसल कई बीमारियों से ग्रस्त हो रही है. बीमारी की घटना खतरनाक दर से बढ़ रही है और हर साल उपज गिर रही है लगभग 10-15% राष्ट्रों में पैदा होने वाली चीनी लाल सड़न, गलन, विल्ट और बसी हुई सड़न के कारण होने वाली बीमारियों के कारण खो जाती है. लीफ स्कैल्ड रोग (एलएसडी) और रटून स्टंटिंग रोग (आरएसडी) जैसे जीवाणु रोग कुछ क्षेत्रों में काफी उपज हानि का कारण बनते हैं. वायरल रोगों के बीच मोज़ेक सभी राज्यों में प्रचलित है, लेकिन इसकी गंभीरता विशिष्ट स्थितियों में महसूस की जाती है. इनके अलावा, घास की शूटिंग के कारण फाइटोप्लाज्मा भी एक संभावित बीमारी है, जो गन्ना उत्पादन को काफी नुकसान पहुंचा सकती है. इसके अलावा, नए रिकॉर्ड किए गए पीले पत्तों की बीमारी (YLD) कई स्थानों पर एक बड़ी बाधा बन गई है.

लाल सड़न रोग (रेड रॉट)

गन्ने में यह रोग कोलेटोट्रिचम फाल्कटम नामक फफूंद से होता है. लाल सड़न रोग देश में सबसे घातक गन्ना रोगों में से एक है और यह भारत और दक्षिण एशिया में पिछले 100 वर्षों से गन्ना उत्पादन में बाधा है. यह रोग पहले के दशकों में भारत में कई व्यावसायिक किस्मों के उन्मूलन के लिए जिम्मेदार था. यह रोग हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में तथा देश के लगभग सभी हिस्सों में महत्वपूर्ण व्यावसायिक किस्मों की विफलता में शामिल रहा है. वर्तमान में यह रोग कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों को छोड़कर भारत के सभी गन्ना उत्पादक राज्यों में अलग-अलग तीव्रता से फैल रहा है. हरियाणा राज्य का पूर्वी भाग लाल सड़न से अधिक प्रभावित  हैं, जबकि पश्चिमी भाग में यह रोग अपेक्षाकृत कम है.

लक्षण

यह रोग पौधे के ऊपरी सिरे से शुरू होता है रेड रॉट बीमारी में तने के अन्दर लाल रंग के साथ सफेद धब्बे के जैसे दिखते हैं. धीरे धीरे पूरा पौधा सूख जाता है. पत्तियों पर लाल रंग के छोटे-छोटे धब्बे दिखायी देते हैं, पत्ती के दोनों तरफ लाल रंग दिखायी देता है. गन्ने को तोड़ेंगे तो आसानी से टूट जाएगा और चीरने पर एल्कोहल जैसी महक आती है.

कंडुआ रोग (स्मट)

गन्ने में यह रोग यूस्टिलागो स्किटामाइनिया नामक फफूंद से होता है. स्मट घातक गन्ना रोगों में शामिल है और यह लगभग सभी गन्ना उत्पादक देशों में एक समय में महत्वपूर्ण रहा है. यह रोग हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों में अलग-अलग तीव्रता से फैल है. स्मट के कारण उपज का नुकसान 50 प्रतिशत तक हो सकता है.

लक्षण

इस रोग के प्रथम लक्षण मई या जून माह में दिख्ते हैं प्रभावित पौधे की गोब से चाबुक समान सरंचना जो सफेद पतली झिल्ली द्वारा ढकी होती है. यह झिल्ली हवा के झोको द्वारा फैल जाती हैतथा काले- काले बीजाणु बुकर जाते हैं और आसपास के पौधों में सक्रम फैलता हैं रोगी पौधों की पतिया छोटी, पतली, नुकीली तथा गन्ने लम्बे एवं पतले हो जाते हैं  

उखेड़ा या उकठा रोग (विल्ट)

यह रोग गन्ने में फ्यूजेरियम नामक फफूंद से होता है. उत्तर भारत में इस रोग का प्रकोप भड़ता ही जा रहा है. यह रोग मृदा तथा बीज जनित हैं अथवा प्रसार होता है. इस रोग की अनुकूल परिस्तिथिया सूखा, जल भराव हैं और इनकी वजह से सक्रमण बढ़ता हैं

लक्षण

इस रोग के लक्षण मानसून के बाद दिख्ते हैं पौधे के ऊपरी भाग में पीला पन आ जाता है. पौधे के ऊपरी भाग में पीला पन आ जाता हैं रोगी पौधे का विकास रुक जाता है व पोरिया सिकुड़ जाती है. गन्ने को चाकू से काटने से उनके भीतर गहरा लाल रंग दिखाई देता हैं और गन्ने में एलकोहल जैसी गंद का उत्सर्जन होता है और पूरा गन्ना सूख जाता है.

घसैला रोग (ग्रासी सूट)

गन्ने यह रोग में ग्रासी शूट फाइटोप्लाज्मा से होता है यह रोग देश के सभी गन्ना उत्पादक राज्यों में होता है. इसे गन्ने का नया क्लोरोटिक एल्बिनो और पीलापन रोग के रूप में भी जाना जाता है. हरियाणा के लगभग सभी मिल जोन क्षेत्रों में विभिन्न किस्मों पर यह रोग मिलता है.

लक्षण

इस रोग के लक्षण काफी भिन्न हो सकते हैं. घसैला रोग के विशिष्ट लक्षण समय से पहले और हल्के पीले- हरे पत्तियों पर दिखाई देते हैं. बौनापन, डंठल के नीचे से ऊपर तक पार्श्व प्ररोह, पत्ती की बनावट का नरम होना और गंभीर रूप से प्रभावित पौधों में तनो की जगह बारीक़ घास जैसे पतली शाखाएं निकलती हैं व पूरा पौधा झाडी नुमा दिखता हैं. गन्ने बौने, पतले, एवं छोटे पोरियों वाले होने के कारन पिराई योग्य नहीं होते हैं.

पेड़ी का बौना रोग (रेटून स्टंटिंग)

गन्ने में यह रोग लीफ्सोनिया (क्लैविबैक्टर) जाइली नामक बैक्टीरिया से होता है इस रोग का नाम रटून बौनापन मिथ्या नाम है क्योंकि यह रोग पौधों की फसल के विकास को भी घातक रूप से रोकता है. इस बीमारी के कारण दुनिया भर में गन्ना उद्योगों को किसी अन्य बीमारी की तुलना में अधिक आर्थिक नुकसान होता है. महत्वपूर्ण गन्ना उत्पादक देशों में इस रोग के कारण उपज में 5 से 30 प्रतिशत तक की हानि दर्ज की गई है. भारत में रोग उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में गन्ना उत्पादन को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है. रोग हरियाणा में गन्ने को भी प्रभावित करता है और कुछ चीनी मिल क्षेत्र में नुकसान का कारण बनता है.

लक्षण

गन्ने में यह रोग बाहरी लक्षण नहीं दिखाता है जैसा कि अधिकांश पौधों की बीमारियों में पाया जाता है. रोगी पौधे पतले एवं पोरियां छोटी हो जाती हैं तथा खेत में गन्नों की संख्या काम हो जाती हैं गन्नों को चाकू से चीरने पर गांठों का रंग हलका गुलाबी दिखाई देता हैं इस रोग के कारण अंकुरण एवं उपज पर प्रभाव पड़ता हैं अटवा यह रोग बीज काटने वाले औजारों से फैलता हैं

पोक्खा बोइंग

गन्ने का यह रोग फ्यूजेरियम मोनिलिफोर्मे नामक फफूंद से होता है यह रोग सामन्य तौर पर मानसून के महीनों में खेत में दिखाता है. हालांकि, यह महत्वपूर्ण उपज हानि का कारण नहीं हो बनता, लेकिन इसमें अस्थायी रूप से फसल की वृद्धि को रोकने की क्षमता है. यह रोग पूरे देश में गन्ने में आता है और इस रोग के लक्षण गंभीर रूप महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और केरल में दर्ज किए गए हैं. हरियाणा में पिछले कुछ वर्षों से मानसून के दौरान सभी मिल जोन क्षेत्र में विभिन्न किस्मों पर दिखाता है और नुकसान का कारण बनता है.

लक्षण

इस रोग की दो अवस्थाये पोक्खा बोइंग एवं टॉप रॉट के रूप में प्रसारित होती हैं इस रोग के लक्षण जून-जुलाई में प्राम्भ होते हैं  रोगी पौधे की ऊपरी पत्तियां आपस में उलझ जाती हैं जो बाद की अवस्था में किनारे से कटती जाती हैं रोग ग्रस्त गन्ने की गोब लम्बी हो जाती हैं अंत में गोब वाला भाग मर जाता हैं और इसकी अगल-बगल आँखों में फुटाव होता हैं रोग ग्रस्त पतिया कुछ समय पश्चात स्व्ह ही सामान्य स्थिति में आ जाती हैं

पीली पती रोग (वाई अल डी)

गन्ने का यह रोग विषाणु से होता है जो सक्रमित बीज तथा माहुं कीट द्वारा फैलता हैं

लक्षण

भारत में यह विभिन किस्मों में शीघ्रता से फैल रहा हैं इस रोग के शुरुआती लक्षण बिजाई के 5 -6 महीनों बाद खेत के कुछ हिस्सों में पतियों  पर दिखाई देता हैं रोगी पौधों में पतियों की मध्सीरा पीली पड़ जाती हैं खेत में नमी से ये रोग अधिक फैलता हैं

एकीकृत रोग प्रबंधन

  1. बीज गन्ना शुद्ध व सवस्थ होना चाहिए

  2. बुआइ से पहले कटे हुवे पेडो के दोनो सिरों को भली-भांति देख लेना चाहिए यदि कटे हुवे सिरे से लाल रंग दिखाई दे तो ऐसे पेडो की बुवाई नहीं करनी चाहिए

  3. रोगग्राही प्रजातियों के स्थान पर रोग रोधी प्रजातियों की बुवाई करनी चाहिए

  4. बीज गन्ना को बुवाई से पहले उष्ण जल में 50oCतापमान पर दो घंटे उपचारित कर बोना चाहिए

  5. रोगी पौधा दिख्ते ही उखाड़ फेंक देना चाहिए

  6. फसल की कटाई के बाद भूसे को जला देना चाहिए

  7. अगर गन्ने में रोग लग जाय तो फसल चक्र अपनाना चाहिए

  8. रोगी खेत का जल सवस्थ खेत में नहीं जाना चाहिए

  9. बीज गन्ना को मैंकोजेब 2 ग्राम प्रति लीटर के घोल में 4 -5 मिनट तक डुबोकर बीज उपचार कर फिर बजाई करे एक एकड़ खेत की बिजाई के लिए पोरियों के उपचार के लिए 100 लीटर पानी में तैयार घोल पर्याप्त हैं

  10. रोग ग्रस्त गन्नो के खेत से निकाल कर 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम का घोल डाले या 5 -10 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर प्रति झुंडो में डालने से बिमारियों का फैलाव रोका जा सकता हैं

  11. बीज गन्ने का बोरिक एसिड + ट्राइकोडर्मा विरिडी के घोल में 10 मिनट डुबो कर बिजाई करनी चाहिए.

लेखक

प्रवेश कुमार, राकेश मेहरा एवं पूनम कुमारी

पादप रोग विभाग

चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार

English Summary: Major diseases of sugarcane and their disease management
Published on: 29 March 2022, 10:36 AM IST

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