गेहूं (ट्रिटिकम प्रजाति) रबी मौसम की प्रमुख धान्य फसलों में से एक है। भारत एक प्रमुख कृषि प्रधान देश है। भारत 1.27 अरब की आबादी के साथ दुनिया का दूसरा सबसे अधिक आवादी वाले देश की श्रेणी में आता है, यहाँ की लगभग 70% ग्रामीण जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। गेहूं भारत देश की प्रमुख खाद्य फसल है, यह कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन का प्राचुर श्रोत है, भारत में मुख्यतः गेहूं की तीन प्रजातियों की खेती की जाती है, जिसमे ट्रिटिकम एस्टिवम, ट्रि० ड्यूरम एवं ट्रि० वल्गेयर है। इस समय भारतीय कृषक गेहूं की फसल के लिए खेत की तैयारी कर रहे हैं, परन्तु गेहूं का विविध रोग-व्याधियों के प्रकोप के कारणस्वरूप आर्थिक उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। गेहूं के कुल उत्पादन में लगभग 20% प्रतिशत तक क्षति का प्रमुख कारण रोगों के बताया गया है। इस लेख का प्रमुख उद्देश्य किसानों तक गेहूं के रोगों की पहचान एवं प्रबंधन के संदर्भ में सटीक जानकारी को पहुंचाना हैं, जिससे वह समय रहते रोग-व्याधियों के प्रति उचित कदम उठा सकें।
वर्तमान आंकड़े:
भारतवर्ष विश्व स्तर पर चीन के बाद गेहूं का दूसरा प्रमुख उत्पादक देश है (वैश्विक उत्पादन 779 मिलियन मीट्रिक टन है)। वर्तमान समय में भारत में सत्र 2021 से 22 के दौरान संपूर्ण खाद्यान्न का कुल उत्पादन 314.51 मिलियन टन दर्ज किया गया है, जिसमे, गेहूं का कुल उत्पादन सत्र 2021 से 22 के दौरान 106.4 मिलियन टन रहा जो कि भूतपूर्व सत्र 2020 से 21 में 109.59 मिलियन टन था, अपितु अब 3% कम प्राप्त हुआ है। कृषि सत्र 2021 से 22 के दौरान भारतवर्ष से गेहूं का कुल निर्यात 7.85 मिलियन टन रहा।
गेहूं की फसल में लगने वाली प्रमुख रोग-व्याधियां:-
गेहूं की फसल मुख्य रूप से आठ प्रकार के रोगों से प्रभावित होती है, जो कि निम्न है:-
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किट्ट (रस्ट) रोग
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करनाल बंट रोग
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अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग
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चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग
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अल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी (अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट) रोग
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सेहूँ (टुंडू) रोग
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ध्वज कंड (फ्लैग स्मट) रोग
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पाद विगलन (फुट रॉट) रोग
1. किट्ट (रस्ट) रोग:
गेहूं की फसल में तीन प्रकार के किट्ट (रस्ट) रोग लगते हैं, जो कि निम्न है:-
(i) भूरा किट्ट/पर्ण किट्ट (ब्राउन रस्ट) रोग:
(ii) पीला किट्ट/धारी किट्ट (येलो रस्ट) रोग:
(iii) काला किट्ट/तना किट्ट (ब्लैक रस्ट) रोग:
(i) भूरा किट्ट/पर्ण किट्ट (ब्राउन रस्ट) रोग:
यह मृदा एवं वायु जनित रोग है जो कि भारत में सर्वप्रथम गेहूं एवं जौ की फसल पर देखा गया था। भूरा किट्ट, जिसे पर्ण किट्ट या ब्राउन रस्ट के नाम से भी जाना जाता है, यह रोग पक्सिनिया ट्रिटिसिना नामक कवक से उत्पन्न होता है। यह रोग उन समस्त स्थानों पर पाया जाता है, जहाँ पर गेहूं, जौ एवं अन्य अनाज की फसलों को वृहद क्षेत्रफल में उगाया जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों सतह पर गोलाकार नारंगी भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इस रोग के संक्रमण के विकास के लिए 15 oC से 20 oC तापक्रम अनुकूल माना जाता है। प्रतिवर्ष देश के विभिन्न क्षेत्रों में इस रोग द्वारा 30-40 प्रतिशत से भी अधिक क्षति का अनुमान लगाया गया है।
(ii) पीला किट्ट/धारी किट्ट (येलो रस्ट) रोग:
गेहूं के पीले किट्ट को धारी किट्ट एवं येलो रस्ट के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग पक्सिनिया स्ट्राइफॉर्मिस प्रजाति ट्रिटिसाई नामक कवक से उत्पन्न होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों पर पीले नारंगी रंग के फफोले पड़ जाते हैं। इस रोग को अपने प्रभावी संक्रमण के लिए 8 oC से 12 oC तापक्रम की आवश्यकता होती है, इस रोग को अनुकूल परिस्थितियां मिलने पर यह फसल को शत प्रतिशत तक क्षति पहुंचा सकता है।
(iii) काला किट्ट/तना किट्ट (ब्लैक रस्ट) रोग:
गेहूं के काले किट्ट को तना किट्ट एवं ब्लैक रस्ट के नाम से भी जाना जाता है। यह रोग पक्सिनिया ग्रेमिनिस प्रजाति ट्रिटिसाई नामक कवक से उत्पन्न होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों के तनों पर उभरे हुए छाले नुमा धब्बे बन जाते हैं, संक्रमण की तीव्रता से कभी कभी यह गेहूं की पत्तियों पर भी पाए जाते हैं तथा इस से प्रभावित गेहूं के दानों की सतहों पर नारंगी या गहरे लाल रंग के धब्बे बन जाते हैं। जिन स्थानों पर वातावरण का तापमान 15 oC से 30 oC डिग्री सेल्सियस होता है, वहाँ पर इस रोग का अधिक संक्रमण पाया जाता है। वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार इस रोग से ग्रसित गेहूं की फसल में 70% तक क्षति का आंकलन किया गया है।
2. करनाल बंट रोग:
गेहूं का यह रोग सर्वप्रथम करनाल (हरियाणा) में वर्ष 1931 में देखा गया था। यह गेहूं का प्रमुख मृदा, बीज एवं वायु जनित रोग है। गेहूं का करनाल बंट रोग टिलेटिया इंडिका नामक कवक से उत्पन्न होता है, इसे आंशिक बंट व गेहूं का कैंसर रोग के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की बालियों के दानों में काला चूर्ण भर जाता है, जिससे उनमें से ट्राईमिथाइल एमीन के कारण सड़ी हुई मछली के जैसी दुर्गन्ध आने लगती है। यह रोग उन समस्त स्थानों पर पाया जाता है, जहाँ पर रबी के मौसम में वातावरण का तापमान 15 oC से 20 oC के मध्य रहता है। इस रोग के प्रचंड प्रकोप से भारतवर्ष में लगभग 40% तक गेहूं की उपज में क्षति का अनुमान लगाया गया है।
3. अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग:
गेहूं के अनावृत कंड रोग को लूज स्मट के नाम से भी जाना जाता है, यह रोग प्रमुख बीज जनित रोग है, यह रोग अस्टीलेगो न्यूडा ट्रिटिसाई नामक कवक से उत्पन्न होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की बालिया काली पड़ जाती है, अंततः संपूर्ण पौधा मुरझा कर सूख जाता है और समस्त फसल नष्ट हो जाती है। इस रोग को अपने समुचित संक्रमण के लिए 16 oC तापक्रम की आवश्यकता होती है। इस रोग से संपूर्ण देश भर में 3-6 प्रतिशत तक गेहूं के उपज में कमी आती है, इस रोग का प्रकोप उत्तर भारत में सर्वाधिक देखा गया है।
4. चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग:
चूर्णिल आसिता प्रमुख मृदा एवं वायु जनित रोग है, जो कि ब्लूमेरिया ट्रिटिसाई नामक कवक से उत्पन्न होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों, पर्णव्रंतो तथा बालियों पर सफेद भूरे रंग का चूर्ण जम जाता है एवं अनुकूल परिस्थितियों को पाने के बाद यह पौधे के संपूर्ण भाग को ढँक लेता है, जिससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया बंद हो जाती है और अंततः संपूर्ण फसल नष्ट हो जाती है।
5. अल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी (अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट) रोग:
गेहूं की फसल में यह रोग अल्टरनेरिया ट्रिटिसाई नामक कवक से उत्पन्न होता है, यह रोग भारत में सर्वप्रथम 1962 में गेहूं की फसल पर देखा गया था। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियों पर छोटे अंडाकार पीले रंग के क्लोरोटिक घाव पड़ जाते हैं। पूर्ण विकसित पौधों पर इसका प्रभाव कम होता है, यह रोग छोटे पौधों में सर्वाधिक देखा गया है। इस रोग के लक्षण सर्वप्रथम पौधों की निचली पत्तियों पर दिखाई देते हैं, तत्पश्चात ऊपरी पत्तियों पर भी इसका संक्रमण फैल जाता है, परिणामस्वरूप संपूर्ण पौधों प्रभावित होकर नष्ट हो जाता है। इस रोग को अपने प्रभावी संक्रमण के लिए 20 oC से 25 oC वातावरणीय तापक्रम की आवश्यकता होती है। इस रोग से फसल की 60% तक उपज प्रभावित होती है।
6. सेहूँ (टुंडू) रोग:
गेहूं के इस रोग को टुंडू एवं पीत बालि सड़न रोग के नाम से भी जाना जाता है। पौधों में यह रोग क्लेवीवेक्टर ट्रिटिसाई नामक जीवाणु एवं अंगुइना ट्रिटिसाई नामक निमेटोड के समुच्चय से उत्पन्न होता है। इस रोग से ग्रसित पौधों की पत्तियाँ मुड़ जाती है, सहपत्र एवं पुष्पक्रम से पीला लसलसा पदार्थ स्रावित होने लगता है, परिणामस्वरूप संपूर्ण पौधा रोग ग्रसित होकर मुर्झा जाता है।
7. ध्वज कंड (फ्लैग स्मट) रोग:
गेहूं में यह रोग यूरोसिस्टिस एग्रोपाइरी नामक कवक से उत्पन्न होता है। यह रोग प्रायः उत्तर भारत में जहाँ बलुई मिट्टी पाई जाती है, वहाँ पर इसका प्रकोप सर्वाधिक रूप से देखा गया है। इस रोग से संक्रमित पौधों की पत्तियाँ, शीर्ष एवं तने आदि पर काली उभरी हुई धारियाँ बन जाती है, जिससे संक्रमित पौधे अक्सर छोटे रह जाते हैं। यह रोग 20 oC वातावरणीय तापक्रम पर अधिक प्रभावी रूप से पौधों को संक्रमण पहुंचाता है। इस रोग से गेहूं की फसल में 5-20 प्रतिशत तक उपज में कमी अनुमानित है।
8. पाद विगलन (फुट रॉट) रोग:
गेहूं की फसल में यह रोग कोक्लियोवोलस सटाईवस नामक कवक से उत्पन्न होता है, इस रोग से ग्रसित पौधों की जड़ें सड़ जाती है एवं पौधों की निचली पत्तियों पर लंबाकार भूरे-काले रंग के चकत्ते पड़ जाते हैं, जिससे पौधों की बढ़वार रुक जाती है, अंततः संपूर्ण पौधा मुरझा कर सूख जाता है। इस रोग को अपने संक्रमण के लिए 28 से 32 डिग्री सेल्सियस तापक्रम की आवश्यकता पड़ती है।
गेहूं की फसल में एकीकृत रोग प्रबंधन:
अगर कृषक अग्रलिखित उपायों को सही ढंग से अपनाते हैं, तो वह अपनी फसल से रोगों के प्रकोप को कम कर सकते हैं-
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रोग प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए।
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करनाल बंट रोग के प्रति रोधी किस्में- डब्ल्यू० एच० डी० 943, पी० डब्ल्यू० डी० 291, डब्ल्यू० एल० 1562 एवं एच० डी० 2281 आदि।
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अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग के प्रति रोधी किस्में- पी० बी० डब्ल्यू० 396, ए० के० डी० डब्ल्यू० 2997-16, एवं एच० डी० 4672 आदि।
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चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग के प्रति रोधी किस्में- जिमाई 23, एस० एन० 15218 (प्रजनन रेखा) एवं टेमलो आर० 32 आदि।
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अल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी (अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट) रोग के प्रति रोधी किस्में- एच० यू० डब्ल्यू० 612, एच० यू० डब्ल्यू० 468, पी० बी० डब्ल्यू० 343, के० 508 एवं एच० डी० 3003 आदि।
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किट्ट (रस्ट) रोग के प्रति रोधी किस्में- कल्याणसोना, लर्मा रोजो, सोनालिका, सफेद लर्मा, एन० पी० 700 एवं एन० पी० 800 आदि।
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प्रमाणित या पंजीकृत बीज की बुवाई करनी चाहिये।
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बीज को जैविक कवकनाशी से उपचारित करके बोना चाहिए।
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खेत में से अवांछित खरपतवारों को नष्ट कर देना चाहिए।
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प्रतिवर्ष एक ही खेत में बार बार गेहूं की फसल को नहीं उगाना चाहिए।
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फसल चक्र अपनाना चाहिए।
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उर्वरक को उचित संतुलन में उपयोग करना चाहिए।
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संश्लेषित दवाइयों का कम से कम उपयोग करना चाहिए।
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उचित समय पर बुवाई करनी चाहिए।
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रोग ग्रसित पौधों को जड़ सहित उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
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ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करनी चाहिए, जिससे मिट्टी में उपस्थित रोगकारक नष्ट हो जाए।
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रोग के प्रति संवेदनशील प्रजातियों को नहीं उगाना चाहिए।
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निश्चित समय अंतराल पर फसल की देखरेख करते रहना चाहिए।
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करनाल बंट रोग के प्रभाव को कम करने के लिए गेहूं की फसल में चना या मसूर की पौधों को अंतःः फसल के रूप में उगाना चाहिए।
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गेहूं से अनावृत कंड (लूज स्मट) रोग के खतरे को कम करने के लिए बुवाई से पूर्व बीज को 4 घंटे (सुबह 8:00 बजे से 12:00 बजे दोपहर तक) के लिए पानी में भिगोना चाहिए, तत्पश्चात तेज धूप में 12:00 बजे दोपहर से शाम 4:00 बजे तक रखना चाहिये, जिससे रोग कारक बीजों से नष्ट हो जाता है।
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बुवाई से पूर्व गेहूं के बीज को पानी में 20 oC से 30 oC तापक्रम पर 4-6 घंटे के लिए भिगोना चाहिए, तत्पश्चात पानी में 49 oC तापक्रम पर 2 मिनट तक डुबोकर रखना चाहिये।
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विटावैक्स या बेलेट की 0.2% मात्रा से बीजोपचार करना चाहिए।
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चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए एजॉक्सीस्ट्रोबिन 22.9 प्रतिशत या सल्फर धूल की 40 किलो ग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
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भूरा किट्ट/पर्ण किट्ट (ब्राउन रस्ट) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए एजॉक्सीस्ट्रोबिन 22.9 प्रतिशत के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए, यह कवकनाशी इस रोग पर अधिक प्रभावी है।
यह भी पढ़ें: गेहूं की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और रोकथाम करने का तरीका
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पीला किट्ट/धारी किट्ट (येलो रस्ट) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए मेटाकोनाजोल 8.6 प्रतिशत के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए, यह कवकनाशी इस रोग पर अधिक प्रभावी है।
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काला किट्ट/तना किट्ट (ब्लैक रस्ट) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए पिकॉक्सीस्ट्रोबिन 22.5 प्रतिशत के हिसाब से प्रयोग करना चाहिए, यह कवकनाशी इस रोग पर अधिक प्रभावी है।
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फसल में से किट्ट (रस्ट), अल्टरनेरिया पर्ण अंगमारी (अल्टरनेरिया लीफ ब्लाइट) एवं चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) रोग के प्रभाव को कम करने के लिए थिओफेनेट मिथाइल (टॉप्सिन एम० की 70 प्रतिशत डब्ल्यू० पी० की 280 से 300 ग्राम मात्रा को 300 से 400 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए।
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नोट-उपरोक्त बताई गई रोगनाशी दवाओं को नजदीकी एग्रीजंक्शन स्टोर पर उपलब्धता के आधार पर किसी एक का चयन करें एवं फसलों पर रोग-व्याधियों के प्रबंधन से संबंधित अधिक जानकारी के लिए अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र या कृषि विश्वविद्यालय में जाकर विषय विशेषज्ञों से परामर्श लेंना चाहिए।
लेखक-
अरुण कुमार1*, पवन कुमार2, मुकुल कुमार3, अनूप कुमार4, आशुतोष सिंह अमन5 एवं प्रमोद कुमार मिश्र6
1,5,6शोध छात्र (पी०एच०डी०), कीट विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०) 208002
2सहायक प्राध्यापक, कीट विज्ञान विभाग, दीन दयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उ० प्र०) 273009
3शोध छात्र (पी०एच०डी०), पादप रोग विज्ञान विभाग, चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कानपुर (उ० प्र०) 208002
4शोध छात्र (पी०एच०डी०), पादप रोग विज्ञान विभाग, सैम हिगिनबॉटम कृषि, प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान विश्वविद्यालय, प्रयागराज, (उ० प्र०) 211007
संवादी लेखक- अरुण कुमार
ई-मेल आई०डी०- arunkumarbujhansi@gmail.com