वर्तमान समय में भारतीय कृषक खरीफ ऋतु में मूंगफली की फसल के लिए खेत की तैयारी में लग गए हैं, लेकिन बीजांकुरण से लेकर फसल परिपक्वन अवस्था तक मूंगफली की फसल विभिन्न प्रकार के कीट व रोगों से प्रभावित होती हैं, जिससे किसानों को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है। हमारे इस लेख का प्रमुख उद्देश्य किसानों तक कीट एवं रोग प्रबंधन की बेहतर तकनीकियों का सांझा करना है, जिससे की किसान समय रहते कम लागत में हानिप्रद कीट पतंगों से छुटकारा पा सकें और पर्यावरण पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। खाद्य सुरक्षा में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए कीट पतंगे प्रमुख जैविक बाधाएँ हैं। कीट द्वारा फसलों पर लगभग 10-30% तक क्षति अनुमानित है। एक सामान्य रिपोर्ट के अनुसार कीटों के कारण सम्पूर्ण देश के उत्पादन में लगभग ₹ 260000 मिलियन प्रति वर्ष हानि दर्ज की जाती है।
मूंगफली (अरेकिस हाइपोजिया एल०), भारत की एक महत्वपूर्ण बहुउपयोगी तिलहनी फसल है, जो कि क्षेत्रफल की दृष्टि से प्रथम स्थान तथा उत्पादन की दृष्टि से सोयाबीन के बाद दूसरा स्थान रखती है। इसे पीनट एवं कच्चा बादाम के नाम से भी जाना जाता है, मूंगफली तथा इससे तैयार किये गये विभिन्न उत्पाद अनेक देशों को निर्यात किये जाते हैं। मूंगफली के तेल का उपयोग विभिन्न रसोई कार्यों तथा वनस्पति घी, साबुन व अन्य सौन्दर्य प्रसाधनों के निर्माण में किया जाता है। मूंगफली की खली एक बहुमूल्य खाद एवं पशु आहार है। खली में 7-8 प्रतिशत नाइट्रोजन, 1.5 प्रतिशत फॉस्फोरस तथा 1.5 प्रतिशत पोटाश पाया जाता है। इसके छिलकों का उपयोग अक्सर ईंधन के रूप में किया जाता है। दानों को कच्चा, तलकर या मीठे व नमकीन व्यंजन बनाकर काम में लाया जाता है। इसके पौधों को सुखाकर साइलेज के रूप में या हरा पशुओं को भी खिलाया जाता है। भारत में मूंगफली का उपयोग मुख्य रूप से बीज के रूप में घरेलू उपयोगों में तथा तेल निकालने के लिए किया जाता है। छिली हुई मूंगफली को कच्चा, भूनकर, तलकर व नमक तथा अन्य मसाले मिलाकर या उबालकर अन्य सब्जियों के साथ खाया जाता है। मूंगफली वानस्पतिक प्रोटीन का एक सस्ता एवं अच्छा स्रोत है। मूंगफली में मांस से 1.3 गुना, अंडों से 2.5 गुना तथा फलों से 8 गुना अधिक प्रोटीन होता है।
मूंगफली के बीज में लगभग 48-50% तक खाद्य तेल, 26-28% तक प्रोटीन, लाभकारी विटामिन और खनिज अवयव पाए जाते हैं। मूंगफली में 26-28 प्रतिशत उच्च कोटि की प्रोटीन विद्यमान होने के कारण यह पाचन की दृष्टि से भी शीघ्र पचने वाली होती है। मूंगफली की खेती प्रमुख रूप से गुजरात, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, राजस्थान और महाराष्ट्र आदि राज्यों में की जाती है।
वर्तमान आंकड़े
मूंगफली उत्पादन में चीन 17.57 मिलियन टन के साथ पहले स्थान पर है, इसके बाद भारत 6.73 मिलियन टन के साथ दूसरे स्थान पर है, वर्तमान आंकड़ों के अनुसार भारत संपूर्ण विश्व का 13.79 प्रतिशत मूंगफली उत्पादन करता है, तीसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार मूंगफली का उत्पादन खरीफ और रबी 2020-21 में 10.24 मिलियन टन के मुकाबले 2021-22 के लिए 10.08 मिलियन टन था। 2022-23 के दौरान पहले अग्रिम अनुमान के अनुसार, 4.87 लाख टन उत्पादन के साथ मूंगफली 6.04 लाख हेक्टेयर में उगाई गई और उत्पादकता 806 किलोग्राम/हेक्टेयर थी।
आज के आधुनिक समय में अधिकतर किसान हानिकारक जहरीले रसायनों को कीटनाशकों के रूप में प्रयोग कर रहे हैं जिससे विविध प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस चुनौती से लड़ने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन (आई०पी०एम०) प्रणाली सर्वश्रेष्ठ साबित हुई है। मूंगफली की फसल पर विभिन्न प्रकार के कीट एवं रोगों का प्रकोप होता जो कि अग्रलिखित हैं-
माहूँ कीट
वैज्ञानिक नाम- एफिस क्रेस्सीवोरा: (गण- एफिडइडी, कुल- हेमिप्टेरा)
आर्थिक क्षति स्तर (इ० टी० एल०): 5-10 एफिड्स/टर्मिनल अंकुर अवस्था में माहू कीट छोटे आकार के लगभग 2 मिमी लंबे, नाशपाती के आकार के हरे, हरे-भूरे या हरे-काले रंग के होते हैं। इसके निम्फ गहरे भूरे रंग के होते हैं और चमकदार गहरे रंग के वयस्कों में बदल जाते हैं, वयस्क ज्यादातर पंखहीन होते हैं लेकिन कुछ पंख वाले रूप भी देखे जाते हैं। यह एक वर्ष में 12-14 पीढ़ियां पूरी कर लेता है। इसके निम्फ और वयस्क कोमल टहनियों एवं फूलों से रस चूसते हैं, जिससे पर्ण और तनों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। यह कीट मधुरस भी उत्सर्जित करते हैं जिस पर काली फफूंदी प्रवाहित होकर काली परत बनाती है। माहू पीनट स्ट्राइप विषाणु और मूंगफली रोसेट विषाणु कॉम्प्लेक्स फ़ैलाने का काम करता है।
पत्ती का फुदका (लीफ हॉपर)
वैज्ञानिक नाम- इम्पोसका केर्री: (गण- हेमिप्टेरा, कुल- सिकाडैल्लइडी लीफ हॉपर के वयस्क और निम्फ पत्तियों के निचली सतह से रस चूसते हैं, इस कीट से प्रभावित पौधों के पत्तियों के शिराएं सफेद हो जाती हैं, जिससे फसल झुलसी हुई दिखती है जिसे 'हॉपर बर्न' के रूप में जाना जाता है।
थ्रिप्स
वैज्ञानिक नाम- स्किर्टोथ्रिप्स डोरसालिस: (गण- थाईसेनोप्टेरा, कुल-थ्रिपइडी)
आर्थिक क्षति स्तर (इ० टी० एल०): थ्रिप्स 5 वयस्क/टर्मिनल बड्स
इस कीट के निम्फ और वयस्क पत्तियों की सतह से रस चूसते हैं। इसके परिणामस्वरूप पत्तियों की ऊपरी सतह पर सफेद धब्बे और पत्तियों की निचली सतह पर परिगलित धब्बे हो जाते हैं। इसमें नए पत्तों की विकृतियाँ और परिगलित ऊतक के पैची क्षेत्र शामिल होते हैं। क्षति आमतौर पर अंकुरों में देखी जाती है। वयस्क झालरदार पंखों के साथ गहरे रंग के होते हैं। मादा थ्रिप्स पत्तियों और टहनियों के ऊतकों के अंदर 40-50 अंडे देती हैं। अंडे की अवधि 5 दिन, निम्फल अवधि 7-10 दिन और वयस्क अवधि 25-30 दिन होती है। एक वर्ष में कई अतिव्यापी पीढ़ियां पायीं जाती हैं।
लाल बालों वाली इल्लियां (रेड हेयरी कैटरपिलर)
वैज्ञानिक नाम- एमसेक्टा अलबिसट्राइगा: (गण- लेपिडोप्टेरा, कुल- अर्कटीइडी)
इस कीट के कैटरपिलर प्रारंभिक अवस्था में ऊपरी एपिडर्मल परत को बरकरार रखते हुए कोमल पत्रक की निचली सतह को खुरच कर बड़े पैमाने पर पत्तियों को खाता है। बाद में वे पौधों की पत्तियों और मुख्य तने को भीसड़ रूप से खाते हैं। वे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में सामूहिक रूप से गमन करते हैं। गंभीर रूप से प्रभावित खेत ऐसा लगता है मानो जानवर चर रहे हों। कभी-कभी इसके परिणामस्वरूप संपूर्ण फसल नष्ट हो जाती हैं, इसके वयस्क मध्यम आकार के शलभ होते हैं। ए. अल्बिस्ट्रिगा में आगे के पंख भूरे रंग की धारियों के साथ सफेद होते हैं और आगे के किनारों पर पीले रंग की धारियां होती हैं और पीछे के पंख काले निशान के साथ सफेद होते हैं। सिर पर पीली पट्टी पायी जाती है। ए. मूरी में सफेद पंखों में सभी निशान लाल होते हैं। खरीफ के मौसम में बुआई के लगभग एक महीने बाद तेज बारिश होने पर शाम के समय मिट्टी से पिछले पंखों पर काले निशान वाले सफेद शलभ निकलते हैं। यह पत्तियों की निचली सतह पर लगभग 600-700 अंडे देती है। अंडे की अवधि 2-3 दिन होती है। छोटे हरे रंग की सुंडी सामूहिक रूप से पत्तियों को खाती है। एक पूर्ण विकसित इल्ली की लंबाई 5 सेमी होती है, पूरे शरीर पर लाल भूरे रंग के बाल होते हैं जो मौसा पर उत्पन्न होते हैं। इल्ली की अवधि 40-50 दिन है। वर्षा की प्राप्ति के साथ, 10-20 सेमी की गहराई पर मिट्टी की कोशिकाओं में बड़ा हुआ इल्ली कोषावस्था बन जाता है। वे ज्यादातर खेत की मेड़ के साथ और मैदान में पेड़ों के नीचे नम छायादार क्षेत्रों में कोषावस्था बनते हैं और अगले वर्ष तक कोषावस्था डायपॉज से गुजरते हैं।
पत्ती सुरंगक (लीफ माइनर)
वैज्ञानिक नाम- अप्रोआइरिमा मोदीसेल्ला: (गण- लेपिडोप्टेरा, कुल- गीलीचिड़ी)
आर्थिक क्षति स्तर (इ० टी० एल०): लीफ माइनर 2-3 इल्ली/पौधा
इसके निकले हुए हरे कैटरपिलर पत्तों में घुस जाते हैं और हरे ऊतकों को खा जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप भूरे सूखे धब्बे बन जाते हैं। बाद में इल्लियाँ पत्तियों को एक साथ मोड़ लेती हैं और अंदर रहकर हरे ऊतकों को खाती हैं। गंभीर रूप से प्रभावित फसल जली हुई दिखाई देती है। कैटरपिलर (या) कोषावस्था खानों और मुड़े हुए पत्तों के अंदर देखे जा सकते हैं। यह मसूर और सोयाबीन पर भी हमला करता है। इसके वयस्क खेतों में पौधों के चारों ओर तेजी से चक्कर लगाते हुए पाए जाते हैं और पत्तियों की निचली सतह पर चमकदार पारदर्शी अंडे एक-एक करके देते हैं। एक मादा कीट 150-200 अंडे देती है जो 2-3 दिनों में फूट जाते हैं। इसके इल्ली हल्के भूरे रंग के होते हैं। यह सितंबर से नवंबर तक बारानी फसल को और मार्च-अप्रैल के दौरान सिंचित फसल को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं।
तंबाकू का कैटरपिलर
वैज्ञानिक नाम- स्पोडोप्टेरा लिटुरा: (गण- लेपिडोप्टेरा, कुल- नोक्टूइडी)
आर्थिक क्षति स्तर (इ० टी० एल०): स्पोडोप्टेरा/हेलीकोवर्पा 2 इल्ली/पौधा या 40 दिनों में 20-25% पतझड़
इस कीट की नवजात हरी इल्लियां पत्तियों को बहुत चाव से खाती हैं, इस कीट से प्रभावित खेत ऐसे दिखता है मानों जानवर चर रहे हों। चूँकि यह कीट निशाचर होता है इसलिए इल्ली दिन के समय पौधों, मिट्टी की दरारों और मलबे में छिप जाता है।
चने की इल्ली
वैज्ञानिक नाम- हेलिकोवेर्पा आर्मिजेरा: (गण- लेपिडोप्टेरा, कुल- नोक्टूइडी)
पत्तियों पर छोटे या बड़े अनियमित भक्षण छिद्र, शरीर पर पृष्ठीय और पार्श्व धारियों बन जाती हैं, कैटरपिलर फलों के पिंडों में प्रवेश कर उन्हें भी नुकसान पहुंचाते हैं।
कनखजूरा/फली भेदक (एयर विग):
वैज्ञानिक नाम- अनिसोलाबीस सटल्लि: (गण- डरमेप्टेरा, कुल- फोरफीकुलइड़ी)
इस कीट से प्रभावित फलियों में मलमूत्र, रेत के कण या बदरंग गूदे से भरे छिद्र दीखते हैं। फलियाँ गुठली रहित हो जाती हैं।
वयस्क कीट गहरे भूरे से काले रंग के होते हैं। यह मिट्टी में 20-100 के समूह में अंडे देती है और कभी-कभी क्षतिग्रस्त फली के अंदर अंडे देती है। पांच निम्फल इंस्टार वयस्कों के समान होते हैं जो 250 दिनों तक जीवित रह सकते हैं।
फली मत्कुण (पोड बग)
वैज्ञानिक नाम- एलास्मोलोमस सोरडीडस: (गण- हेमिप्टेरा, कुल- लयगएइड़ी)
यह कीट फली परिपक़्वता अवस्था, फली कटाई अवस्था और खलिहान में काटी गई उपज को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। इसके निम्फ और वयस्क दोनों ही खेत में फली से रस चूसते हैं। इसके वयस्क गहरे भूरे रंग का, लगभग 10 मिमी लंबा और 2 मिमी चौड़ा होता है। खेत में, मादा अकेले मिट्टी में या मूंगफली के डंठल पर अपने अंडे देती हैं। एक मादा बग 105 अंडे तक दे सकती है। अंडे की अवधि 4-5 दिन होती है। पहले इंस्टार का उदर चमकदार लाल होता है, बाद में इंस्टार उत्तरोत्तर गहरा होता जाता है। निम्फ और वयस्क दोनों फली को अपने रोस्ट्रम से छेद कर दानों को खाते हैं। निम्फल अवधि 23-29 दिनों की होती है। चूँकि यह निशाचर होता है, यह दिन के समय मिट्टी और मलबे और दरारों के नीचे छिप जाता है।
कली भेदक (बड बोरर)
वैज्ञानिक नाम- अनरसिआ एफिप्पीयस: (गण- लेपिडोप्टेरा, कुल- गीलेचिड़ी)
इसका इल्ली शीर्ष कलियों और अंकुरों में छेद करता है। केंद्रीय धुरी से निकलने वाली नवीन पत्रक शुरू में शॉट-होल के लक्षण दिखाती है। गंभीर संक्रमण में उभरती हुई पत्तियों में केवल मध्यशिरा या कई आयताकार छिद्र प्रदर्शित होते हैं। इल्ली तने के शीर्ष में भी छेद करता है। संक्रमण से 20-35% टहनियों को नुकसान होता है और उपज में 5% की कमी आती है।
तना भेदक (स्टेम बोरर)
वैज्ञानिक नाम- स्फेनोप्टेरा पेरोटेटि: (गण- कोलिओप्टेरा, कुल- बुप्रेसटिडी)
इस कीट के ग्रब मिट्टी की सतह के ठीक नीचे तने में छेद कर देते हैं और मुख्य जड़ों में सुरंग बना देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधे मुरझा जाते हैं। सुरंग में लम्बी चपटी सिरों वाली सूंडियाँ होती हैं। गहरे भूरे रंग का चमकीला भृंग पौधों के तने पर अंडे देता है जो चपटे पूर्वकाल भाग के साथ हल्के सफेद ग्रब में फूटते हैं। यह तने में ही कोषावस्था का भी निर्माण करता है।
दीमक (टरमाइट्स):
वैज्ञानिक नाम- ओडोन्टोटर्मिस प्रजाति: (गण- आइसोप्टेरा, कुल- टर्मिटइड़ी)
दीमक कीट जड़ों को क्षतिग्रस्त करता है, जिसके परिणामस्वरूप पौधे मुरझा जाते हैं। यह फली में छेद कर देता है और फली में नरम ऊतक को नुकसान पहुँचाता है (स्केरिफिकेशन) जिससे मोटा हिस्सा बरकरार रहता है। दीमक गहरे रंग के सिर वाले क्रीम रंग के छोटे कीड़े चींटियों जैसे लगते हैं।
सफ़ेद ग्रब (व्हाइट ग्रब):
वैज्ञानिक नाम- होलोट्राईकिया कोनसेनगुनिया: (गण- कोलिओप्टेरा, कुल- मिलोलोंथइड़ी)
आर्थिक क्षति स्तर (इ० टी० एल०): सफेद ग्रब 1 ग्रब/वर्ग मीटर
सफेद ग्रब से ग्रसित पौधे की वृद्धि मंद हो जाती है। पौधे मुरझा जाते हैं या मर जाते हैं। सफेद और मांसल ग्रब द्वारा जड़ें आंशिक रूप से या पूरी तरह से खा ली जाती हैं। गहरे भूरे रंग के वयस्क भृंग छिपने और अंडे देने के लिए मिट्टी में फिर से प्रवेश करते हैं। मादा 20-80 सफेद, गोलाकार अंडे गुच्छों में देती है। अंडे की अवधि 9-11 दिन। इसके ग्रब सफेद और पारभासी होते हैं। यह मिट्टी में ही कोषावस्था बनता है और अगले वर्ष तक कोषावस्था के रूप में रहता है। वयस्क भृंग मानसून की पहली बारिश के साथ निकलते हैं। यह कीट अपना संपूर्ण जीवन चक्र एक वर्ष में (यूनिवोल्टाइन) पूर्ण कर लेता है।
एकीकृत कीट प्रबंधन
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फसल में से कीटों के अंडों एवं सुंडिया को इकट्ठाकर नष्ट कर देना चाहिये।
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कीट प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।
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प्रतिवर्ष एक ही स्थान पर बार-बार मूंगफली की खेती नहीं करनी चाहिए।
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फसलचक्र को अपनाना चाहिए।
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कीट के कोषावस्था को नष्ट करने के लिए ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए।
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प्रति सप्ताह समय-समय पर फसल का निरीक्षण करते रहना चाहिए।
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खेत के आसपास उगे हुए खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए।
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फसल की समय-समय पर देख-रेख करते रहना चाहिए।
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पुष्पन अवस्था के दौरान टी० आकृति की 50खूंटियां प्रति हेक्टेयर की दर से लगाना चाहिए, जिससे कि चिड़िया उस पर बैठकर सूंडियों का शिकार कर सकें।
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खेत में समान दूरी पर 12 प्रति हेक्टेयर की दर से फेरोमोन पाश को लगाना चाहिये।
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चुभाने एवं चूसने वाले कीटों के नियंत्रण के लिएइमिडाक्लोप्रिड 8 एसएल @ 0.75 मिली/लीटर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
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इल्लियों (कैटरपिलर) के नियंत्रड के लिए जैविक कीटनाशी के रूप में एन० एस० के० ई० 5प्रतिशत की 50 ग्राम मात्रा को या नीम का तेल 1500 पी०पी०एम० 1-1.5 मि०ली० या बेवेरिया बेसियाना 5-10 मि०ली० या मेटाराईजियम एनिसोप्ली 5-10 मि०ली० या बेसिलिस थुरिजिएंसिस प्रजाति कुरूस्टाकी 5 मि०ली०, उपरोक्त में से किसी एक जैविक कीटनाशी को प्रति लीटर जल में मिलाकर समांतर रूप से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए। प्रति हेक्टेयर की दर से 250 से 500 एल० ई० न्यूक्लियर पोलीहेड्रोसिस विषाणु की मात्रा को जल में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
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जब फसल में फली भेदक की सुंडिया आर्थिक दहलीज को पार करदें तब, निम्न में से किसी एक रासायनिक कीटनाशी का छिड़काव करना चाहिए, लेम्बडा साइहेलोथ्रिन 2 मि०ली० या इमामेक्टिन बेंजोएट 5 प्रतिशत एस०जी० की 1 ग्राम मात्रा या स्पाइनोसेड 45 प्रतिशत एस०सी० की 20 से 0.30 मि०ली० मात्रा प्रति लीटर जल में मिलाकर समांतर रूप से खड़ी फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
मूंगफली पर निम्नलिखित रोगों का विशेष आक्रमण होता है:
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मूंगफली का टिक्का रोग: इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम नीचे वाली पत्तियों पर पाये जाते हैं, जो बाद में फैलकर पर्णवृत तथा तनों पर स्पष्ट हो जाते हैं। पत्तियों पर गहरे धब्बे पड़ जाते हैं, जो बाद में पीले भूरे गोल, चकत्तों में बदल जाते हैं। इन धब्बों की संख्या निरंतर बढ़ती जाती है. जिसके फलस्वरूप पत्तियां सूखकर बड़ी संख्या में गिरने लगती है।
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शिखर विगलन या ऐस्पर्जिलस अंगमारी: इस रोग के प्रभाव के कारण बीज पत्रों, बीजपत्राधरों एवं तनों पर गोल, हल्के भूरे धब्बे पड़ जाते हैं। बाद में ये धब्बे मुलायम हो जाते हैं तथा सड़ने लगते हैं। फलस्वरूप पौधा गिर जाता है तथा बाद में पूर्णतः नष्ट हो जाता है।
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रोजेट या गुच्छ रोग: यह रोग विषाणु द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग के प्रभाव से पौधे बौने रह जाते हैं तथा उनका रूप ‘रोजेट’ जैसा हो जाता है। इसके साथ-साथ ऊतकों का रंग पीला पड़ना आरंभ हो जाता है और 'मोजेक जैसा प्रदर्शित होता है।
एकीकृत रोग प्रबंधन:
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रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।
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रोजेट या गुच्छ रोग के प्रति रोधी किस्में- आरजी 1, केएच 149ए, केएच 241डी, 69-101, आरएमपी 91, 93, 12, 55-437
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अगेती टिक्का रोगके प्रति रोधी किस्में- टिफटन 1108, एएचएस 17, 29, 477, 698, 7188, पीआईएस 109839
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पछेती टिक्का रोगके प्रति रोधी किस्में- टिफटन 1108, यूएसए 60, एएचएस 17, 29, 477, 698, 7188
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प्रमाणित या पंजीकृत बीज की बुवाई करनी चाहिये।
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बीज को जैविक कवकनाशी से उपचारित करके बोना चाहिए।
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खेत में से अवांछित खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए।
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प्रतिवर्ष एक ही खेत में बार बार मूंगफली की फसल को नहीं उगाना चाहिए।
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फसल चक्र अपनाना चाहिए, उचित समय पर बुवाई करनी चाहिए।
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उर्वरक को उचित संतुलन में उपयोग करना चाहिए।
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संश्लेषित दवाइयों का कम से कम उपयोग करना चाहिए।
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रोग ग्रसित पौधों को जड़ सहित उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
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ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए, जिससे मिट्टी में उपस्थित रोगकारक नष्ट हो जाए।
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रोग एवं कीटों के प्रति संवेदनशील प्रजातियों को नहीं उगाना चाहिए।
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निश्चित समय अंतराल पर फसल की देखरेख करते रहना चाहिए।
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चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए एजॉक्सीस्ट्रोबिन 9प्रतिशत या सल्फर धूल की 40 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
नोट-उपरोक्त बताई गई कीट एवं रोगनाशी दवाओं को नजदीकी एग्रीजंक्शन स्टोर पर उपलब्धता के आधार पर किसी एक का चयन करें एवं फसलों पर रोग-व्याधियों के प्रबंधन से संबंधित अधिक जानकारी के लिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालय में जाकर विषय विशेषज्ञों से परामर्श लेना चाहिए।
लेखक- अरुण कुमार1*, ऋषभ मिश्रा2, आशुतोष सिंह अमन3, सौरभ कुमार4, देवांशु दीक्षित5 एवं निकिता सिंह चौहान6
1,2,3शोध छात्र (पी०एच०डी०), कीट विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०), भारत 208002
4स्नातकोत्तर छात्र (एम०एस०सी०), कीट विज्ञान विभाग, बाँदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, बाँदा (उ० प्र०), भारत 210001
5,6शोध छात्र (पी०एच०डी०), कृषि प्रसार विभाग, महात्मा गाँधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय, चित्रकूट (म० प्र०), भारत 485334
संवादी लेखक- अरुण कुमार ई-मेल आई०डी०- arunkumarbujhansi@gmail.com