बुन्देलखंड क्षेत्र दलहन उत्पादन के लिए प्रमुख माना जाता है प्रायः इस क्षेत्र को ‘दाल के कटोरे’ की रूप में जाना जाता है. इस क्षेत्र की जलवायु शुष्क रहती है जो दलहन उत्पादन के लिए अनुकूल है. गर्म और आर्द्र जलवायु में मूंग एवं उड़द की खेती सफलता पूर्वक की जाती है, क्योंकि इन फसलों में सिंचाई की आवश्यकता भी कम होती है.
अनियमित वर्षा बुंदेलखंड में बढ़ती सूखे की प्रवृत्ति को दर्शाता है और ऐसी स्थिति में वर्षा आधारित फसलों की उपज को बनाए रखना चुनौती है.
बुन्देलखण्ड में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 1070 मिली मीटर होने बाद भी यह क्षेत्र प्रायः सूखाग्रस्त रहता है, क्योंकि 90 से 95 प्रतिशत वर्षा केवल खरीफ़ ऋतु में 15 सितम्बर तक ही हो जाती है. राज्य में सर्वाधिक औसत तापमान बुंदेलखंड में पाया जाता है और खरीफ़ में इस क्षेत्र का तापमान 23 से 35.4 डिग्री सेल्सियस तथा 88 प्रतिशत सापेक्षिक आर्द्रता होती है.
इन फसलों की प्रमुख विशेषता है कि इनको कम पानी में भी सफलता पूर्वक उगाया जा सकता है. ये फसलें अधिक तापमान के लिए सहनशील तथा कम लागत और कम दिनों (65-75 दिन) में पक कर तैयार हो जाती है. पोषण सुरक्षा एवं भूमि की उर्वरता में मूंग और उड़द का प्रमुख स्थान है, क्योंकि मूंग की दाल को उत्तम आहार माना गया है, जो पाचन क्रिया को ठीक बनाए रखने में मदद करती है.
प्रायः पत्थ के रूप में रोगियों को मूंग की दाल का पानी या अधिक दाल का पानी दिया जाता है. मूंग और उड़द की दाल में प्रोटीन, विटामिन बी, थायमीन, राइबोफ्लेविन, विटामिन सी, आयरन, कैल्शियम, घुलनशील रेशा और स्टार्च पाया जाता है. साथ ही मूंग और उड़द की गहरी जाने वाली जड़ें भूमि की संरचना को परिवर्तित करते हैं तथा उर्वरा शक्ति भी बढ़ाती हैं.
प्रायः मूंग और उड़द की फसल का उपयोग हरी खाद के रूप में भी किया जाता है. मूंग और उड़द भारत की महत्वपूर्ण दलहनी फसलें हैं. इनके उत्पादन में हमारा देश विश्व का अग्रणी है. विभिन्न फसलों के साथ और फसल-चक्रो में उगाये जाने के कारण दलहनी फसलों में मूंग और उड़द का प्रमुख स्थान है.
वर्ष 2020-21 में मूँग एवं उड़द का उत्पादन क्रमशः 26 लाख 40 हजार टन तथा 23 लाख 80 हजार टन दर्ज किया गया है (स्रोत: वर्ष 2020-21 खाद्यानों के उत्पादन का तृतीय अग्रिम अनुमान, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय). जो इन फसलों की बुन्देलखंड क्षेत्र में खेती के लिये अनुकूलता दर्शाता है. भारत में मूंग और उड़द के कुल उत्पादन में योगदान देने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश का एक प्रमुख स्थान है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में फसलों में लगने वाले रोग एवं कीटों के लगातार आक्रमण और सूखे के कारण उत्पादन स्थिर है.
इन फसलों के रोग, कीट तथा उनके नियंत्रण की जानकारी के अभाव में किसानों को नुकसान का सामना करना पड़ता है. इन फसलों के मुख्य रोग जीवाणु और विषाणु जनित रोग हैं, जिनके द्वारा 70-100 प्रतिशत तक की हानि हो जाती है. यदि इन रोगों की सही पहचान करके ठीक समय पर प्रबंधन कर लिया जाये, तो पैदावार में होने वाली हानि को काम किया जा सकता है. खरीफ़ ऋतु में मूंग और उड़द की फसल को रोगों से बचाव हेतु बुंदेलखंड एवं आस पास के क्षेत्रों के लिए रोग प्रतिरोधी तथा सहनशील किस्में उगाने की सलाह दी जाती है, जिसका विवरण तालिका-1 में दिया गया है. इस लेख में मूंग और उड़द की फसलों में लगने वाले प्रमुख रोग एंव कीट तथा उनका प्रबंधन का उल्लेख है.
प्रमुख रोग एवं प्रबंधन (Major Diseases and Management)
विषाणु जनित रोग
पीला मोज़ेक (पीत चितेरी) रोग: इस रोग का प्रकोप मूंग और उड़द में अधिक व्यापक होता है. यह रोग बेगोमो समुदाय के विषाणु (मूंगबीन येलो मोज़ेक वायरस) द्वारा लगता है. इस रोग के वाहक का कार्य सफ़ेद मक्खी के द्वारा होता है, जिससे विषाणु एकरोगी पौधे से दूसरे पौधे तक पहुँचता है. यह विषाणु मिटटी, बीज और संस्पर्श द्वारा संचारित नहीं होता है.
पीत चितेरी विषाणु एक मौसम से दूसरे मौसम तक जीवित रहकर एक फसल से दूसरी फसल में फैलता रहता है. रोग फैलाने की गति सफेद मक्खी की संख्या पर निर्भर करती है. मूंग और उड़द की फसल में इस रोग के आक्रमण से, फसलों के आनुवंशिक रूप तथा फसल संक्रमण के चरण के आधार पर, कुल फसल उपज हानि 10 से 100 प्रतिशत के बीच हो सकती है. शुरुआत में इस रोग के लक्षण नई पत्तियों पर पीले चित्तीदार छोटे-छोटे धब्बे के रूप में दिखाई देते है.
यह धब्बे एक साथ मिलकर तेजी से फैलते हैं, जिससे पत्तियों पर बड़े-बड़े पीले धब्बे बन जाते हैं. अंत में पत्तियाँ पूर्ण रुप से पीली हो जाती हैं. रोगी पौधे देर से परिपक्व होते है और पौधों में फूल तथा फलियां स्वस्थ्य पौधों की अपेक्षा बहुत ही कम लगती हैं. फलस्वरूप फलियां कम तथा आकर में छोटी रह जाती है, उनका रंग भी पीला दिखाई देता है.
पत्ती शिकन/ पत्ती ऐंठन/ झुर्रीदार पत्ती रोग: यह रोग मूंग और उड़द का एक अन्य विषाणु रोग है. इस रोग को अधिकतर उड़द में ही देखा गया है. यह रोग फसल में टोस्पोवायरस समुदाय के उड़द बीन पत्ती शिकन वायरस नामक विषाणु से लगता है. फसल पर यह रोग माहू और सफ़ेद मक्खी द्वार फैलता है. इस रोग के लक्षण नई कलिकाओं और पत्तियों पर दिखाई देते हैं, पार्श्व शिराएं और तनों के निकट गहरा हरे रंग का संक्रमण हो जाता है.
इस विषाणु द्वारा पौधा अपनी प्रारम्भिक अवस्था में संक्रमित हो तो शत प्रतिशत हानि भी हो सकती है. इस रोग के लक्षण में बुआई के पांच सप्ताह बाद नई कलियों में सडन पैदा हो जाती है. फलस्वरूप पौधे प्रारंभिक अवस्था में ही मरने लगते है तथा परिपक्व पौधों में रोगी पौधे की पत्तियां कुंडलाकार नीचे की और मुड़ जाती है. ये पत्तियां छूने पर सामान्य पत्ती से अधिक मोटी एवं खुरदरी प्रतीत होती हैं. पत्तियों की शिराएं हरे रंग से लालिमायुक्त भूरे रंग में परिवर्तित हो जाती है तथा बाद में ये रंग पत्तियों के डंठल तक पहुँच जाता है. इस रोग का फैलाव संक्रमित बीजतथा रोगी पौधे की पत्तियों के स्वस्थ पौधों के साथ रगड़ने से भी उनको संक्रमित करती है.
विषाणु जनित रोगों का नियंत्रण:
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रोग सहनशील तथा प्रतिरोधी किस्मों का चयन.
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रोगी पौधों को उखाड़ कर जला दें या गहरी मिट्टी में दबा दें.
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रोग वाहक कीटों के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोरपिड 17.8 एस.एल. की 3-5 मि.ली. प्रति किलो बीज के दर से बीजोपचार करें.
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बुवाई के समय मृदा में फोरेट 10 सी जी @ 1 किग्रा a.i. प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें जो सफ़ेद मक्खी एवं माहू के प्रकोप को कम करता है.
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डाईमेथिएट 30 ई.सी. की 1.7 मि.ली. या थियामेथोक्सम 25 डब्ल्यू. जी. को 0.30 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 14 दिनों के अंतराल में दो से तीन बार छिडकाव करें.
कवक जनित रोग
सरकोस्पोरा पत्ती धब्बा रोग: यह रोग मूंग और उड़द का एक प्रमुख रोग है जिससे प्रतिवर्ष उपज में भारी क्षति होती है. वातावरण में अधिक नमी होने की दशा में इस रोग का संचारण होता है. यह रोग सरकोस्पोरा केनेसेन्स नामक कवक से होता है. यह कवक रोग ग्रसित पौधों के अवशेषों व मृदा में रह जाता है.
वातावरण में अधिक आद्रता होने की स्थिति में पौधों के तनो और फलियों पर हल्के धूसर रंग के असामान्य आकार के धब्बे दिखाई देते हैं, जिनका बाहरी किनारा गहरे से भूरे लाल रंग का होता है. अनुकूल परिस्थितिओं में यह धब्बे बड़े आकर के हो जाते हैं और अंत में रोग ग्रसित पत्तियाँ गिर जाती हैं.
पुष्पन की अवस्था में जब कवक को अनुकूल वातावरण मिलता है तब यह रोग तेजी फैलता है और रोग बढ़ने से पूरी फसल को नष्ट कर देता है परिणाम स्वरुप पत्तियों, फूलों और अल्प विकसित फलियों के गिरने से होने वाली हानि में बढ़ोतरी जाती है. जिससे फसल उत्पादन में 60 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है.
एन्थ्रक्नोज रोग: यह रोग पौधों में एन्थ्रक्नोज नामक कवक से होता है. इस रोग के रोग जनक मूलतः बीज जनित तथा फसल अवशेषों पर पाए जाते हैं. जब वातावरण का तापमान कम और अधिक आद्रता होती है, ऐसी स्थिति में बीज के अंकुरण से लेकर फली बनने तक यह रोग पौधे की किसी भी अवस्था में आक्रमण कर सकता है. इसके बीजाणु हवा द्वारा रोगी पौधे से स्वस्थ पौधे को रोगी कर देते हैं. यह रोग बीज पत्र तथा तना, पत्ती एवं फलियों पर होता है. संक्रमित भाग पर अनियमित आकर के भूरे धब्बे लालिमा लिए हुए दिखाई देते हैं जो बाद में गहरे रंग के हो जाते हैं. यह धब्बे जब बड़े होते हैं, तब पत्ती और फलियों को सुखा देते हैं, जिससे फसल में क्षति बढ़ जाती है.
कवक जनित रोगों का नियंत्रण:
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पुरानी फसल एवं रोगग्रस्त फसल के अवशेषों को खेत से हटा दें.
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स्वस्थ बीज तथा अवरोधी किस्मों का उपयोग करें,
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बीजों को बोने से पूर्व फफूंदनाशी जैसे- कार्बेन्डाजिम (2.0 ग्राम), केप्टान अथवा थीरम (2.5 ग्राम), बाविस्टिन (1.5 ग्राम) प्रति किलो बीज दर से बीजोपचार करना चाहिए.
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पर्णीय छिडकाव के लिए फफूंदनाशी जैसे मैंकोज़ेब (2.0 ग्राम) प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल से दो बार छिडकाव करें.
मुख्य कीट एवं उनका प्रबंधन
तम्बाकू की इल्ली (कैटरपिलर): यह एक बहुत हानिकारक कीट के श्रेणी में आता है. मादा शलभ रात्रि में, पत्तियों के नीचे समूह में लगभग 415 से 1200 अण्डे देती है. जिनसे 8 से 13 दिनों में छोटी इल्लियां बाहर आती हैं और यह 4 से 5 दिनों तक समूह में रहकर पत्तियों को खुरचकर खाना सुरू करती है. इसके बाद ये खेत में फसल पर फेल जाती है. इनका रंग गहरा हर होने के साथ-साथ शरीर पर काले रंग की त्रिभुजाकार सरंचना भी होती है. ये 25 से 35 दिनों तक इल्लियां बनी रहती है. ये पौधों की पत्तियों, फूलों व नये शीर्ष भाग को खाकर नष्ट करती है.
पत्तियों पर उपस्थित छेद इनकी उपस्थिति को दर्शाते हैं. इसके बाद ये कोष अवस्था के लिए रेशेदार कोकून बनती है और उसमे एक से दो सप्ताह तक समय बिताती है. इसका जीवन चक्र 6 से 12 सप्ताह तक हो सकता है. एक वर्ष में यह 3 से 4 पीढियों को जन्म देती है. यह इल्ली पौधों की पत्तियाँ खा कर जाली नुमा संरचना बना देतीं है. बाद में ये पुष्प कलिकाएँ और फलियों को खाकर अत्यधिक नुकसान पहुँचाती हैं.
सफ़ेद मक्खी: यह कीट आकर में बहुत छोटे होते हैं और इनका रंग सफ़ेद धुँए जैसा होता है. इनकी मादाएं पत्तियों के नीचे अलग-अलग व लगभग 119 हल्के पीले रंग के अंडे देती हैं. जोकि बाद में भूरे रंग के हो जाते हैं. इनसे 3 से 5 दिनों में छोटे निम्फ बाहर आते हैं. यह अपना जीवन चक्र 14 से 120 दिनों में पूरा करते है और एक वर्ष में लगभग 11 पीढियों को जन्म देते हैं.
यह बहुत ही आक्रामक होते है और एक छोटी सी आहट से ही एक पौधे से दूसरे पौधों पर पहुंच जाते हैं. यह पौधों की पत्तियों में नीचे की ओर चिपक कर पत्तों का रस चूस कर उनको रंगहीन या पीला कर देते हैं. इस से साथ- साथ यह इन फसलों में पीत चितेरी रोग के लिए वाहक का कार्य भी करता है. जो कि एक विषाणु जनित रोग है. इस रोग में प्रभावित पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती है और पौधों में भोजन बनाने की क्षमता कम हो जाने के कारण उत्पादन क्षमता भी कम हो जाती है. यह इन फसलों में अत्यधिक नुकसान पहुँचाता है.
फली भेदक
इन फसलों में दो प्रकार के फली बेधकों का आक्रमण होता है. एक जोकि हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा व दूसरा मारुका टेस्टूलालिस के नाम से जाना जाता है. दोनों कीटों की इल्लियां फलियों में बन रहे दानो को खाकर नष्ट करती है. फसल की वनस्पतिक अवस्था पर इनका प्रभाव होने से प्रभावित पौधा पत्तियों रहित हो सकता है.
हेलिकोवर्पा आर्मिजेरा की इल्लियां फलियों में अपना सिर डालकर दानो को खाती है जबकि मारुका टेस्टूलालिस की इल्लियां फलियों में अन्दर भी रहकर वृधि कर रहे दानों को खाकर नष्ट करती है. इन कीटों की इल्लियां पौधों के सभी भागो को खाकर नष्ट कर सकती है. परन्तु ये पौधे के कोमल भागों को ज्यादा पसंद करती है. इन कीटों की इल्लियां फसल अवधि के अनुरूप फसल को प्रभावित करती है.
माहू (एफ़िड)
माहू का प्रकोप बुंदेलखंड क्षेत्र में और दलहनी फसलों पर कम होता है, लेकिन यदि वातावरणीय कारको में बादल की उपस्थिति कुछ समय के लिय स्थिर रहती है तो यह अपनी जनसंख्या को अत्यधि तेजी से बढ़ाते हैं और फसलों को अत्यधिक क्षति पहुचाते हैं. इनके प्रौढ़ चमकीले काले रंग के तथा लम्बाई में 2 मिली मी. तक होते हैं. इनके निम्फ़ और प्रोढ़, पौधों के कोमल भागों से रस चूसते रहते हैं जोकि बहुत अधिक संख्या में दिखाई देते हैं. प्रभावित पौधों की पत्तियाँ ऐंठ जाती हैं. माहू अपने शरीर से एक मीठा पदार्थ निकलते रहते हैं. बाद में इस पदार्थ के ऊपर तना सड़न पैदा करने वाले कवक का विकास होने से पौधों की उत्पादन क्षमता कम हो जाती है. माहू विषाणु जनित रोगों के वाहक का कार्य करती है.
तैला कीट (थ्रिप्स)
आकार में छोटे और पत्तियों के नीचे की सतह पर रह कर रस चूसते रहते हैं. प्रभावित पौधों की पत्तियों पर चमकीले रंग के धब्बे नजर आते हैं तथा इसके द्वारा सबसे अधिक नुकसान फूल बनने की अवस्था पर होता है, जिसके कारण प्रभावित पौधे फूलरहित हो जाते हैं और जिसका सीधा प्रभाव फसल उत्पादन पर पड़ता है.
कीट नियंत्रण (Pest Control)
फसलों की समय से बुवाई करने से कीटों के द्वारा होने वाले नुकसान से फसल को बचाया जा सकता है.
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ज्वार और बाजरा जैसी फसलों को मूंग और उड़द के साथ बोने से या खेत के किनारों पर आकर्षक फसलें (अरवी या अरण्डी) बोने से कीटों से फसल को बचाया जा सकता है.
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पौधों से अंडो व इल्लियों को चुनकर नष्ट कर दें तथा खेतों पर कीटों को खाने वाले पक्षियों के बैठने के लिए लकड़ी के दण्डों से बने आकार के लगभग 20 डंडे प्रति हेक्टेयर के हिसाब से लगायें,
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खेत पर प्रकाश प्रपंच का प्रयोग प्रौढ़ शलभ को आकर्षित कर मारने के लिए करें.
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खेतों में चार फेरोमोन प्रपंच (फेरोमोन ट्रैप) प्रति हेक्टेयर की दर से प्रौढ़ शलभ को आकर्षित कर मारने के लिए करें.
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रोग वाहक कीटों के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोरपिड 17.8 एस.एल. की 3-5 मि.ली प्रति किलो बीज के दर से बीजोपचार या बुवाई के समय मृदा में फोरेट 10 सी जी @ 1 किग्रा a.i. प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करें.
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डाईमेथिएट 30 ई.सी. की 1.7 मि.ली. या थियामेथोक्सम 25 डब्ल्यू. जी. को 0.30 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर 14 दिनों के अंतराल में दो से तीन बार छिडकाव करें.
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इल्लियों से बचाव के लिए क्यूनोलफोस 20 ई.सी. की 2.5 मिलीलीटर मात्रा कोएक लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें.
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खड़ी फसल में कीटों के जैविक नियंत्रण हेतु व्युवेरिया बेसियाना की 2.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर सायंकाल छिड़काव करें, जिसे आवश्यकतानुसार 15 दिन के अंतराल पर दोहराया जा सकता है.
लेखक:- मीनाक्षी आर्य, शैलेंद्र सिंह, सुंदर पाल एवं एस.के. चतुर्वेदी
रानी लक्ष्मी बाई केंदीय कृषि विश्वविद्यालय, झाँसी-284003