NSC की बड़ी पहल, किसान अब घर बैठे ऑनलाइन आर्डर कर किफायती कीमत पर खरीद सकते हैं बासमती धान के बीज बिना रसायनों के आम को पकाने का घरेलू उपाय, यहां जानें पूरा तरीका भीषण गर्मी और लू से पशुओं में हीट स्ट्रोक की समस्या, पशुपालन विभाग ने जारी की एडवाइजरी भारत का सबसे कम ईंधन खपत करने वाला ट्रैक्टर, 5 साल की वारंटी के साथ एक घंटे में 5 एकड़ खेत की सिंचाई करेगी यह मशीन, समय और लागत दोनों की होगी बचत Small Business Ideas: कम निवेश में शुरू करें ये 4 टॉप कृषि बिजनेस, हर महीने होगी अच्छी कमाई! ये हैं भारत के 5 सबसे सस्ते और मजबूत प्लाऊ (हल), जो एफिशिएंसी तरीके से मिट्टी बनाते हैं उपजाऊ Goat Farming: बकरी की टॉप 5 उन्नत नस्लें, जिनके पालन से होगा बंपर मुनाफा! Mushroom Farming: मशरूम की खेती में इन बातों का रखें ध्यान, 20 गुना तक बढ़ जाएगा प्रॉफिट! आम की फसल पर फल मक्खी कीट के प्रकोप का बढ़ा खतरा, जानें बचाव करने का सबसे सही तरीका
Updated on: 1 November, 2019 11:48 AM IST
दलहनी फसलों की किस्मों

दालें भारतीय भोजन का अभिन्न अंग है. दालें प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत हैं. इनमें प्रायः 17-24 प्रतिशत तक प्रोटीन पाई जाती है जो कि अनाजों की तुलना में 2-3 गुणा अधिक है. रबी फसलों में चना व मसूर प्रदेश की प्रमुख दलहनी फसलें हैं. दालों की उपज अन्य फसलों के मुकाबले काफी कम है. इसके प्रायः कई कारण हैं जैसे कि अच्छी किस्मों की कमी, कीटों व बीमारियों का प्रकोप आदि. उपज कम होने का एक कारण यह भी है कि इन्हें प्रायः अनाज के साथ मिश्रित ढंग से लगाया जाता है.

रासायनिक खादें विशेषकर नत्रजन खादें अनाज की आवश्यकतानुसार ही डाली जाती है. जो कि अनाज के लिए तो लाभदायक हैं परन्तु दालों की उपज के लिए हानिकारक साबित होती है. इसके साथ साथ दलहनी फसलों की किस्मों का चुनाव क्षेत्रीय अनुकूलता एवं बीजाई के समय को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए ताकि इनकी उत्पादन क्षमता का लाभ लिया जा सके. यही कारण है कि हिमाचल प्रदेश के वह क्षेत्र जहां पहले सभी दालें अच्छी उपज देती थीं अब लुप्त होती जा रही हैं.

भूमि की तैयारी

एक गहरा हल चलाने के बाद देसी हल से 3-4 बार जुताई करें तथा प्रत्येक जुताई के बाद सुहागा चलाएं जिससे मिट्टी भुरभुरी हो जाए.

जीवाणु खादें

फसल की उन्नत पैदावार के लिए नत्रजन देने वाली जीवाणु खादें राइजोबियम कल्चर एवं फास्फोरस को घुलनशील एवं गतिशील बनाने वाली जीवाणु खाद पी॰ एस॰ बी॰ का प्रयोग करें. जीवाणु खादों का प्रयोग मुख्यतः बिजाई के समय पर ही किया जाता है.

जीवाणु खादों से बीज को उपचारित करना

बीज की मात्रा को ध्यान में रखते हुए कल्चर की थैली (25/50/100/200 ग्रा॰) लें. एक किलो ग्राम बीज को उपचारित करने के लिए 25 ग्राम कल्चर पर्याप्त है. 10 प्रतिशत गुड़ या चीनी का घोल बनाकर उसमें जीवाणु खादों की थैली मिला लें. इस मिश्रण से बीज को उपचारित करके छाया में फर्श या बोरे पर फैलाकर थोड़ा सुखा लें. इस प्रकार के उपचारित बीज को बिजाई के लिए प्रयोग में लाएं.

भूमि में जीवाणु खादों का प्रयोग

इस विधि में जीवाणु खादों को सीधे भूमि में बिजाई से पहले मिला दिया जाता है. उत्तम परिणाम पाने के लिए भूमि में खाद मिलाने से कम से कम 15 दिन पहले  8-10 कि॰ग्रा॰ खाद के ढेर में पी॰एस॰बी॰ (50 ग्रा॰) राइजोबियम कल्चर (50 ग्रा॰) को मिलाकर उसमें जीवाणुओं को पनपने दें. इस तरह से खेत में प्रयोग करने वाली संपूर्ण खाद जीवाणुओं से भरपूर हो जाती है.

बीजोपचार

फसल की अच्छी उपज के लिए शुद्ध और स्वस्थ बीज का होना आवश्यक है. बीज जनित रोगों की रोकथाम के लिए अमृत पानी/बीजामृत अथवा ट्राईकोडर्मा (5 ग्रा०/कि०ग्रा० बीज) से बीजोपचार करें. बीज की मात्रा के हिसाब से ही घोल तैयार करें. किसी भी विधि से बीज उपचार करने के बाद बीज को छाया में अवश्य सूखा लें.

उत्पादन तकनीक (Production Technique)

चना

बिजाई का समय

बिजाई का उपयुक्त समय अक्टूबर अंतिम सप्ताह से लेकर नवंबर प्रथम सप्ताह तक होता है, क्योंकि बिजाई के समय यदि तापमान काफी अधिक हो तो पौधों की असाधारण वृद्धि हो जाती है जिससे उपज में काफी कमी आती है.

भूमिः अच्छे जल निकास वाली दोमट और रेतीली भूमि चने की खेती के लिए उत्तम है.

बिजाई व बीज की मात्रा

बीज को 30 सें॰मी॰ की दूरी पर कतारों में बिजाई करनी चाहिए. बीज को 10-12 सें॰मी॰ गहरा डालना चाहिए क्योंकि कम गहरी बिजाई करने पर बीज में रोग लग जाता है. बड़े दाने वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा 60 कि॰ग्रा॰/है॰ तथा छोटे दानें वाली किस्मों के लिए बीज की मात्रा 40-45 कि॰ग्रा॰/है॰ है. जिन स्थानों पर मृदा जनित रोगों का प्रकोप है वंहा बीज को ट्राईकोडर्मा (5 ग्रा०/कि०ग्रा० बीज)से उपचारित करें.

अनुमोदित किस्में

  1. हिमाचल चना-1:यह किस्म राज्य के निचले पहाड़ी क्षेत्रों के लिए वर्ष 1996 में विकसित व विमोचित की गई.यह एस्कोकाइटा बलाइट के लिए प्रतिरोधी किस्म है. इसका औसत उत्पादन 12-14 क्विंटल/है॰ है

  2. हिमाचल चना- 2:इस किस्म के पौधे खड़े व मध्यम ऊँचाई के होते हैं. यह किस्म मुरझान रोग के प्रति पूर्ण प्रतिरोधी व जड़ सड़न एवं कालर राट के लिए मध्यम प्रतिरोधी है. निचले व मध्य पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. इसका औसत उत्पादन 14-17 किवन्ताल/है॰ है.

  3. पालम चना - 3: यह किस्म निचले व मध्य पहाड़ी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. यह किस्म मुरझान रोगए जड़ सड़न एवं कालर राॅट के लिए मध्यम प्रतिरोधी है. इसका औसत उत्पादन 15-16 किवन्ताल/है॰ है.

  4. एच.पी.जी. -17: यह प्रदेश के उन सभी स्थानों में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है जहां चना उगाया जाता है. यह मोटे बीजों वाली (22 ग्रा./100 बीज) किस्म है. यह झुलसा व उखेड़ा रोग के लिए अच्छी प्रतिरोधी है. यह मध्यम ऊँचाई की फैलने वाली किस्म है जो पत्तों के गुच्छों से परिपूर्ण होती है. इसकी उपज 13-15 क्विंटल/हैक्टेयर है.

  5. ज.पी.एफ.–2: यह अधिक पैदावार देने वाली, झुलसा रोग प्रतिरोधी तथा समय पर बिजाई हेतु अनुमोदित एक नई किस्म है. यह हिमाचल चना - 1 अनुमोदित किस्म से लगभग 10 दिन पहले पककर तैयार होती है. यह किस्म औसतन 7 क्विंटल/हैक्टेयर पैदावार देती है.

खाद प्रबन्धनः केंचुआ खाद 5 टन/है॰ या देसी खाद 10 टन/है॰ बिजाई के समय डालें तथा जीवाणु खाद (राइजोबियम) से बीज उपचार भी करें.

खाद व उर्वरक

20 कि.ग्रा. नाईट्रोजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस व 20 कि.ग्रा. पोटाष बिजाई के समय प्रति हैक्टेयर डालें.

जल प्रबन्धन

बिजाई के समय भूमि में पर्याप्त मात्रा मे नमी है तो फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है. फली वाली फसलों को आरंभ में पानी नहीं देना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से जड़ों में गांठें बनने में रूकावट आती है और जड़ों के पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती. यदि सिंचाई की जरूरत हो जो एक सिंचाई फूल पड़ने पर तथा दूसरी फलियां बनने पर करनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण

फसल की प्राम्भिक अवस्था में दो बार निराई गुड़ाई अवश्य करनी चाहिए जिससे कि खरपतवार पर नियंत्रण पाया जा सके. मल्य के उपयोग से भी खरपतवारों की समस्या से निपटा जा सकता है.

पौध संरक्षण

(1) कीट

फली छेदक: आरम्भ में सुंडियां पौधे की ऊपर की पत्तियों को खती हैं और बाद में फलियों में छेद करके अंदर चली जाती हैं और बढ़ते हुए दानों को खाती हैं.

रोकथाम:

50 प्रतिशत फूल आने पर 1250 ग्राम कार्बेरिल 50 डब्ल्यू. पी. (सेविन) को 625 लीटर पानी में प्रति हैक्टेयर छिड़काव करें या अजेडिरेकटिन (0.03:) का छिड़काव करें, यदि कीड़े का प्रकोप फिर भी हो तो 15 दिन के बाद फिर छिड़काव करें.

सवधानी: हरी फलियों को दवाई छिड़कने के 15 दिनों तक खाने के लिए न तोड़ें.

कटुआ कीट: मटमैले रंग की सुडिंयां भूमि में छिपी रहती हैं और उगते पौधों को भूमि की सतह से काट कर बहुत हानि पहुंचाती हैं

रोकथामः

2 लीटर क्लोरपाईरीफास 20 ई.सी. को 25 कि.ग्रा. रेत में मिलाकर प्रति हैक्टेयर बिजाई से पहले खेत में ड़ाले.

(2) बीमारियां

झुलसा रोग: यह बिमारी गहरे काले धब्बों व छोटे-छोटे काले बिंदुओं के रूप में तने, शाखाओं, पत्तों व फलियों पर प्रकट होती है. पत्तों और फलियों पर बिमारी के लक्ष्ण एक समान दिखाई देते हैं. अधिक बिमारी होने पर पूरा पौधा ही झुलस कर मर जाता है.

रोकथाम

रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे हिमाचल चना - 1 तथा हिमाचल चना - 2 लगाएं.

रोग रहित व स्वस्थ बीज लगाएं.

बीज का वीटावैक्स/इंडोफिल एम - 45 (2.5 ग्रा/कि.ग्रा. बीज) से उपचार करें.

बीमारी के लक्षण आते ही इंडोफिल एम -45 (0.25:) से छिड़काव करें तथा 15 दिन के बाद फिर छिड़काव करें.

उखेड़ा रोगः बीमारी वाले पौधे पहले पीले पड़ते हैं फिर मुरझा कर अंत में सूख जाते हैं. ज़ड़ें काली हो जाती हैं और पूरी सड़ जाती है.

रोकथाम

रोग प्रतिरोधी किस्में जैसे हिमाचल चना -2 लगाएं.

गहरा हल चला कर भूमि तैयार करनी चाहिए.

फसल की देरी से बिजाई करनी चाहिए.

बीज का बैवीस्टीन $ थीरम (1:1) (2.5 ग्राम/कि.ग्रा. बीज) से उपचार करें.

कटाईः  जब पौधे सुख कर पीले पड़ जाए तो इस अवस्था में फसल की कटाई कर लेनी चाहिये. दोनों का 8-9 प्रतिशत नमी तक धूप में सुखाकर भड़ारम करना चाहिये.

मसूर

बिजाई का समयः अक्टूबर के अंत से नवम्बर के मध्य तक बिजाई का उपयुक्त समय है.

भूमि की तैयारीः भूमि में तीन बार जुताई करनी चाहिए. भूमि समतल होनी चाहिए ताकि इसमें पानी खड़ा न हो सके. जुताई के समय जीवामृत (अथवा) मटका खाद का छिड़काव करें भूमि में लाभदायक जावाणुओं का संचार हो सके.

बिजाई व बीज की मात्राः  सही समय की बिजाई के लिस 25-30 कि॰ ग्रा॰ प्रति हैक्टेयर बीज पर्याप्त है. बीज को केरा विधि से 25-30 सेंटीमीटर की दूरी पर पंक्तियों में लगाएं. जिन स्थानों पर मृदा जनित रोगों का प्रकोप है वंहा बीज को ट्राईकोडर्मा (5 ग्रा०/कि०ग्रा० बीज)से उपचारित करें.

अनुमोदित किस्में:

1. विपाशा (एच॰पी॰एल॰-5): इस किस्म को सामान्यतः हिमाचल प्रदेश में उगाने के लिए एवं एल॰ 9-12 किस्म को बदलने के लिए वर्ष 1980 मे विकसित व विमोचित किया गया. पौधे हल्के हरे रंग के मोम मुक्त एवं झुलसा रोग प्रतिरोधी होते है. बीज बड़े व हल्के भूरे आकर्षक रंग के होते है. पौधे 175-185 दिनों में पूर्ण विकसित हो जाते है. औसत उपज 14-15 क्विंटल/है॰ होती है.

2. मार्कंडेय (ई॰सी॰-1): यह किस्म निचले व मध्य पहाड़ी क्षेत्रों के लिए वर्ष 2005 में विकसित व विमोचित की गई. पौधै खड़े व मध्यम ऊँचाई के एवं छोटे आकार के हरे रंग के पत्तों से भरे होते हैं. बीज काफी बड़े व हल्के भूरे रंग के होते हैं. यह किस्म रतुआ, झुलसा एवं तना सड़न रोगों के लिए प्रतिरोधी है. औसतन उत्पादन 19-19.5 क्विंटल /है॰ है.

2.6 खाद प्रबन्धनः केंचुआ खाद 5 टन/है॰ या देसी खाद 10 टन/है॰ या हिम कम्पोस्ट 2.5 टन/है॰ या नाडेप 10 टन/है॰ बिजाई के समय डालें तथा तरल जैविक खाद हिमसोल या वर्मीवाश के तीन छिड़काव बिजाई के 15, 30 एवं 45 दिन के बाद खड़ी फसल में 1:10 (खादःपानी) की मात्रा में करें. जीवाणु खाद (राइजोबियम) से बीज उपचार भी फसल उत्पादन में लाभदायक पाया गया है.

जल प्रबन्धनः फलियां बनने के समय एक सिंचाई देनी चाहिए ताकि उपज में बढ़ौतरी हो सके.

खरपतवार नियंत्रणः खरपरवारों को नियंत्रित करने के लिए एक या दो बार गुड़ाई करनी चाहिए. मल्चिंग का उपयोग भी खरपतवारों को नियन्त्रण में सहायक होता है.

कटाईः जब 80 प्रतिशत तक पौधे  पीले पड़ जाए  तो फसल को काट लेना चाहिए. गहाई करके दोनों को 8-9  प्रतिशत नमी पर भंड़ारित करना चाहियें. 

English Summary: Improved varieties of Rabi pulses crops, method of cultivation, prevention of diseases and yield.
Published on: 01 November 2019, 11:59 AM IST

कृषि पत्रकारिता के लिए अपना समर्थन दिखाएं..!!

प्रिय पाठक, हमसे जुड़ने के लिए आपका धन्यवाद। कृषि पत्रकारिता को आगे बढ़ाने के लिए आप जैसे पाठक हमारे लिए एक प्रेरणा हैं। हमें कृषि पत्रकारिता को और सशक्त बनाने और ग्रामीण भारत के हर कोने में किसानों और लोगों तक पहुंचने के लिए आपके समर्थन या सहयोग की आवश्यकता है। हमारे भविष्य के लिए आपका हर सहयोग मूल्यवान है।

Donate now