ईसबगोल को स्थानीय भाषा में घोड़ा जीरा भी कहते हैं. पश्चिम राजस्थान और उत्तरी गुजरात में रबी मौसम यह फसल प्रमुख रूप से की जाती है, किन्तु हरियाणा, पंजाब और मध्यप्रदेश में भी इसकी खेती आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं औषधीय फसल होने के कारण की जा रही है. संसार का 80% ईसबगोल हमारे देश में पैदा होता है. ईसबगोल का उपयोग आयुर्वेदिक, यूनानी और पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाता है. साथ है एलोपैथिक चिकित्सा में भी इसे स्वीकार किया गया है. भूसी रहित बीज का उपयोग पशु व मुर्गी आहार में किया जाता है.
उन्नत किस्में
गुजरात ईसबगोल 2: यह किस्म 118 से 125 दिन में पक जाती है तथा 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ तक उपज दे सकती है. इसमें भूसी की मात्रा 28% से 30% तक पाई जाती है.
आर॰ आई॰ 89: राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित यह किस्म 110 से 115 दिन में पक जाती है तथा उपज क्षमता 4.5 से 6.5 क्विंटल प्रति एकड़ है. यह किस्म रोगो तथा कीटों के आक्रमण से कम प्रभावित होती है साथ ही भूसी उच्च गुणवत्ता वाली होती है.
आर॰ आई॰-1: राजस्थान के शुष्क एवं अर्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29 से 47 सेंटीमीटर होती है. यह किस्म 112 से 123 दिन में पक जाती है तथा उपज क्षमता 4.5 से 8.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है.
जवाहर ईसबगोल 4: यह प्रजाति मध्य प्रदेश के लिए अनुमोदित एवं जारी की गई है. इसका उत्पादन 5.5 से 6 क्विंटल प्रति एकड़ लिया जा सकता है.
हरियाणा ईसबगोल 5: इसका उत्पादन 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ हेक्टर लिया जा सकता हैं.
इसके अलावा निहारिका, इंदौर ईसबगोल-1, मंदसौर ईसबगोल भी बेहतरीन किस्में है.
बीज उपचार एवं बुवाई
तुलासिता रोग के प्रकोप से फसल को बचाने हेतु मेटालेक्सिल 35% SD 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें. अच्छी उपज के लिए ईसबगोल की बुवाई नवंबर के प्रथम पखवाड़े में करना उत्तम रहता है. इसका बीज बहुत छोटा होता है. इसलिए इसे क्यारियों में छिटक कर रैक चला देना चाहिए.
बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई कर दें. इस प्रकार छिटक कर के बुवाई करने से 4 से 5 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है. ईसबगोल को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बुवाई करने से निराई गुड़ाई में सुविधा रहती है व साथ ही साथ तुलासिता रोग की तीव्रता भी कम होती है. अगर हो सके तो कतारें पूर्व से पश्चिम तथा या पश्चिम से पूर्व दिशा में निकालें. अन्य दिशाओं में कतारें निकालने से रोग का प्रकोप अधिक देखा गया है. प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या 3.4 लाख के करीब होनी चाहिए, क्योंकि सघन पौधे की संख्या से ज्यादा रोग पनपता है.
जलवायु और भूमि
ईसबगोल की फसल के लिए ठंडा एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त रहता है. बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य का तापमान व मिट्टी का पीएच मान 7-8 सर्वोत्तम होता है. साफ, शुष्क, और धूप वाला मौसम इस फसल के पकाव अवस्था के लिए बहुत जरूरी है. पकाव के समय वर्षा होने पर बीज झड़ जाता है तथा छिलका फूल जाता है जिससे बीच की गुणवत्ता में पैदावार दोनों पर काफी प्रभाव पड़ता है. इसकी खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी जिसमें जल निकासी की उचित प्रबंध हो, उपयुक्त होती है.
खेत की तैयारी एवं भूमि उपचार
खरीफ फसल की कटाई के बाद भूमि की दो से तीन जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाएं. दीमक व भूमिगत कीड़ों की रोकथाम हेतु अंतिम जुताई के समय क्यूनोलफॉस 1.5% चूर्ण 10 किलो प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिला दे. या जैविक फफूंदनाशी बुवेरिया बेसियाना एक किलो या मेटारिजियम एनिसोपली एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बीखेर दे. मिट्टी जनित रोग से फसल को बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा विरिड की एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत अंतिम जुताई के साथ मिट्टी में मिला दें. जैविक माध्यम अपनाने पर खेत में पर्याप्त नमी अवशय रखें.
खाद व उर्वरक
अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद ईसबगोल की खेती के लिए लाभकारी है. इसलिए 15 से 20 तक सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आखरी जुताई के समय मिट्टी में मिलाएं. इसको 30 किलो नत्रजन और 25 किलो फास्फोरस की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है. नत्रजन की आधी एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बीज की बुवाई के समय 3 इंच गहरा उर्वरक दें तथा शेष आधी मात्रा बुवाई के एक माह बाद सिंचाई के साथ दें.
कटाई, मड़ाई एवं औसाई: पौधे में 60 दिन बाद बालियां निकलना शुरू होती है और करीब 115 से 130 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है. पकने पर फसल सुनहरी पीली और बालियां गुलाबी-भूरी हो जाती है तथा बालियों को अंगूठे और उंगलियों के बीच हल्का सा दबाने पर बीज बाहर निकलने लगता है. कटाई के समय मौसम एकदम सूखा होना चाहिए पौधों पर बिल्कुल नमी होनी चाहिए. फसल को एकदम नीचे से या जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है पौधों को बड़े-बड़े कपड़ों में बांधकर खलिहान में फैला दिया जाता है. दो-तीन दिन बाद डंडे से पीटकर या ट्रैक्टर से गहाई की जाती है.