कपास विश्व की महत्वपूर्ण प्राकृतिक रेसे और नकदी फसल में से एक हैं यह देश की औद्योगिक और कृषि अर्थव्यवस्था में प्रमुख भूमिका निभाती हैं. भारत में कपास सूती कपड़ा उद्योग के लिए बुनियादी कच्चा माल (सूती फाइबर) प्रदान करती हैं. कपास पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश राज्यों में खरीफ की फसल रूप में उगाई जाती हैं कपास में विभिन्न प्रकार के रोग पाए जाते हैं, जिसके कारण इसकी क्षमता दिन प्रतिदिन कम होती जा रही हैं. कपास की फसल के प्रमुख रोग, रोग कारक एवं रोग के लक्षण इस प्रकार हैं.
जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग
जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग उत्तर भारत में उगने वाली कपास की मुख्य बीमारी हैं. यह रोग बीज एंव मृदा जनित जेन्थोमोनास एक्जेनोपोडिस पैथोवार मालवेसियरम नामक जीवाणु से पैदा होता हैं. यह पौंधो के सभी हिस्सों में लग सकता हैं. इस रोग को कई नामों से भी जाना जाता हैं.
लक्षण
जीवाणु बीज पत्र, पतियों, शाखाओं और टिन्डो पर हमला करता हैं. आमतौर पर जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग के लक्षण बीज-पत्रों (कॉटीलिडन) पर दिखते हैं तथा बीज-पत्रों के किनारे पर छोटे, गोलाकार आकार के जलसिक्त धब्बे बनते हैं. ये धब्बे बाद में भूरे या काले हो जाते हैं तथा बीज पत्र सिकुड़ जाते हैं. बीज-पत्रों से संक्रमण तने से होकर पूरे पौधे पर फैल जाता हैं फिर पत्तियों की निचली सतह पर छोटे-छोटे जलसिक्त धब्बे बनते हैं, लेकिन कुछ समय बाद ये धब्बे पत्तियों की दोनो सतहों पर दिखाई देते हैं. धीरे - धीरे आकार में बड़े हो जाते हैं, लेकिन ये छोटी शिराओं तक ही सीमित रहते हैं और कोणाकार बन जाते हैं. अतः इस अवस्था को कोणिय धब्बा (एंगुलर लीफ स्पोट) रोग कहते हैं. ये धब्बे बाद में भूरे तथा काले हो जाते हैं. जीवाणु धीरे धीरे नई पत्तियों पर फैलने लगते हैं और पौधा मुरझा कर मर जाता है. इस अवस्था को सीडलींग ब्लाइट कहते हैं. जब प्रभावित पत्तों की शिरायें झुलस जाती हैं और इस अवस्था को ब्लेक ब्लाइट कहा जाता हैं. रोग की उग्र अवस्था में रोग ग्रसित पौंधो की पत्तियां सूखकर कर गिरने लग जाती हैं टीण्डों पर छोटे-छोटे जलसिक्त एवं तिकोने धब्बे बन जाते हैं जो कि आपस में मिलकर बड़े हो जाते हैं और टीण्डें सङने लगते हैं.
विगलन या पौध अंगमारी या उखटा रोग
विगलन या उखटा रोग मुख्य रूप से देशी कपास में ही लगता है. यह रोग मृदा जनित फ्युजेरियम स्पिसीज नामक फफूंद से होता है.
रोग के लक्षण
यह रोग आमतौर पर 35 से 45 उम्र के पौंधो में दिखाई देता है. इस रोग से प्रभावित पौंधो के पत्ते पीले हो जाते हैं लेकिन बाद में भूरे होकर मुरझाने लगते हैं, जिसके बाद अंत में गिर जाते हैं. इस रोग से प्रभावित पौधे अचानक मुरझा कर धीरे-धीरे सूख जाते हैं तथा रोग ग्रस्त पौंधो की जड़े अंदर से भूरी व काली हो जाती हैं. रोगी पौंधो को चीर कर देखने पर उत्तक काले दिखाई देते हैं. यह रोग शुरू में एक छोटे से पैच में होता है. लेकिन जैसे इनोकुलम बढ़ता है, पैच आकार में भी बढ़ते हैं.
जड़ गलन रोग
जड़गलन रोग बीज एंव मृदा जनित राइजोक्टोनिया नामक फफूंद से होता है, जड़गलन रोग देशी एवं अमेरिकन कपास दोनों में लगता है.
रोग के लक्षण
यह रोग आमतौर पर 35 से 45 उम्र के पौंधो में दिखाई देता है. इस रोग से प्रभावित पौंधे अचानक मुरझा कर धीरे-धीरे सूख जाते हैं तथा ऐसे पौंधे हाथ से खींचने पर आसानी से उखड़ जाते हैं. पौंधो की जड़ों की छाल गल सड़कर अलग हो जाती है. इन जड़ों पर मिट्टी चिपकी रहती है तथा ये जड़ें नमीयुक्त रहती हैं ऐसी जड़ो का रंग पीला होता है तथा इस रोग में पौधे छोटी अवस्था में ही मर जाते हैं, जिससे खेत में पौंधो की संख्या घट जाती हैं व कपास के उत्पादन में कमी आने लगती है.
कपास का पत्ता मरोड़ रोग
उत्तरी भारत में विषाणु पत्ता मरोड़ रोग कपास का एक महत्वपूर्ण रोग है. यह कॉटन लीफ कर्ल वायरस के कारण होता है, जो कि जेमिनिविरिडे परिवार का एक बेगोमोवायरस है. यह विषाणु मोनोपारटाइट सिंगल स्ट्रेंडेड सरकुलर डी.एन.ए. जीनोम तथा दो सैटेलाइट डी.एन.ए. बीटा से मिलकर बना होता है. यह विषाणु रोगी पौंधो से स्वस्थ पौंधो तक सफेद मक्खी के व्यस्कों द्वारा फैलाया जाता हैं .
रोग के लक्षण
पत्तियों का नीचे और ऊपर की ओर मुड़ना, शिराओं का मोटा होना और पत्तियों के नीचे की तरफ उद्वर्ध होना रोग के लक्षण हैं. सर्व संक्रमण में सभी पत्तियां मुड़ी हुई जाती हैं तथा टिंडे का आकार छोटा एवं क्षमता कम हो जाती है. यह रोग सफेद मक्खी के कारण फैलता है. पौधे की पत्तियां छोटी होकर कपनुमा आकृति में मुड़ जाती हैं. पत्ती की नीचे की नसें मोटी हो जाती हैं प्रभावित पौधे बौने रह जाते हैं जिन पर शाखाएं, फूल तथा टिण्डे कम बनते हैं फलस्वरूप पैदावार तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं.
रोगों का समेकित प्रबधंन
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फसल चक्र का पालन करना चाहिए.
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फसलों के अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए .
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खेत की अच्छे से जुताई करनी चाहिए जिससे मृदाजनित जीवाणु और फफूंद सूर्य की रोशनी से नष्ट हो जाए.
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जिन खेतों में पहले से जड़ गलन रोग एंव उखटा रोग एंव जीवाणु अंगमारी झुलसा रोग का प्रकोप हो उसमें कपास की बुवाई नहीं करनी चाहिए .
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खेत में खरपतवार को नष्ट कर दें .
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बिजाई के 6 सप्ताह के बाद या जुलाई के पह्लव सप्ताह में स्ट्रेप्टोसाइक्लिन (6- 8 ग्राम प्रति एकड़ ) व् कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (600-800 ग्राम प्रति एकड़) को 150-200 लीटर पानी में मिलाकर 15-20 दिन के अंतर् पर 4 छिड़काव करे .
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फफूंद से बचाव के लिए बीजों को कार्बोक्सिन @ 4 ग्राम/किलोग्राम से उपचारित करें .
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कपास का पत्ता मरोड़ रोग से बचाव के लिए कीटनाशकों के उपयोग से सफेद मक्खियों को नियंत्रित करें .
पूनम कुमारी, डॉ प्रशांत कुमार चौहान, प्रवेशकुमार, डॉ जितेन्द्र कुमार एवं डॉ वेद प्रकाश यादव
पादप रोग विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
सस्य विज्ञान विभाग, चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
आनुवंशिकी एवं पादप प्रजनन विभाग, श्री कर्ण नरेन्द्र कृषि विश्वविद्याल, जोबनेर