मटर की खेती पूरे भारत में व्यवसायिक रूप से की जाती है. शीतकालीन सब्जियों में मटर का एक मुख्य स्थान है. इसकी खेती हरी फली और दाल प्राप्त करने के लिए की जाती है. मटर की दाल की जरूरत को पूरा करने के लिए पीले मटर की खेती की जाती है. पीले मटर का उपयोग बेसन के बेसन के रूप में डाल के रूप में और छोले के रूप में किया जाता है. फलिया निकलने के बाद पौधों के हरे भाग का उपयोग पशुओं के चारे के लिए किया जाता है. दलहनी फसल होने के कारण इसकी खेती से भूमि की उर्वरक शक्ति बढ़ती है. मटर में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, फास्फोरस, रेशा, पोटैशियम और विटामिन जैसे मुख्य तत्व पाए जाते हैं जो हमारे शरीर के लिए लाभदायक होते हैं. हरी मटर का सेवन करने से शरीर चुस्त-दुरुस्त रहता है क्योंकि मटर में भरपूर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट होते हैं. मटर की फसल में कई रोगों के प्रकोप की संभावना हो सकती है जिनमें से निम्नलिखित रोगों के लक्षण एवं उनके रोकथाम निम्नलिखित है:-
पाउडरी मिल्ड्यू:-
इस रोग के लक्षण पत्तियों, कलियों, टहनियों व फूलों पर सफेद पाऊडर के रूप में दिखाई देता है. पत्तियों पर की दोनों सतह पर सफेद रंग के छोटे-छोटे धब्बों के रूप में उत्पन्न होते हैं व धीरे-धीरे फैलकर पत्ती की सारी सतह पर फैल जाते है. रोगी पत्तियां सख्त होकर मुड़ जाती हैं. अधिक संक्रमण होने पर सूख कर झड़ जाती हैं. संक्रमित कलिकाएं अन्य स्वस्थ कलिकाओं से पांच से आठ दिन बाद खिलती हैं और उन पर फल नहीं लगते. अगर उनमें फल लग भी जाएं तो वे छोटे आकार के रह जाते हैं. कलियों पर पूरे धब्बे प्रकट होते हैं और फलियों के भीतर फफूंद उग जाती है सचिन के दोनों और फलियों पर वेतन ऊपर सफेद चकते दिखाई देते हैं .
रोकथाम
फसल पर घुलनशील सल्फर (सल्फैक्स) 500 ग्राम प्रति एकड़ या बाविस्टिन 200 ग्राम प्रति एकड़ या कैराथेन 40 ई.सी. 80 मिली लीटर प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें. देर से पकने वाली बीज हेतु फसल में 0.1% कैलेक्सीन भी लाभदायक है.
जड़ गलन या विल्ट:-
यह रोग फ्युजेरियम ऑक्सिस्पोरम पाईसी से होता है. इस रोग में पौधों की जड़ें गल जाती है और पौधे मुरझा जाता है. रोगी पौधे की पत्तियां पीली पड़ जाती है तथा पौधा मुरझा जाता है. रोग ग्रस्त पौधे की जड़ों पर बुरे से हरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं जिससे चढ़े गिर जाती है और अंत में पूरा पौधा सूख कर मर जाता है. रोग की व्यापकता के कारण मटर के पौधे के तने विकृत एवं उत्तक का क्षय हो जाते हैं और पौधों की मृत्यु हो जाती है . लक्षण इस रोग के लक्षण पौधे पर फरवरी-मार्च में दिखाई देते हैं पौधे के हरे भाग पर हल्का पीलापन आ जाता है जो धीरे-धीरे भूरा हो जाता है. जड़ों पर काले रंग की धारियां बन जाती.
रोकथाम
बाविष्टिन या कैप्टन 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज का उपचार करें. यह रोग फैला हो वहां अगेती बिजाई नहीं करनी चाहिए. संक्रमित क्षेत्रों में 3 वर्षीय फसल चक्र अपनाएं. स्वास्थ्य बीज का प्रयोग करें.
रतुआ रोग व गेरुआ:-
इस रोग क लक्षण सर्वप्रथम पतियों, तनु और कभी-कभी फलियों पर पीले गोल या लम्बे धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं. इसको इशियमी अवस्था भी कहते हैं. इसके बाद यूरीडोस्पोर पौधों के सभी भाग या पत्तियों के दोनों सतह पर बनते हैं. यह चूर्णी और हल्के भूरे रंग के होते हैं. बाद में इन्हें धब्बों का रंग गहरा भूरा या काला हो जाता है जिससे टीलियम अवस्था कहते हैं. रोग का प्रकोप 17 से 22 डिग्री सेल्सियस तापमान में अधिक नमी तथा उसे बार-बार हल्की बारिश होने से अधिक बढ़ता है. पछेती फसल में यह रोग ज्यादा हानिकारक है.
रोकथाम
बाविष्टिन या कैप्टन 2 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से बीज का उपचार करें. यह रोग फैला हो वहां अगेती बिजाई नहीं करनी चाहिए. रोग परपोषी फसलें ने लगाए जिन क्षेत्रों में इस रोग का अधिक प्रकोप होता है. रोग रोधी किसमें अपनाएं. फसल पर इंडोफिल एम 45 नामक दवा को 400 ग्राम प्रति एकड़ प्रति एकड़ की दर से 200 लीटर पानी में मिलाकर 10 दिन के अंतर पर दो से तीन बार छिड़काव करें.
लेखक: प्रवेश कुमार, सरिता एवं राकेश मेहरा
पादप रोग विभाग
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार